Thursday, October 20, 2011

ये कौन है जो हवाओं का रूख बदलता है!

यह परिस्थितियां निराश करने वाली हैं कि एक महिला अपने अधिकारों की प्राप्ति और मूलभूत समस्याओं के निदान के बजाए मोबाइल की इच्छा रखती है। इसमें सरकार और उसकी नीतियों की बड़ी भूमिका है, विशेषकर उन नीतियों का जो जनता को उभोक्ता से आगे कुछ समझता ही नहीं।

पिछले दिनों पश्चिमी उ॰प्र॰ के सहारनपुर जिला स्थित बेहट तहसील के एक ऐसे गांव में जाने का अवसर मिला जिसकी पहचान न तो गांव की है और न ही कस्बे की है। जीवन स्तर के आधार पर फूल काॅलोनी नामक इस गांव की महिलाओं के साथ बैठक की। बैठक के दौरान उपस्थित महिलाओं से उनकी समस्याओं की जानकारी ली। बातचीत के दौरान बिजली, पानी, मकान, स्कूल जैसी कई समस्याओं से रूबरू हुआ, जिनका सामना काॅलोनी के लोगों को करनी पड़ती है।
ध्यान दिलाना चाहता हूं कि बस्ती और गांव के बीच अटके हुए फूलपुर काॅलोनी तक वो सारे संसाधन पहुंच चुके हैं जो नव उदारवादी, बाजारवादी और विनेवेशवादी नीतियों से प्रेरित हैं। जैसे इनमें मोबाइल सर्वप्रमुख है। जीवन का अभिन्न अंग बन चुका मोबाइल वंचितों और पिछड़ों के लिए भी अपरिहार्य हो चुका है। मुझे हैरानी तब हुई जब काॅलोनी की एक महिला ने बताया कि उसकी सबसे बड़ी समस्या मोबाइल का न होना है। मैंने धैर्य के साथ उस महिला की सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि के बारे में बात की। पता चला कि उस महिला के समक्ष भी आजीविका, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, स्वच्छता, घर, और बच्चों के लिए स्कूल की समस्या है। विकास का माॅडल देखिए कि इन संसाधनों से वंचित एक महिला के लिए मोबाइल कितना महत्वपूर्ण हो चुका है। हो भी क्यों नहीं! जब हमारे दूरसंचार मंत्री ही चाहते हैं कि भारत दूरसंचार के लिए एक हब बन जाए। इससे पहले तिहाड़ की हवा खा रहे पूर्व पंत्री डी॰ राजा ने भी मोबाइल को गांव-गांव के व्यक्ति-व्यक्ति तक मोबाइल पहंुचाने की बात कही थी। 
बहरहाल पिछले दिनों राष्ट्रीय दूरसंचार नीति, 2011 के लक्ष्य बताते हुए उन्होंने “एक देश-एक लाइसेन्स” की बात कही। (Draft National Telecom Policy 2011 aims for 'one nation-one licence'; targets full MNP and free roaming. Sibal also said that he wants India to become a hub for telecommunication. "Draft NTP targets broadband on demand," http://ibnlive.in.com/news/new-telecom-policy-makes-roaming-free-sibal/191779-3.html) जिसका मुख्य उद्देश्य दूरसंचार क्षेत्र को निवेश के अनुकूल बनाना है। माननीय मंत्री महदोय ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच डिजिटल खाई को पाटना दूसरा मकसद बताया है। ज्ञात हो कि दूरसंचार क्षेत्र में पहले से ही 74 से 100 प्रतिशत की प्रत्यक्ष विदेशी निवेश जारी है। फिर “एक देश-एक लाइसेन्स” का मतलब क्या है। क्या इतना अनुकूलन गांव और शहर के बीच की डिजिटल खाई को पाटने में सहायक नहीं साबित हुई है। पिछले दो दशक के अनुभव तो हमें यही बताते हैं कि अनुकूलन उपलब्ध करवाने वाली नीति न सिर्फ निवेशकों के लिए बल्कि 2जी के दलालों और माफियाओं के लिए वरदान साबित हुई है। ऐसे में यदि कोई व्यक्ति रोटी के बदले मोबाइल को महत्व दे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
बहरहाल अच्छी बात यह है कि “एक देश-एक लाइसेन्स” जैसे पंचमार्क में एकता के पुट का आभास होता है। वही एकता जिसके दम पर देश की आज़ादी की लड़ाइयां लड़ी गयीं। वही एकता जिसका उल्लेख संविधान निर्माताओं ने संविधान में किया है। फिर संविधान में समानता की बात भी तो कही गयी है। क्या दूरसंचार के संदर्भ में “एक देश-एक लाइसेन्स” की बात से समानता का उद्देश्य भी पूरा होता है? ऊपर जिस महिला की प्राथमिक आवश्यकता का जिक्र किया गया है क्या उसकी जरूरत पूरी हो सकती है?
जरूरत पूरी हो या न हो, यक्ष प्रश्न यह है कि जरूरतों के निर्धारण का अधिकार किसे है? सरकार, समाज, व्यक्ति या फिर किसी निवेशक को! इस तरह के प्रश्न अपनी प्रासंगिकता ढ़ूढ़ रहे हैं जिनकी बदौलत करोणों लोग मूलभूत समस्याओं के समाधान के बजाय मोबाइल जैसी बेतार संचार यंत्र की अभिलाषा में सुबह-शाम गुजार रहे हैं। फिर तो इनतक इस तरह के यंत्र पहुंचने ही चाहिए। पहुच भी रहे हैं। देखिए भाव कितना गिर चुका है मोबाइल बाजार का। एक हजार रूपए के बजट में अच्छे ब्राण्ड का अच्छा मोबाइल गांव और शहर के बीच अपना आस्तित्व और स्तर की खोज में संघर्षरत्त नागरिकों की पहुंच के अन्दर है। लेकिन उस महिला को देखिए। क्या उसके लिए एक हजार की रकम भी जुटा पाना मुमकिन नहीं है? शायद नहीं! तभी तो उसके पास मोबाइल नहीं है। लेकिन इच्छाएं तो उसकी अपनी हैं। सो उसने ज़ाहिर किया कि उसकी पहली प्राथमिकता मोबाइल है। कहने का तात्पर्य यह भी नहीं है कि अन्य सभी लोग जिनकी इच्छा ज़ाहिर नहीं होती वो लाज़मी तौर पर मोबाइल के उपभोक्ता हैं। मैं तो सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि “ये कौन है जो हवाओं के रूख बदलता है?” जो इच्छाएं हमारी हैं उस पर किसी और का राज कैसे चलता है? कौन है जो हमें विवश करता है कि हम हमारी मूलभूत समस्याओं को छोड़कर पहले मोबाइल जैसी किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए संघर्ष करें। क्या मोबाइल प्राप्ति से उक्त महिला जैसी लाखों-करोणों व्यक्तियों की आजीविका का समाधान हो सकता है? क्या उनके बच्चों की शिक्षा की उचित व्यवस्था हो सकती है? क्या उनके मुहल्ले में फैली गन्दगी और स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं का निदान हो सकता है? क्या उनके छत और दरवाजा विहीन घरों को मुकम्मल तौर पर घर का दरजा प्राप्त हो सकता है? किसी भी व्यक्ति के लिए इन सवालों का जवाब मुश्किल नहीं है। ज़ाहिर है कि हमारी इच्छाओं को हमारी सरकारें पूंजीपरस्त निवेशकों के हाथों सौंपने का काम कर रही हैं। निवेश के लिए अनुकूल नीति बनाने के ध्येय में जनता महज उपभोक्ता बनकर रह जाती है। दूसरी तरफ निवेशानुकूल नीतियों में पब्लिक रिड्रेसल होने के बाद भीं आम जनता की इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को आसमान की बुलन्दियों पर पहुंचाने के तमाम बिन्दु होते हैं। कहना होगा कि संचार क्रान्ति ने बेतार संचार के माध्यम से संवाद की नयी सुविधाएं उपलब्ध करायी हैं। लेकिन ज़मीन पर रहने वाले भोले-भाले लोगों की ज़मीनी समस्याओं के लिए कुछ खास नहीं किया।
योजनाओं-परियोजनाओं की लम्बी फेहरिस्त में देश में जो कुछ हो रहा है, उसका खामियाजा वंचितों को ही भुगतना पड़ रहा है। क्योंकि योजनाओं की अर्हता और पात्रता वंचितों को ध्यान में रखकर ही बनाएं जाते हैं। यह परिस्थितियां निराश करने वाली हैं कि एक महिला अपने अधिकारों की प्राप्ति और मूलभूत समस्याओं के निदान के बजाए मोबाइल की इच्छा रखती है। इसमें सरकार और उसकी नीतियों की बड़ी भूमिका है, विशेषकर उन नीतियों का जो जनता को उभोक्ता से आगे कुछ समझता ही नहीं। यही वजह है कि वंचित समाज का एक बड़ा हिस्सा अपनी दैनिक आवश्यकताओं और लोकप्रिय आवश्यकताओं के बीच फर्क को समझ नहीं पा रहा है। इन परिस्थितियों को विडम्बना भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि वंचित समाज तक शिक्षा और जागरूगता पहुंचने से पहले ही बेतार संचार के विविध यंत्र अपनी चमक-दमक के साथ पहंुचा दिए जाते हैं। फिर इच्छाएं उसी रूप में, उसी गति से परवान चढ़ती हैं जैसे-जैसे फ्री काल्स और फ्री रोमिंग के पुरोधा चाहते हैं। इस प्रक्रिया में एकता, समानता और स्वतंत्रता का मूल दर्श बहुत पीछे रह जाता है।
PUBLISHED IN SHILPKAR_TIMES_16-31_October_2011

Tuesday, October 11, 2011

विकल्प तलाशता हाशिए का मीडिया

"भूमण्डलीकरण की शब्दावली में यह दौर क्वालिटी और सर्विस का है। दुनिया भर में विशेषकर तीसरी दुनिया के देशों में इस नाम का ढ़ोल बज रहा है। इस नाम पर बाजारवाद पिछले दो दशकों से हमारे देश में क्वालिटी और सर्विस के नाम पर लोगों को ठगता आ रहा है। हाशिए की मीडिया को विकल्पहीनता की ओर ले जाने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जितना बड़ा निवेश, उतनी बड़ी खबर। दुर्भाग्य है कि इस पूंजी प्रायोजित मीडिया की दुनिया में मानवीय संवेदनाओं को तार-तार होते हुए हम नहीं देख पा रहे हैं।..."
मीडिया हमेशा से संचार और संवाद का प्रभावी माध्यम रहा है। कागज के अविष्कार से पहले पत्थर के शिलालेख, ताड़ के पत्ते और ताम्रपत्र मीडिया के प्रचलित माध्यम रहे हैं। समय, समाज और सत्ता परिवर्तन तथा विकास के स्थापित होते नए पड़ावों पर कागज और प्रिन्टिंग प्रेस के अविष्कार ने मीडिया को नयी पहचान दी। मीडिया का रंग-रूप और चरित्र लगातार बदलता रहा। राजाज्ञाओं और फरमानों के संचार वाली मीडिया का जन रूप भी सामने आया। मीडिया के विस्तार में ऐसा समय भी आया जब पूरा विश्व संचार क्रान्ति से रूबरू हुआ। एक बटन दबाया नहीं कि असंख्य पन्ने और संदेश दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंच जाते हैं। लेकिन मीडिया के विस्तार यात्रा में कुछ बातें ऐसी हैं जो पीछे छूटती गई हैं। जैसे, जिस प्रिन्ट मीडिया का महत्व कम होना, जिसकी बदौलत समकालीन मीडिया के दूसरे रूपों का विकास हुआ, प्रस्तुति के स्तर पर जन विरोधी विषयों और विधियों का प्रयोग करना आदि। भूमण्डलीकरण के प्रत्यक्ष और परोक्ष हस्तक्षेप से पिछले दो दशकों में मीडिया का चरित्र बुरी तरह प्रभावित हुआ है। चन्द बड़े घरानों को छोड़ दिया जाए तो मीडिया का बड़ा हिस्सा हाशिए पर पहुंच चुका है।
मौजूदा दौर में मीडिया खासकर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया की चर्चा जोरों पर है। हो भी क्यों न एक क्लिक में चैनल बदल जाते हैं, एक क्लिक में संदेश सात समुंदर पार पहुच जाते हैं। इसी को ग्लोबल वल्र्ड भी कहा जा रहा है। जहां सबकुछ एक कमरे बैठकर संचालित किया जाता है। काबिले गौर है कि आम तौर पर मीडिया से अभिप्राय समाचार पत्र और समाचार चैनलों से लगाया जाता है। जबकि मीडिया अपने विस्तृत अर्थों में वह सब है जिसके माध्यम से लिखित, मौखिक या दृश्य रूप में संवाद और संचार होता है। चिट्ठी-पत्री और रेडियो बीते जमाने की बातें लगती हैं, जिसका स्थान एस.एम.एस. और एम.एम.रेडियो ने लिया है। अखबार और पत्र-पत्रिकाओं की संख्या बढ़ी है, लेकिन इसके सापेक्ष बाजार की चुनौतियां भी बढ़ी हैं। बाजार के रवैये ने जन मानस में संवादहीनता और संवेदनहीनता को बढ़ाया है। यही कारण है कि आज कानटेन्ट से अधिक सर्कुलेशन पर ध्यान दिया जा रहा है। क्या छापें, कैसे छापें कि सर्कुलेशन बढ़ जाए। बाजारवाद ने प्रिन्ट मीडिया को इस दिशा में बहुत आगे पहुंचा दिया है। कल तक मीडिया के जो समूह औसत क्षमता रखते थे और जिन्होंने भूमण्डलीकरण के मंत्र को वेद और कुरान मानकर निवेशवादियों से दोस्ती कर ली। आज वही समूह बड़े मीडिया घरानों में शुमार किए जाते हैं। जिन्होंने बाजारवाद के साथ दोस्ती से इंकार कर दिया वो मीडिया समूह कमजोर पड़ गए और हाशिए की मीडिया बन कर रह गए। इनके अखबार और पत्र-पत्रिकाओं के पास न तो चमक-दमक है और न ही सर्कुलेशन बढ़ाने का कोई नुस्खा। ऐसा संभव भी नहीं है कि अमृत बाजार के इतिहास को दोहराया जाए। क्योंकि अंग्रेजों की आर्थिक गुलामी और अमेरिकी चैधराहट निदेशित ॅज्व्ए प्डथ् और ॅठ की आर्थिक गुलामी में बड़ा फर्क है। इन संस्थाओं की छत्रछाया में मीडिया की जो विकास गाथा लिखी जा रही है उसमें खबर लाने-बनाने की कला बदल चुकी, रिपोर्टिंग और आलेख के आवरण नए अर्थ तलाश रहे हैं। एक पूरी की पूरी संस्कृति ने जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह मीडिया को भी अपने पूंजीवादी आवरण से घेर रखा है। इस आवरण के बाहर की खबरों का कोई मोल नहीं रह गया है, ऐसा तथाकथित मुख्य धारा की मीडिया के काम-काज से प्रतीत होता है। पूंजीवादी मीडिया जब जैसी खबर लिख या सुना दे, उसकी प्रमाणिकता पर कोई प्रश्न नहीं है। जबकि सच्चाई यह है कि मीडिया के छोटे-छोटे समूह, जो दरअसल मीडिया कर्मी और पाठक वर्ग दोनों ही स्तरों पर संख्या में अधिक हैं, की पहचान ‘‘हाशिए की मीडिया’’ तक सीमित है।
इन्हें मैं हाशिए की मीडिया कहना इसलिए बेहतर समझता हूं क्योंकि मेरी इस छोटी सी समझ में वैकल्पिक मीडिया की अवधारणा भी निहित है। संख्या बल की दृष्टि से हाशिए की मीडिया चन्द निवेशवादी पूंजीपति घरानों की मीडिया से अधिक मजबूत है। पाठक वर्ग अधिकतर वही हैं जिनका ताल्लुक समाज के निचले और पिछड़े तबके से है। सवाल यह भी है कि मीडिया पर एकछत्र राज करने वाले चन्द लोग शेष जनता की बातें न लिखकर भी उसी जनसमूह में बड़ा कद और पहचान कैसे रखते है? कहीं सामाजिक न्याय का तो कहीं महिला अधिकारों का और कहीं दोहरी नागरिकता और पहचान की समस्याओं से जूझने वाले मीडिया समूह विकल्पहीन क्यों हैं? अब तो शिक्षा, साक्षरता और जागरूकता भी पहले से बढ़ चुकी है।
ऐसा प्रतीत होता है कि तमाम छोटी-बड़ी उपलब्धियों के बाद भी सामंती, ब्राम्हणवादी और पूंजीवादी बंधनों की जकड़ ढ़ीली नहीं हो सकी हैं। शायद इसी वजह से हाशिए की मीडिया संपादक, संवाददाता, लेखक और पाठक किसी भी रूप में अपनी पहचान नहीं बना पा रही है।
भूमण्डलीकरण की शब्दावली में यह दौर क्वालिटी और सर्विस का है। दुनिया भर में विशेषकर तीसरी दुनिया के देशों में इस नाम का ढ़ोल बज रहा है। इस नाम पर बाजारवाद पिछले दो दशकों से हमारे देश में क्वालिटी और सर्विस के नाम पर लोगों को ठगता आ रहा है। हाशिए की मीडिया को विकल्पहीनता की ओर ले जाने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जितना बड़ा निवेश, उतनी बड़ी खबर। दुर्भाग्य है कि इस पूंजी प्रायोजित मीडिया की दुनिया में मानवीय संवेदनाओं को तार-तार होते हुए हम नहीं देख पा रहे हैं।
पिछले दिनों अन्ना आन्दोलन के विस्तार में हिन्दुस्तान के तमाम गांवों को भी शामिल हुआ बताया गया लेकिन पिछले एक महीने में यू.पी. के कम से कम 15 गांव के भ्रमण के दौरान एक व्यक्ति नहीं मिला जो अन्ना को जानता हो। कहने का मतलब यह कि पूंजी आधारित मीडिया का विस्तार और सीमाएं उतनी ही हैं जहां तक सैटेलाइट और बिजली की पहुंच है। जबकि हाशिए की मीडिया के सामने सारा आकाश खुला पड़ा है।
समय आ चुका है कि हाशिए की मीडिया विकल्पहीनता के भंवर से खुद को बाहर निकाले। इससे न सिर्फ हाशिए की मीडिया की अपनी पहचान बनेगी बल्कि निवेश आधारित पूंजीपरस्त मीडिया के वास्तविक चरित्र को भी समझा जा सकेगा। हाशिए की मीडिया को बताना होगा कि ‘‘हम जिन चुनौतियों का सामना करके दुर्गम क्षेत्रों से समाचार लाते हैं या पहुंचाते हैं, अब किसी पूंजीवादी मीडिया घराने के लिए नहीं करेंगे।’’ रही बात क्वालिटी और सर्विस की तो इस तथ्य से कबतक लुका-छिपी का खेल खेला जाता रहेगा कि तथाकथित मुख्य धारा के किसी भी मीडिया घराने की क्वालिटी और सर्विस हाशिए के मीडिया कर्मी के कन्धों पर ही टिकी है। जो कन्धा शोषक मीडिया समूहों के भार को वहन करके सर्विस और गुणवत्ता बनाए रख सकता है, वह कन्धा अपने समाज और देश के लिए क्या वैकल्पिक मीडिया के भार को नहीं उठा सकता? ये बातें परिसंकल्पनात्मक लग सकती हैं लेकिन वास्तविकता के धरातल पर देखा जाए तो बहुत ही व्यावहारिक हैं। यदि हाशिए की मीडिया के लोग वैकल्पिक मीडिया को खड़ा करने में सफल हो जाते हैं तो निश्चित तौर पर मीडिया जगत को एकाधिकारवादी, अधिनायकवादी चरित्र के कुप्रभावों से बचाया जा सकता है। ऐसी पहल जरूरी है क्योंकि मनोरंजन और समाचार के नाम पर कुछ भी किसी भी रूप में छापने, प्रकाशित और प्रसारित करने के चोर रास्तों को बन्द होना ही चाहिए।
PUBLISHED IN SHILPKAR_TIMES_1-15_October_2011