Thursday, December 19, 2013

आहत लोगों तक राहत की क़वायद

"दंगा पीडि़तों के लिए राज्य सरकार की ओर से उठाए जाने वाले कदम क़ाबिले तारीफ़ हैं। विशेषकर मृतक आश्रितों को अविलम्ब नौकरी और बेघर होने वालों का एकमुश्त आर्थिक सहायता। लेकिन दंगों के इल्ज़ाम की पीड़ा झेल रही सपा सरकार के ये काम बेमानी प्रतीत होते हैं। शाकिर भाई जैसे लोग बताते हैं कि जिन लोगों को मुआवजा मिला उन्हें जिला प्रशासन की तरफ से यह निदेश भी मिला है कि वो बेघरों की तरह न रहें। लेहाज़ा मुआवजा प्राप्त करने वाले बेघरों को अपना टेन्टनुमा घर राहत शिविरों से हटाकर किसी स्थानीय व्यक्ति के घर में ले जाना पड़ा है।"

पिछले कुछ दिनों से उत्तर प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में शान्ति और सौहार्द्रय स्थापना की कवायद ज़ोरों पर
है। विशेषकर बुद्धिजीवी, सामाजसेवी और नागरिक संगठन फिल्म शो, नुक्कड़ नाटक, धरना-जुलूस से लेकर बौद्धिक परिचार्चाओं के आयोजन में व्यस्त हैं। इन तैयारियों के पीछे संदर्भ पिछले लगभग बीस माह में प्रदेश भर में होने वाली सांप्रदायिक हिंसा और दंगा है। ज़ाहिर है ऐसे संदर्भ में सभी समाज सेवियों, संस्थाओं और नागरिक संगठनों के साथ-साथ सरकारी मोहकमों आदि का मक़सद एक ही हो सकता है,, शान्ति और सौहार्द्रय के लिए लोगों को संवेदित और संगठित करना। ऐसे कार्यक्रमों और आयोजनों का महत्व तब और अधिक बढ़ जाता है जब 6 दिसम्बर की तिथि नज़दीक हो। ज्ञात हो कि पिछले इक्कीस बरसों से यह तिथि हर साल समकालीन इतिहास की एक बड़ी घटना के ज़ख़्मों को ताज़ा करती रही है। हालांकि आधुनिक भारत के इतिहास में 6 दिसम्बर बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस की तिथि भी है। लेकिन हर साल यह तिथि बाबरी मस्जिद और राम जन्म भूमि विवाद से जुड़ी घटनाओं के चलते चर्चा-परिचर्चा का केन्द्र बिन्दु होती है। इस तिथि को अयोध्या और फैज़ाबाद से लेकर राजधानी दिल्ली तक एक से बढ़कर एक कार्यक्रमों का आयोजन और इन आयोजनों में धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में जनमत बनाने की अपील का होना इस बात का संकेतक है कि अभी भी धर्मनिरपेक्षता और पंथनिरपेक्षता के संवैधानिक लक्ष्य 66 वर्ष के लम्बे लोकतांत्रिक अनुभव के बाद भी अधूरे हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो गुजरात, असम और उत्तर प्रदेश आदि राज्य एक के बाद एक सांप्रदायिक दंगों के प्रयोगशाला नहीं बनते। यही वजह है कि सांप्रदायिकता का सवाल रोजी-रोटी और आजीविका के सवालों पर भारी पड़ने लगता है। परिणाम स्वरूप व्यक्ति का धार्मिक पहचान उसके नागरिक पहचान पर प्रमुखता प्राप्त कर लेता है।

ज्ञात हो कि मुज़फ़्फ़रनगर और शामली के विभिन्न गांवों में होने वाले दंगा की वजह से पिछले दिनों हज़ारों लोगों को अपना घर छोड़कर राहत शिविरों में शरण लेनी पड़ी थी। जो ग्रामीण बेघर हुए हैं, वो मूलतः मज़दूर हैं जो जाट समुदाय की खेतों पर काम करके या ईंट भट्टों पर काम करके अपने परिवार की आजीविका चलाते थे। बहुत से परिवारों में फेरी करके आजीविका अर्जित करने वाले व्यक्ति तो पंजाब, कश्मीर, हिमांचल, राजस्थान से लेकर दक्षिण भारत के केरल तक जाया करते थे। लेकिन जबसे दंगा हुआ है तबसे ये लोग राहत शिविरों में रह रहे हैं। दंगा पीडि़तों के लिए राज्य सरकार की ओर से उठाए जाने वाले कदम क़ाबिले तारीफ़ हैं। विशेषकर मृतक आश्रितों को अविलम्ब नौकरी और बेघर होने वालों का एकमुश्त आर्थिक सहायता। लेकिन दंगों के इल्ज़ाम की पीड़ा झेल रही सपा सरकार के ये काम बेमानी प्रतीत होते हैं। शाकिर भाई जैसे लोग बताते हैं कि जिन लोगों को मुआवजा मिला उन्हें जिला प्रशासन की तरफ से यह निदेश भी मिला है कि वो बेघरों की तरह न रहें। लेहाज़ा मुआवजा प्राप्त करने वाले बेघरों को अपना टेन्टनुमा घर राहत शिविरों से हटाकर किसी स्थानीय व्यक्ति के घर में ले जाना पड़ा है। लेकिन हारून भाई उन लोगों में हैं जिनके
परिवार का नाम 1800 लाभार्थियों की लिस्ट में दर्ज होने से रह गया है। ज्ञात हो 27 अक्टूबर को प्रदेश सरकार ने मुआवजा की घोषणा की थी। जिनमें कुल 1800 लाभार्थियों को चिन्हित करके 5-5 लाख प्रति परिवार का मुआवजा दिया जाना तय किया गया था। हारून भाई जैसे तमाम लोग हैं जो आम तौर पर दूसरे राज्यों में जाकर कपड़ों की फेरी करके अपने परिवार की आजीविका चलाते हैं। लेकिन जबसे दंगा हुआ है, तबसे वो राहत शिविरों में अपने-अपने परिवारों के साथ सरकारी मदद की बांट जोह रहे हैं। ऐसे में सवाल लाज़मी है कि हारून जैसे हजारों परिवारों की मदद किस प्रकार संभव हो सकेगी?

हरहाल, जिन लोगों को मुआवजा मिल चुका है, उनके लिए सबसे बड़ा संकट यह है कि इतने कम समय में वो कैसे और कहां ज़मीन लें। बिल्डरों के प्रचार-प्रसार और दंगा पीडि़तों की बातों का संज्ञान लिया जाए तो मुआवजे की घोषणा के बाद मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में ज़मीन की क़ीमतों में लगभग दोगुने से तीगुने की वृद्धि हुई है। शाहपुर में ही शमशान स्थल के ठीक बगल में जो प्लाॅटिंग पहले हज़ार-बारह सौ रूपए प्रति गज के हिसाब से की गयी थी, राज्य सरकार द्वारा मुआवजा की घोषणा के बाद 3100 रूपए प्रति गज से भी अधिक हो गयी। ऐसे में मुआवजा प्राप्त करने वाले परिवारों पर चैतरफा दबाव बना हुआ है कि आखिर वो करें तो क्या करें? एक तरफ सरकारी अमला मुआवजा के बदले कैम्प वाली जगह से हटने के लिए प्रेरित कर रहा है तो वहीं दूसरी तरफ अचानक से ज़मीन की बढ़ी हुई कीमत ने इन्हें सोचने पर मजबूर किया है कि यदि वो मुआवजे में प्राप्त पैसे का नियोजन ज़मीन ख़रीदने में कर देंगे,
तो ख़रीदी गयी ज़मीन पर मकान बनाने के लिए पैसों का इन्तेज़ाम कहां से होगा। इससे इतर पीडि़त लाभार्थी जिस मनोवैज्ञानिक उहापोह की स्थिति में हैं, उससे इस बात की भी संभावना है कि मुआवजा की रक़म इधर-उधर के कामों में खर्च न हो जाए। अगर ऐसा हुआ तो ऐसे पीडि़त परिवारों के ज़ख़्मों पर मरहम लगाना और भी दुभर हो जाएगा। शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका जैसे मानव विकास के तीन प्रमुख सूचकांकों पर दंगा पीडि़त अगामी कई दशकों तक लगातार लुढ़कते जाएंगे। ठीक उसी तरह जैसे आज़ादी के बाद अब तक लुढ़कते रहे हैं। जिसका उल्लेख सच्चर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में विस्तार पूर्वक किया है।

से में राज्य सरकार की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। हालांकि 5-5 लाख की एकमुश्त आर्थिक सहायता तत्काल राहत प्रदान करने वाला कदम प्रतीत होता है। लेकिन इस तरह की लक्षित आर्थिक सहायता में स्थायित्व के पुट का न होना चिन्ता की बात है। अच्छा होता कि सरकार की ओर से विभिन्न गांवों से पलायन करके राहत शिविरों में रहने वाले लोगों के नुकसान की भरपायी करते हुए ऐसे पीडि़तों की आजीविका सुनिश्चित करने के लिए इन्हें कृषि योग्य भूमि आवंटित की जाती। इसके साथ-साथ दंगे में शामिल दोषियों की गिरफ़्तारी और फाॅस्ट टैªक अदालतों की व्यवस्था करके सजा भी ज़रूरी है। इसके समानान्तर दोनों समुदायों के बीच बातचीत शुरू कराना भी राज्य सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारियों में शामिल होना चाहिए। तभी दंगा पीडि़तों के ज़ख्मों पर सही अर्थों में मरहम लगाया जा सकेगा और तभी जाकर मुज़फ़्फ़रनगर अपने पुराने रंग में लौट सकेगा। उस रंग में, जिसमें मुज़फ्फ़रनगर को मुहब्बतनगर के नाम से भी जाना-पुकारा जाता है।

कैनविज टाइम्स, 6 दिसम्बर 2013

Wednesday, October 23, 2013

लाल सलाम कॉमरेड...!



"आज चारबाग में लालबाग का मंजर जनांदोलनों के जीवित होने का एहसास जगा रहे थे। कहना होगा कि पिछले बीस साल से जारी आर्थिक सुधारों जनित कारपोरेट की लूट और सामाजिक जीवन में बाज़ार के बढ़ते प्रभुत्व के बाद भी इस देश में अभी जनांदोलनों की अपार संभावनाएं छिपी हुई हैं। क्योंकि रात भर रेलगाड़ी में जागने के बाद सुबह के समय में बिना शौच गए और बिना नाश्ता किए हज़ारों की संख्या में सुबह-सुबह रैली के लिए कतारबद्ध होना कोई मामूली काम नहीं है।"



बनारस स्टेशन रात के पौने बारह तक काॅमरेडों  के नारों से गुलज़ार रहा। ख़ास करके प्लेटफार्म नं॰ 9 जहां से बरेली एक्सप्रेस रवाना होती है। आज की बरेली एक्सप्रेस का नज़ारा ही अलग था। पी.जी. काॅलेज में एम.ए. की पढ़ाई कर रहे अरविंद मौर्या गाजीपुर और वाराणसी के विभिन्न भागों से आए हुए महिलाओं और पुरूषों के अलग-अलग समूहों को बार-बार दिशा निदेश दे रहे होते हैं। राम प्यारे जी के बारे में पूछने पर संदेह की दृष्टि से देखा, लेकिन परिचय के बाद गले लग गए। जब बरेली छूटी तो माहौल एक बार फिर देखने लायक हो गया। देश और समाज के विभिन्न सरकारी और गैर-सरकारी संस्थानों से जुड़े लखनऊ और बरेली तक के यात्रियों का सोने का अंदाज़ बता रहा था कि या तो वो पहली बार रेल में बैठने वाली संवेदनहीनता को कस के पकड़े हुए थे या फिर उन्हें पब्लिक प्ससेज पर बैठने और सोने के बाबत आदतों और मूल्यों की जानकारी नहीं थी। तभी तो एक के बाद एक, नीचे-ऊपर किसी भी सीट पर बैठने की काॅमरेडों की कोशिशें बेकार साबित हो रही थीं। लगभग 1000 की संख्या में होने के बाद भी काॅमरेडों की संख्या इतनी नहीं थी कि बिहार जाने वाली किसी रेलगाड़ी से बरेली एक्सप्रेस की तुलना की जाए। फिर भी सीट रिजर्व कराकर यात्रा कर रहे यात्रियों के लिए “लाल सलाम” वालों की यह यात्रा परेशानी का सबब तो थी ही। ऐसी परिस्थितियों में, खास करके पब्लिक डोमेन में तालमेल बनाकर रहना अच्छा संकेतक माना जाता है। और हो भी क्यों नहीं, आठ-दस घंटे के लिए सीट रिजर्व करा लेने से रेल का इंजन और बोगियां यात्रियों की थोड़े ही हो जाती हैं। लेकिन कौन समझाए, रात के उन मुसाफिरों को जो रात भर के रिजर्वेशन में एक इंच भी छोड़ना नहीं चाहते थे। बस यूं समझिए कि ऐसों को समझाना बहुत दुशवार होता है। खास करके तब जब ऐसों को समझ जाना चाहिए कि पब्लिक डोमेन में पब्लिक के साथ कैसे रहना चाहिए।

कल से आज तक ग़ालिब का यह शेर बार-बार याद आया कि “बस कि दुशवार है हर काम का आसां होना/आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसान होना।” बहरहाल, रैली में भाग लेने जा रहे महिला-पुरूष दोनों एक के बाद एक यात्रियों से थोड़ी जगह छोड़ने की नाकाम गुज़ारिश करते और आगे बढ़ जाते। सीट तो मेरे पास भी थी लेकिन हम तो एक से दो हो गए थे। कुछ यात्रियों को बात समझ में आ भी गयी। चाहे खुशी-खुशी या फिर दुःखी-दुःखी, उन्होंने अपने-अपने बर्थ पर थोड़ी-थोड़ी जगह दे दी। इतनी जगह कि तशरीफ रखने भर का एहसास हो। और इस एहसास में किसी तरह रात गुज़र जाए। रात भर काॅमरेडों के साथ हम भी सोते-जागते रहे। अलसुबह ताजपुर मांझा की कुछ काॅमरेड महिलाओं की आवाज़ देश और दुनिया की नही ंतो कम से कम ताजपुर मांझा जैसे गांव की सदियों पुरानी कहानियों की सच्चाई बयान कर रही थी। मैं ध्यान से उनकी बातें सुन रहा था। वो जितना कह-सुन रही थीं, मेरे अन्दर उससे कहीं अधिक सुनने की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी। मन में यह विचार भी आ रहा था कि बरेली एक्सप्रेस आज लेट हो, तो हो जाए। लेकिन घटिया ट्रेनों की सूची में अगली कतार में शामिल और एक्सप्रेस बन जाने के कई सालों के बाद भी पैसेन्जर कहलाने का दंश झेल रही बरेली एक्सप्रेस आज भी 7 बजे तक लखनऊ जंक्शन पहुंच गयी। लखनऊ पहुंचा तो ऐसा लगा कि हम चारबाग नहीं बल्कि लालबाग रेलवे स्टेशन पहुंच गए हैं। इसकी दो वजह थी। एक तो चार बाग रेलवे स्टेशन पहले से लाल रंग में रंगा हुआ उस पर से लाल झंडों के साथ लाल सलाम-लाल सलाम के नारों की गूंज। स्टेशन के सामने एक पण्डाल में कुछ लोग माइक की मदद से भीड़ को दिशा-निदेश दे रहे थे। थोड़ा और बाहर निकला तो कुछ और काॅमरेडों का सामना हुआ जो बरेली, चंदौली और सोनभद्र आदि स्थानों से आए हुए थे। मन हो रहा था कि रूकूं, थोड़ी देर और रूक जाऊं। लेकिन समय हर बार की तरह इस बार भी हाथ पकड़कर आॅटो की ओर ले गया और मैं एक बार फिर ढ़ांक के तीन पांत उसी गोमती नगर में जिसके बारे में कहा जाता हैं कि प्रदेश नीतियां यहीं से बनती हैं और यहीं से यह प्रदेश शासित और संचालित होता है। इस कहने के पीछे भी कई वजह है, जिस पर फिर कभी चर्चा होगी। फिलहाल आज चारबाग में लालबाग का मंजर जनांदोलनों के जीवित होने का एहसास जगा रहे थे। कहना होगा कि पिछले बीस साल से जारी आर्थिक सुधारों जनित कारपोरेट की लूट और सामाजिक जीवन में बाज़ार के बढ़ते प्रभुत्व के बाद भी इस देश में अभी जनांदोलनों की अपार संभावनाएं छिपी हुई हैं। क्योंकि रात भर रेलगाड़ी में जागने के बाद सुबह के समय में बिना शौच गए और बिना नाश्ता किए हज़ारों की संख्या में सुबह-सुबह रैली के लिए कतारबद्ध होना कोई मामूली काम नहीं है। इस मामूली काम में शामिल महिलाओं और पुरूषों को मैं भी लाल सलाम करता हूं। कुसूम और साथियों की बातें निश्चित तौर पर न सिर्फ हमारी संवेदना को झिंझोड़ती हैं बल्कि ऐसी परिस्थितियों और इनमें छिपी जीवन की चुनौतियों का एक पक्ष सामने लाती हैं। मेरे लिए इनका यह मामूली काम बेशक यादगार रहेगा, ढे़र सारी यात्राओं में से कुछ यादगार यात्राओं और इस दौरान सहेजे गए अनुभवों की तरह। कहने को तो कुसूम और मंजू ने बहुत कुछ कहा, गालियां भी दीं। वो गालियां जो पुरूषों द्वारा रचा गया और जिनका स्वरूप स्त्री विरोधी है। मैं तो हतप्रभ रह गया कि इन महिलाओं को आखिर हुआ क्या है? लेकिन महिला जीवन की त्रासदियों को देखते हुए कहना होगा कि इस होने में ही इनके जीवित रहने की गुंजाइशें छिपी हैं। इस होने ने ही शायद सुषुम जैसियों को अपने जीवन के कुछ कटु अनुभवों को सामूहिक रूप से अभिव्यक्त करने का साहस दे दिया है।

बातचीत के दौरान अपनी वंचना की दास्तान सुनाते हुए इन महिलाओं ने बाबू साहेबों जि़क्र बार-बार किया। ग्राम प्रधानी पर उनका कब्ज़ा नहीं रहा। फिर भी इन महिलाओं को लगता है कि जब पहली बार 2 लाख की रकम भी वोटरों का मन नहीं बदल सकी। तो धोबी जाति का पपेट प्रधान बनाया गया। पुकारी की मानें तो “धाबिए जीतल ह... लेकिन रूनझुन जइसे कहेलन, ओइसे चले लन। रूनझुन के बाबत पूछने पर पुकारी बताती हैं कि “पहिले क परधान रहलन ह। अब त मथारे क हो गइल बा। हमन क ना जनली हं जा कि बाढ़ क पइसा आइल बा। त कुल नाम कटवा देहलन हं। अब बताव कि गरीब भूखन मरत बा त ओकर नाम कटा गइल। अउर तू परधान बाड़ त तोहरा घरे पांच बोड़ा गेंहूं पहुंच गइल।” पुकारी की हां में हां मिलाते हुए सुषुम ने बताया कि सेकट की घड़ी में उन्हें दो-दो मुट्ठी लाई ही नसीब हुआ। वो भी किसी को मिला और किसी को नहीं मिला। होते-होते यह बात राशन के वितरण तक पहुंच गयी। बेशक पब्लिक डिस्ट्रिब्यूशन सिस्टम हमेशा से सवालों के घेरे में रहा है। पात्र और अपात्र की सीमाएं तय करने से लेकर सब्सिडी वाले गल्ले और तेल के वितरण में काला बाज़ारी भी होती रही है। लेकिन अब सुषुम जैसी महिलाएं कम से कम इस बात को कहने में सक्षम नज़र आती हैं कि “दू-दू अजूरी लाई से इन्सान का पेट भला कैसे भर सकता है?” पुकारी जैसी महिलाओं को अच्छी तरह पता है कि हफ्ता दिन के लिए ही सही सरकार की ओर से गरीबों के लिए कुछ तो मदद है। सवालिया अंदाज़ में कहती हैं कि “सरकार भेजत बा गरीबन के बांटे खातिर कि तोहरे के घरे रखे के?” राशन के सवाल को आगे बढ़ाते हुए मैंने राशन न मिलने की वजह जाननी चाही तो संजू देवी ने जो कहा वह वाकई प्रीविलेज्ड क्लास को अपनी पढ़ाई, समझदारी और कुशलता के बारे में नए सिरे से सोचने पर मजबूर करती है। कहती हैं “हमहन क का जानी जां। तू पढ़ल बाड़... तू मालिक बाड़... तू चल्हांक बाड़...! त का जानके तू नइख देत।” कहना होगा कि जमींदारी प्रथा के अवसान के बाद, जब भद्र जन पढ़ लिख गए तो इस दृष्टि से इनको एक बार फिर ऐतिहासिक बढ़त मिल गयी। और वो जो वंचित थे... शोषित थे और जिन्हें ऐसे अवसर नहीं मिल पाए बावजूद इसके कि संविधान में समानता और न्याय का वादा किया गया था, एक बार फिर ऐतिहासिक रूप से पिछड़ गए। ऐसे हालात में अगर संजू जैसी महिलाएं अगर संविधान द्वारा स्थापित लोकतांत्रिक संस्थाओं की असफलता के लिए भद्रजनों को जिम्मेदार ठहराती हैं तो इसमें चौंकने की बात नहीं है। संजू की बातें सामाजिक गतिशीलता पर गम्भीर सवाल है। क्योंकि अपवर्ड सोशल मोबिलिटी होगी तभी गरीबों और वंचितों को मुख्य धारा में शामिल होने का अवसर मिल सकेगा। लेकिन यहां तो सारा मामला चुनाव और वोट तक सिमटता जा रहा है।

ट्रेन अपनी रफ्तार से आगे बढ़ी जा रही थी। मल्हौर कब पीछे छूट गया, पता ही नहीं चला। लेकिन अभी भी हम सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर अटके हुए थे। जब गेंहू और चावल की बात चली तो यह भी पता चला कि वंचना के शिकार चमटोल वासियों को आधुनिक होते भारत में आज भी कर्ज पर खेत की भूमि लेनी पड़ती है। विचारणीय है कि जो समुदाय मेहनतकश रहा है, भूखे पेट रहकर काम करना न सिर्फ कर गुलामी के दौर में बल्कि आज़ाद भारत में भी जिस समुदाय का मशगला रहा है, उस समुदाय के लागों को दो फसल के लिए 12000 से 14000 रूपए तक में खेती की एक बीघा ज़मीन लेनी पड़ती है। फसल हुआ तो और नहीं हुआ तो बारह से चैदह हज़ार की इस रकम की अदायगी ज़मींदार को करनी होती है। अन्यथा हम-आप गांव जाकर आंखों देखा बयान कर सकते हैं। क्योंकि मुख्य धारा की मीडिया के पास इन सच्चाइयों रूबरू होने का वक्त नहीं है। सुषुम जैसी विधवा की बात करें तो वो इस स्थिति में भी नहीं हैं कि किसी ज़मींदार से उधार की खेत ले सकें। अपनी बेबसी बयान करते हुए कहती हैं कि “बाबू साहब क टहल कर त समझिहन कि 50 रूपिया क काम कइले बाडि़न... लेकिन 20-30 रूपिया देके कहेलन कि जो भाग।” जब मैंने टहल के बारे पूछा तो सुषुम ने अपनी बातों को विस्तार देते हुए कहा कि “अरे भइया का बताईं। गरीब बानी जा। हमार मरद ना ह। मुं गइल... छोट-छोट लइकन के छोड़ के। केहू कहेला त बरतन माज के खाइलीं जा... झाड़ू लगा लेहिलीजां... कउनो सहारा नइखे त का कइलजा? चार ठो बाल-बच्चा बा, त कइसे जिहन। पिंशिन बनावे के कहल जाई त कहिहन कि राति के अइहे। त के आपन इज़्ज़त गंवावे जाई राति के। जे राति के जाई ओकर पिंशिन बनवा दिहन, लाल कार्ड बनवा दिहन।” मैं सुषुम की बातों को गम्भीरता से सुन रहा होता हूं। यक़ीन नहीं होता है कि ज़मींदारी टूटने और भूमि सुधार लागू तथा केन्द्र और राज्य सरकार की ढे़रों योजनाओं के बरसों से क्रियान्वयन के बाद भी वंचितों के साथ अभाव और अत्याचार क्या वाकई अभी भी है। स्पष्टता के लिए मैंने एक बार फिर ज़ोर देकर आस-पास बैठी महिलाओं से पूछा। उन्होंने मुझसे भी ज्यादा ज़ोर देकर कहा कि “हां अभी भी ऐसा होता है।” कुछ देर के लिए मुझे लगा कि मैत्रेयी पुष्पा जैसी किसी लेखिका के किसी उपन्यास की कई महिला पात्र मेरे आस-पास बैठी अपने संघर्ष की कहानियां बयान कर रही हों।

सुषुम, संजू, हंसा और पुकारी सब की सब अपने आस-पास की सच्चाइयों से हर दिन रूबरू होती हैं लेकिन यह बात उनकी समझ से परे है कि उन जैसों के साथ ही ऐसा क्यों होता है? वो यह भी नहीं जानतीं कि उनकी गरीबी का राज़ क्या है? इन्हें यह भी पता नहीं कि इन जैसों को लिंग, जाति, धर्म और क्षेत्र का दंश क्यों सहना पड़ता है? सब कुछ के बाद इन्हें उम्मीद है कि आज नहीं तो कल “यू॰पी॰ बचाओ... लोकतंत्र बचाओ” नामक 21 अक्टूबर को लखनऊ में आयोजित यह रैली उनके जीवन में नए सौगात लाएगी। लोग अचानक से खड़े हुए तो लगा कि गाड़ी रूकी हुई है। खिड़की से बाहर भीड़ और भीड़ के पीछे रेलवे स्टेशन सा मंजर। बात आगे जारी रहने का कोई मौका नहीं। बातचीत के चलते जो बचे रह गए थे, वो भी खड़े होकर बाहर निकलने की कोशिश में लग गए। जो रात में अपनी बर्थ पर दो इंच एडजस्ट करने को तैयार नहीं थे वो गंतव्य तक पहंुचने के बाद अब दो मिनट ट्रेन के अन्दर रूकने को तैयार नहीं थे। बहरहाल, मैं मोती चचा और राम प्यारे भाई को ढूंढंता हुआ बाहर निकला। इससे पहले कि सुषुम, संजू, पुकारी, और हंसा देवी को मैं धन्यवाद कहता वो रैली में आए लोगों के साथ घुल-मिल चुकी थीं। सोचता हूं कि कभी इनके गांव जाना हुआ तो इनसे ज़रूर मिलूंगा। इनके गांव जाना इसलिए भी मुमकिन है कि मेरी बड़ी बहन की ससुराल इत्तेफ़ाक़ से इन्हीं के गांव में है।

यह आलेख दिनांक 20 अक्टूबर 2013 को बनारस से लखनऊ की यात्रा के संस्मरण पर आधारित है.
इस आलेख में सभी व्यक्तियों के नाम काल्पनिक हैं.

Wednesday, May 15, 2013

समीक्षा - महिलाओं के अधिकार और मुस्लिम समाज

रीब डेढ़ साल पहले एक्शनएड, लखनऊ और सेन्टर फार हारमोनी एण्ड पीस, वाराणसी के सौजन्य से डा॰ असग़र अली इंजीनियर की किताब Rights of Women and Muslim Society के हिन्दी अनुवाद “महिलाओं के अधिकार और मुस्लिम समाज को पढ़ने का अवसर मिला था। इस दौरान मैंने हिन्दी अनुवाद का संपादन भी किया और एक संक्षिप्त समीक्षा भी लिखी जो प्रकाशित नहीं हो सकी थी। हिन्दी-उर्दू मीडिया/सोशल मीडिया के दोस्त चाहें तो यह समीक्षा अपने यहां प्रकाशित कर सकते हैं।

मौजूदा दौर में मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों पर जो लेखक, बुद्धिजीवी, समाज विज्ञानी और पत्रकार अपनी लेखनी के माध्यम से समाज में जागरूकता और चेतना फैलाने का काम कर रहे हैं उनमें एक महत्वपूर्ण नाम डा॰ असग़र अली इंजीनियर का है। डा॰ इंजीनियर सेन्टर फार स्टडी आफ सोसाइटी एण्ड सेक्युलरिज्म के माध्यम से अपने विचार समाज तक पहुंचाते रहे हैं। अब तक डा॰ इंजीनियर द्वारा लिखी और संपादित 65 से अधिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। किताबों की इस कड़ी में Rights of Women and Muslim Society (महिलाओं के अधिकार और मुस्लिम समाज) इस दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है कि यह किताब हमें ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के बारे में न सिर्फ जानकारी देती है बल्कि जागरूक और सचेत भी करती है। इस पुस्तक में डा॰ इंजीनियर ने मुस्लिम समाज के परिप्रेक्ष्य में महिलाओं के अधिकारों पर विस्तार से प्रकाश डाला है। इस पुस्तक में इस्लाम के अविर्भाव से पहले और बाद के अरबी समाज में महिलाओं की स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने के साथ-साथ कुरान की आयतों को संदर्भित करके महिलाओं के अधिकारों के बारे जानकारी दी गयी है। इस किताब के माध्यम से इस्लाम और मुसलमान के फर्क को भी स्पष्ट करने की कोशिश की गयी है। यह बताने की कोशिश की गयी है कि किन ऐतिहासिक और सांस्कृतिक कारणों के चलते मुस्लिम महिलाओं के बारे तरह-तरह के धारणाएं स्थापित हुईं और उन्हें सामाजिक वैधता प्रदान की गयी।
डा॰ इंजीनियर का मानना है कि इस्लामिक देश महिला-पुरूष समानता के प्रति रूढि़वादी हैं। लैंगिक न्याय सुनिश्चित करने में इस्लामी दुनिया काफी पीछे है। उनके अनुसार कुरान में महिलाओं को पुरूषों के बराबर अधिकार का उल्लेख है, लेकिन उलेमा वर्ग के फतवों के कारण लैंगिक न्याय सुनिश्चित नहीं हो पा रहा है। डा॰ इंजीनियर ने इस किताब के माध्यम से बताने की कोशिश की है कि महिलाओं के प्रति मुस्लिम समाज का भेदभाव परक व्यवहार के लिए कुरान नहीं बल्कि शरीयत/हदीस (इस्लामी कानून) के रूप में इसकी अलग-अलग व्याख्याएं जिम्मेदार हैं। हिजाब (परदा), श्रृंगार, बीबी को मारना-पीटना, महिलाओं को अर्धसाक्षी मानना, उत्तराधिकार में उनका हिस्सा, शादी, तलाक और हलाला आदि मुस्लिम महिलाओं से संबंधित निजी कानूनों पर यह किताब एक तार्किक बहस प्रस्तुत करता है।
विभिन्न मुद्दों पर विचार संप्रेषण में लेखक ने उदारवादी नज़रया अपनाया है। लेखक ने विवादित मुद्दों से खुद को अलग रखते हुए कुरान में उल्लिखित महिला अधिकारों की ओर ध्यान दिलाने की कोशिश की है। लेखक ने शादी और तलाक जैसे मामलों में कुरान की व्याख्या में सामंती और पुरूष सत्तात्मक सोच को प्रभावी कारण माना है। उनके अनुसार अहदिसों के ज़रिए महिला अधिकारों को कर्तव्य आधारित कर दिया गया है। इसी संदर्भ में डा॰ इंजीनियर अशरफ थानवी (बहिश्ति जे़वर के लेखक/संपादक) के विचारों का विरोध करते भी दिखते हैं।
किताब के अन्तिम भाग में लेखक ने समकालीन मुस्लिम दुनिया में महिलाओं की शैक्षिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थिति का तुलनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। किताब के इस अध्याय में मिश्र व अन्य मुस्लिम देशों में पश्चिमी साम्राज्यवादी ताकतों के हस्तक्षेप और महिला सशक्तीकरण की राह में उदारवादी मुस्लिम नेतृत्व की बात की गयी है। किताब के इस हिस्से में मुस्लिम दुनिया में महिलाओं के शैक्षिक व आर्थिक पिछड़ापन के साथ रूढ़ीवादी मौलवियों और सामंती जमींदारों के बीच गठबंधन को जिम्मेदार बताया गया है। समकालीन वैश्विक चुनौतियों के संदर्भ में सऊदी अरब, खाड़ी और अफगानिस्तान में महिलाओं की दयनीय स्थिति के कारणों में अमेरिकी प्रभुत्व और मुल्ला वर्ग की भूमिका को महत्वपूर्ण बताया गया है। इस क्रम में लेखक ने मोरक्को और ट्यूनिशिया को उन देशों की श्रेणी में रखा है जहां किसी हद तक महिलाओं को मौलिक अधिकार की प्राप्ति हुई है। लेकिन कुवैत में महिला अधिकारों की बहाली का मुख्य कारण इराक के विरूद्ध संघर्ष में एकजुटता कायम करना बताया है। दुनिया के विभिन्न मुस्लिम देशों में हो रहे बदलावों के बीच लेखक आशा व्यक्त करते हैं कि महिलाएं आवाज़ उठा रही हैं और उनके हालात बदल रहे हैं।
हरहाल, यह किताब पूर्व इस्लामी समाज-संस्कृति और इस्लाम के अविर्भाव के बाद की सामाजिक-सांस्कृतिक उतार-चढ़ाव के अध्ययन की अपील करता है। लेखक का मंतव्य है कि इस किताब से कुरान की व्याख्याओं पर सही राय कायम करके महिला अधिकारों और बराबरी की मूल भावना को समझा जाए। ताकि मुस्लिम महिलाओं के बारे में पहले से स्थापित मिथक, पूर्वाग्रह और दुराग्रह को समाप्त किया जा सके। लेखक धर्मनिरपेक्ष कानूनों के प्रवर्तन को दीर्घकालीक कार्य बताते हुए बीच का रास्ता अपनाते हुए शरीयत कानूनों को संहिताबद्ध करने की बात पर बल देते हैं, ताकि शादी, तलाक, उत्तराधिकार, तलाक के मामले में बच्चों की अभिरक्षा, विवाह की स्थिरता व तलाक के बाद भरण-पोषण को विधिक रूप प्रदान किया जा सके।
शा है यह किताब आने वाले समय में मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों पर होने वाली बहस को नई दिशा प्रदान करेगा।

Monday, January 21, 2013

सवाल आधी दुनिया के अधिकार का


जिम्मेदारी बनती है उस नेतृत्व की जो आम जनता की भागीदारी वाले आंदोलनों की भावना को समझे और राजनीतिक चेतना के विकास में मददगार की भूमिका अदा करे। कुछ ऐसे कि खुद को गैर राजनीतिक बताने वाले या लोकतांत्रिक चुनावी प्रक्रिया से खुद को बाहर रखने वाले लोगों का राजनीति से अलगाव समाप्त हो सके और वो खुलकर राजनीतिक गतिविधियों में अपनी भूमिका का निर्वहन करने लगें। ऐसा इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि हमारी संसदीय प्रक्रिया में तमाम चीजें राजनीति से ही तय होती है। ...
दिल्ली गैंग रेप की घटना दिसम्बर के आखिरी दो हफ्तों तक प्रमुखता से मीडिया में छाई रही है। मीडिया से इतर सामाजिक स्तर पर भी देश के विभिन्न हिस्सों में हजारों की संख्या में लोगों को बैनर-पोस्टर के साथ सड़कों पर देखा गया। एक माह पुरानी सामूहिक बलात्कार के दोषियों को कोई फांसी की सूली पर चढ़ाने की मांग कर रहा है तो कोई फास्ट ट्रैक अदालतों में मुकदमें की सुनवाई की ज़रूरत बता रहा है। अधिवक्ताओं का एक बड़ा समूह आरोपियों के पक्ष में किसी भी वकील द्वारा पैरवी नहीं होने देने की वकालत कर रहा है। न्याय के प्राकृतिक सिद्धान्तों के हिस्से के तौर पर किसी भी आरोपी को “एमिकस क्यूरी” के तहत सरकारी वकील की सुविधा का भी अधिवक्ताओं ने विरोध किया है। बहरहाल, पिछले दिनों इण्डिया गेट से शुरू हुए विरोध-प्रदर्शनों की लहर की तीव्रता को मीडिया की आंखों से देश भर में फैलता हुआ देखा गया। संवेदना के सागर में राजनीतिक दलों और राजनेताओं को भी डूबते-उतराते देखा गया। लेकिन लैंगिक भेदभाव और मुहावरा बन चुके हर बीस मिनट में एक बलात्कार की घटना को अपने सियासी एजेण्डा का हिस्सा बनाने के सवाल पर शिक्षा से लेकर संसद तक महिला आरक्षण विधेयक का राग अलापने वाले राजनेताओं की चुप्पी से एक बार फिर साफ हो गया है कि इनकी संवेदना महिला आरक्षण की सियासत तक सीमित है। पितृ सत्ता और पूंजी सत्ता की चुनौतियां इनके लिए कोई खास मायने नहीं रखती हैं।

गौर तलब है कि दिल्ली गैंग रेप पर संवेदना के कैंडल लाइट जलाने वाले आंदोलनकारी साथियों का जोश अभी ठण्डा भी नहीं पड़ा था कि दक्षिणपंथी खेमे से महिला विरोधी बयानों की घिसी-पिटी श्रृंखला जारी करने से परहेज नहीं किया गया। महिलाओं के बारे में वो तमाम बातें और मिथक एक बार फिर से दोहराए जा रहे हैं, जिन्हें लिंगभेद के आधार पर सभ्यता के विकास के किसी न किसी पड़ाव पर संस्थागत रूप दिया गया है। ऐतिहासिक रूप से लिंगभेद जनित सामाजिक पिछड़ेपन का दंश झेलने वाली महिलाओं के लिए ड्रेस कोड के हिमायतियों की भावनाएं इस कदर फूट रही हैं कि उन्हें यह कहने में भी संकोच और शर्म का एहसास नहीं हो रहा है कि “रात में लक्जरी बस में बैठने की ज़रूरत क्या थी?” 16 दिसम्बर 2012 के यौन उत्पीड़न की घटना से जन्मे आन्दोलन के दौरान सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समर्थक और वेलेण्टाइन डे जैसे कुछ एक अवसरों पर पौरूषता का प्रदर्शन करने वाले समान नागरिक संहिता के ठेकेदारों को भी संवेदना से तार-तार होते देखा गया। लेकिन जब समस्या के मूल जड़ पर वार करने की बात होती है तो यही लोग संवेदनहीन हो जाते हैं। कहना होगा कि जब तक महिलाओं के खिलाफ गर्भ से शुरू होने वाले भेदभाव को राजनीतिक एजेण्डे में केन्द्रीय महत्व नहीं मिलेगा तब तक बेटियों के साथ अत्याचार किसी न किसी रूप में जारी रहेगा।

चूंकि राजकाज और सामाजिक आचार तय करने में राजनीति और नेतृत्व दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। दिल्ली गैंग रेप की घटना ने एक बार फिर देश की राजनीति और नेतृत्व को सवालों के घेरे में ला खड़ा किया है। ज़रूरी है कि उन चोटी के राजनेताओं, चाहे वो पुरूष हों या महिला, दोनों के इरादों और उनके व उनकी पार्टी के राजनीतिक एजेण्डे की पड़ताल की जाए कि वो किस हद तक महिला-पुरूष की साक्षी दुनिया की आधी आबादी को न्याय दिलाने के पक्ष में खड़े हैं। ऐसा इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि सड़क से संसद तक आंसू बहाने वाले ऐसे नेता दलगत एजेण्डा से ऊपर उठने का साहस नहीं कर पा रहे हैं। हमारे नेता कठोर से कठोर कानून बनाने की बात तो करते हैं लेकिन किसी भी कानून के प्रभावी क्रियान्वयन की धज्जियां उड़ाने वालों को प्रश्रय देना नहीं भूलते। इसे पिछले दो दशकीय राजनीति के अपराधीकरण और अपराध के राजनीतिकरण के रूप में भी देखा जाना चाहिए, जो समग्र राजनीतिक परिदृश्य को मजबूर और लाचार बनाती है। शायद यह बड़ी वजह है कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के खिलाफ हिंसा को जन्म देने और बनाए रखने वाले तमाम कारक समाप्त होने के बजाए और अधिक उग्र और क्रूर रूप में सामने आ रहे हैं। महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा की घटनाओं में कनविक्शन रेट का कम होना ऐसी ही मजबूरी और लाचारी की दास्तान बयान करती है।

बहरहाल, मौजूदा हालात ऐसे हैं कि जिसे देखो वही देश की बात कर रहा है। क्या इससे पहले देश नहीं था और क्या इसके बाद देश बचेगा नहीं। बेशक देश शर्मसार हुआ है, लेकिन यह पहली बार नहीं है। जितना हमने-आपने सुना और देखा, उतना तो ज़रूर हुआ है। अपराध और राजनीति के गठजोड़ ने न्याय और समानता की राह में बाधाएं भी खड़ी की हैं। अपराध और राजनीति के गठजोड़ को पोषण प्रदान करने वाली गैर बराबरी के सिद्धान्तों पर खड़ी भूमण्डलीकरण की नीतियां पितृसत्तात्मक मूल्य और परम्परा को भी मज़बूत कर रही हैं। लिहाजा यौन उत्पीड़न की घटनाओं को निजीकरण और विनिवेश से जोड़कर देखने और समझने की भी जरूरत है। विशेषकर उन तर्कों और तार्किक व्यक्तियों के लिए जो यह समझते हैं कि अगर बस में वो दोनों नहीं चढ़ते तो उनके साथ ऐसा नहीं होता। निजीकरण और विनिवेश की बात उन लोगों को भी समझ में आनी चाहिए जो यह कहते फिर रहे हैं कि वह बस चार्टर बस थी, इसलिए ऐसा हुआ। इन लोगों को ही देश मान लिया जाय तो भी ज़ाहिर है सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र की सेवाओं पर जनता का विश्वास अभी बाकी है। फिर सवाल यह है कि लोगों का वह हुजूम, जो फांसी से नीचे की बात ही नहीं करता, देश और दुनिया के संदर्भ में निजिकरण, विनिवेश और भूमण्डलीकरण की नीतियों का विरोध क्यों नहीं करता?

दिल्ली में जन्तर-मन्तर से लेकर इंडिया गेट तक के विरोध प्रदर्शनों में शामिल लोगों में आम लोगों ने बड़े पैमाने पर भाग लिया।  यह भी कहा गया कि इनमें अधिकतर का किसी राजनीतिक संगठन या पार्टी से कोई संबंध नहीं था। कहा जा सकता है कि सामूहिक बलात्कार से उपजा आंदोलन आम जनता की सहभागिता वाला आंदोलन था। यह आन्दोलन अन्ना और केजरीवाल के आंदोलन के बरखिलाफ महिलाओं के यौन उत्पीड़न और हिंसा के विरोध में जारी मौजूदा आंदोलन के जनवादी चरित्र को उजागर करता है। लेकिन दूसरी तरफ दिसम्बर 2012 और जनवरी 2013 के इंडिया गेट और जन्तर-मन्तर के आंदोलन से यह भी पता चलता है कि वे लोग जो इस आंदोलन का हिस्सा नहीं रहे उन्हें दरअसल चमकीली राजनीति और पिकनिक के एहसास वाला विरोध-प्रदर्शन अधिक रास आता है। खासकर उन लोगों के लिए जो राजनीति से खुद को अलग-थलग रखते रहे हैं। अगर यक़ीन न हो तो पिछले दो लोकसभा और विधान सभा के चुनावों में ऐसे लागों की मतदाता के रूप में भागीदारी का प्रतिशत का संज्ञान लिया जा सकता है।

ज़ाहिर है ये वही लोग हैं जो शहरीकरण की मौजूदा प्रक्रिया में पूंजीवाद अनुप्राणित विकास की उध्र्वाधर रूपरेखा तय करने से लेकर नव उदारवादी सुधारों से प्रेरित हर उस कदम को मौन सहमति देने वालों में शामिल रहे हैं। फिर शहर तो शहर है। इतना कुछ होने के बाद भी शायद शहर का एकाकीपन इन पर भारी नहीं पड़ रहा है। दाद के हक़दार हैं वो तमाम लोग जिन्होंने देर से ही सही, अपनों के नुकसान के डर से ही सही, परदेस में असुरक्षा के चलते ही सही, मशाल जुलूस के बजाए कैंडिल लाइट के ज़रिए ही सही, प्रतिरोध की मशाल को जलाए रखने की जिम्मेदारी उठाई है। अच्छा होता कि ऐसे आन्दोलनों के सहारे सुख-सुविधा और उपभोग की वैतरणी पार करने वाले भी “ले मशाले चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के...” का हिस्सा बनते।

मौजूदा हालात में जिम्मेदारी बनती है उस नेतृत्व की जो आम जनता की भागीदारी वाले आंदोलनों की भावना को समझे और राजनीतिक चेतना के विकास में मददगार की भूमिका अदा करे। कुछ ऐसे कि खुद को गैर राजनीतिक बताने वाले या लोकतांत्रिक चुनावी प्रक्रिया से खुद को बाहर रखने वाले लोगों का राजनीति से अलगाव समाप्त हो सके और वो खुलकर राजनीतिक गतिविधियों में अपनी भूमिका का निर्वहन करने लगें। ऐसा इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि हमारी संसदीय प्रक्रिया में तमाम चीजें राजनीति से ही तय होती है। राजनीति में आधी आबादी का आनुपातिक प्रतिनिधित्व जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी महिलाओं के लिए लोकतांत्रिक स्थान बनाएगा। समाज बदलाव के उस स्पर्श को छूकर महसूस कर सकेगा कि बेटियां हिंसा और आबरूरेज़ी के लिए पैदा नहीं होती हैं बल्कि समाज और देश के विभिन्न क्रिया कलापों में इनकी भी समान भागीदारी और हिस्सेदारी है।

                                                       कैनविज टाइम्स, 19 जनवरी 2013