Wednesday, October 24, 2012

बुनकरों के ज़मीनी यथार्थ


 इस पूरे दौर में बुनकरों का न केवल जीवन स्तर बद से बदतर हुआ है बल्कि कइयों को तो खून, जमीन और अपने कलेजे के टुकड़ों तक को बेचना पड़ा। जहां इससे भी बात नहीं बनी वहां आत्महत्याओं का दौर चला। पांच बरस पहले बनारस के लोहता और बजरडीहा की घटनाएं इन्हीं परिस्थितियों और घटनाओं की गवाह हैं।

पिछले साल नवम्बर में बुनकरों के कर्ज माफी की 6234 करोण रूपए की योजना की घोषणा की गयी। इसमें 3884 करोण रूपए बुनकर समितियों और व्यक्तिगत बुनकरों के संस्थागत ऋणमाफी के लिए आवंटित किया गया है। शेष 2350 करोण की राशि 12वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 6 चरणों में बुनकरों के उत्थान हेतु खर्च किया जाएगा। माना जा रहा है कि इस पैकेज के तहत कुल 13 लाख बुनकरों को लाभ पहुंचेगा। अकेले पूर्वी उत्तर प्रदेश के करीब 11000 से अधिक बुनकर लाभान्वित होंगे। उद्योग और वाणिज्य मंत्री के अनुसार इस योजना से व्यक्तिगत बुनकरों के अलावा 15000 बुनकरों की कोआपरेटिव समितियों को मदद पहुंचेगा। 
ज्ञात हो कि पूर्वांचल के वाराणसी, मऊ, गाजीपुर, आजमगढ़, मिर्जापुर, भदोही आदि जिलों में आबादी का एक बड़ा हिस्सा बुनकर मज़दूर है। इनकी आजीविका का मुख्य साधन कपड़ों और कालीन की बुनाई है। पिछले दो दशकों से इन बुनकरों को व्यापार में मंदी की मार झेलना पड़ रहा हैं। विशेषकर आर्थिक उदारीकरण, मुक्त बाज़ार व्यवस्था के कारण एक तरफ जहां चाइनीज फैब्रिक्स और सिल्क के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय चुनौतियां खड़ी हुई हैं तो दूसरी तरफ सूरत की चिप एण्ड बेस्ट साडि़यों ने बुनकरों के लिए आन्तरिक खतरा पैदा किया है। इस पूरे दौर में बुनकरों का न केवल जीवन स्तर बद से बदतर हुआ है बल्कि कइयों को तो खून, जमीन और अपने कलेजे के टुकड़ों तक को बेचना पड़ा। जहां इससे भी बात नहीं बनी वहां आत्महत्याओं का दौर चला। पांच बरस पहले बनारस के लोहता और बजरडीहा की घटनाएं इन्हीं परिस्थितियों और घटनाओं की गवाह हैं। व्यापार में कुछ उतार-चढ़ाव के बाद भी बुनकरों की यथा स्थिति बनी हुई है। परिस्थितिवश बहुतेरे बुनकर संस्थागत कर्जदार हैं। बल्कि ऐसे बुनकरों की तादाद अधिक है जो कर्ज के स्थानीय ढ़ांचे में फंसे हुए हैं। जाहिर है केन्द्र सरकार के ऋण माफी का पैकज आम कर्जदार बुनकरों को राहत प्रदान नहीं करेगा। 
मालूम हो कि भारत जैसे कल्याणकारी राज्य में सरकारी एजेन्सी के माध्यम से कर्ज की व्यवस्था गरीबों-वंचितों की आजीविका सहायता के तौर पर महत्वपूर्ण माना गया है। अब मामला साड़ी बुनकरों का हो, कालीन बुनकरों का हो या जरदोजी का काम करने वाली मजदूर महिलाओं का हो, अहम सवाल यह है कि इन दस्तकारों की पहुंच सरकार द्वारा चलायी जा रही योजनाओं तक किस हद तक है? बुनकरों से बात करने पर पता चलता है कि ऋण माफी की योजना उनके लिए दूर की कौड़ी है। गांव रसूलपुर के मेराज अंसारी कहते हैं कि "जब ऋण ही नहीं मिलता तो ऋणमाफी कैसी ?" मेराज जैसे ढ़ेरों बुनकर हैं जो ऋण लेने के लिए पात्र ही नहीं होते। क्योंकि इनके पास या तो राशन कार्ड नहीं होता या फिर बैंक में खाता नहीं खुल पाता। बनारस के बुनकर कालोनी के साबित अंसारी की बातों पर यक़ीन करें तो "जो बुनकर कर्ज प्राप्त करने की पात्रता रखते हैं उन्हें बैंक वाले डिफाल्टर समझते है। इसलिए ऐसे बुनकर भी ऋण प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं। जो सहकारी समितियां हैं उनकी संख्या बस इतनी है कि इनके नाम पर कोई भी करोणों का पैकेज घोषित कर आम बुनकरों को राहत के झूठे सपने दिखाकर वोट की सियासत आसानी से कर लेता है।" ऋणग्रस्त बुनकरों में उनकी संख्या अधिक है जो अपनी दैनिक आवश्यकताओं को स्थानीय ऋणदाताओं से कर्ज लेकर पूरा करते हैं। ऐसा भी होता है कि उनके श्रम से पूंजी खड़ी करने वाला मध्यस्थ उनके पारिश्रमिक के भुगतान में 4-6 माह विलम्ब करता है। यदि बुनकरों को बाजार तक सीधे पहंुच सुलभ हो जाता तो समय पर उचित पारिश्रमिक सुनिश्चित हो पाता और वो बुनकर जो सरकारी एजेन्सियों से ऋण प्राप्त कर अपनी आजीविका के साधन को मजबूती नहीं दे पाते, उनका सही मायनों में भला हो जाता।
हरहाल, ऋण माफी की रकम पर भी विचार जरूरी है। पैकेज के अनुसार पात्र बुनकरों के 50000.00 रूपए तक के ऋण माफ किए जाएंगे। सवाल यह है कि यदि यह पैकेज लागू हो जाए, तो भी उन बुनकरों का क्या होगा जो पाचास हजार से अधिक राशि के कर्जदार हैं। एक उदाहरण पूर्वांचल के उस जिला से जहां कर्जदार बुनकरों की संख्या सवार्धिक बतायी जा रही है। ग़ाजीपुर जिला का गंगौली गांव राही मासूम रज़ा की जन्म भूमि के रूप में तो जाना जाता है। लेकिन इस गांव के बुनकरों का दर्द शायद ही कभी मीडिया और बुद्धिजीवियों के बीच चर्चा-परिचर्चा का विषय बनता है। देखना यह है कि दर्जनों योजनाओं की भीड़ में ऋण माफी की योजना इस गांव के बुनकरों को किस रूप में राहत पहुंचा पाएगा। बात सिर्फ एक गांव की नहीं बल्कि पूरे पूर्वांचल के बुनकरों का है।
जाहिर है, कर्ज माफी पैकेज के बारे में उद्योग और वाणिज्य मंत्री ने विधान सभा चुनावों से पहले जो बयान दिया था उससे आम बुनकरों का भला होता नहीं दिख रहा है। यदि सही मायनों में केन्द्र और राज्य सरकारों को बुनकरों की फिक्र है तो इन्हें बुनकरों की रोजमर्रा समस्याओं को समझना होगा और तदनुरूप नीतिगत स्तर पर योजनाओं में सुधार करनी होगी। ताकि बुनकरों तक योजनाओं की पहुंच को संभव बनाया जा सके। वरना बुनकरों के लिए ऋण माफी या उनके कल्याण से संबंधित अन्य योजनाओं के क्रियान्वयन में कोई भी नीतिगत भूल या कमी न सिर्फ योजनाओं की असफलता का कारण बनेगा बल्कि नीति निर्धारकों को बुनकरों के जमीनी यथार्थ से दूर भी करेगा।

इंकलाबी नज़र, 13 अप्रैल 2012

Saturday, September 22, 2012

खुदरा बाज़ार में एफडीआई: कठिन सुधारों की कठिन मार

"खुदरा बाजार में एफडीआई महज सरकार की असफलता को नहीं दर्शाता है बल्कि विपक्ष में बैठे उन तमाम दलों की सियासी समझदारी पर भी सवालिया निशान है जो इस देश के गरीब, नौजवान, किसान, मज़दूर, दलित, पिछड़े और पसमांदा अवाम के हक की बात करते हैं। कहना होगा कि यह असफलता उन कारोबारियों की भी है जिन्होंने बतौर मतदाता अपने लोकतांत्रिक दायित्वों के निर्वहन में बार-बार कोताही की है।"

खुदरा बाज़ार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को मंजूरी के फैसले को मुद्रा स्फीति में सुधार, रोजगार के नए अवसरों का सृजन और देश में विदेशी मुद्रा के प्रवाह में वृद्धि आदि कारणों से उचित बताया जा रहा है। दूसरी तरफ विरोधी खेमा इस फैसले को खुदरा बाजार पर विदेशी प्रभुत्व के बढ़ते प्रभाव के रूप में देख रहे हैं। ये बात और है कि विभिन्न दल क्षेत्रीय राजनीतिक ज़रूरतों के मद्दे नज़र इस फैसले का समर्थन और विरोध कर रहे हैं। खुदरा व्यापार में एफडीआई से असहमति की अभिव्यक्ति से कुछ बातें स्पष्ट हैं। जैसे, खुदरा कारोबारियों का आस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। ठीक वैसे ही जैसे कि मुक्त बाजार नीति के चलते छोटे-छोटे घरेलू उद्योगों का हाल हुआ है। इसमें बनारसी साड़ी से लेकर अलीगढ़ के ताला उद्योग सभी शामिल हैं। तथ्य यह है कि अगर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के दूरगामी परिणामों को समझने में 20 वर्षों से अधिक समय लगा तो क्या यह समझा जाए कि खुदरा बाजर में एफडीआई के परिणामों को समझने में भी लगभग इतना ही समय लगेगा। यदि ऐसा होता है तो आने वाले दो दशकों में खुदरा कारोबार में एफडीआई के कूप्रभावों को झेलने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। इन प्रभावों में एक यह होगा कि खुदरा बाज़ार के कारोबारियों की वैयक्तिक व्यावसायिक पहचान और आस्तित्व समाप्त हो जाएगा। इस वास्तविकता को दोबारा साबित करने की ज़रूरत भी नहीं है क्योंकि पिछले कुछ एक दशकों में शापिंग  माल कल्चर के अंधाधुंध प्रसार ने पहले ही व्यावसायिक आज़ादी को शापिंग माल कल्चर के रास्ते बाज़ारपरस्त पूंजीपतियों के यहां गिरवी हो चुकी है। अब बारी छोटे शहरों-कस्बों और गांव-देहातों की है। देखने और सुनने में शापिंग माॅल का कल्चर बेहद अच्छा और सुखद लगता है। लेकिन पांच की तरबूज तीस में बिकने के बाद भी जब तरबूज पैदा करने वाले किसानों की जेब में उचित पैसा नहीं पहुँचता तो सवाल लाज़मी तौर पर उठता है कि एफडीआई के रास्ते कितने किसानों और कितने दुकानदारों का भला होगा?
रही बात नौकरियों के अवसर सृजन का तो इस संभावना से इंकार मुश्किल है कि जो कारोबारी छोटी पूंजी से कारोबार कर रहे हैं क्या वो आने वाले समय में एफडीआई के बड़ी पूंजी के चंगुल में नहीं फंसेगे। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है वाला मुहावरा सटिक बैठता है। इस संभावना से इसलिए भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है क्योंकि आर्थिक सुधारों की एक बुनियादी शर्त प्रतिस्पर्धा को बढ़ाना और बढ़े हुए प्रतिस्पर्धी माहौल में गुणवत्ता को बनाए रखना है। प्रतिस्पर्धा अच्छी बात है लेकिन बड़ी मछली और छोटी मछली के बीच प्रतिस्पर्धा क्या समतामूलक सिद्धांतों की अनदेखी नहीं है?
ज़ाहिर है जब प्रतिस्पर्धा समानता के मूलभूत सिद्धांतों को धता-बता कर होगी तो बड़ी मछली छोटी-छोटी मछलियों को एक-एक करके निगलती जाएगी। बताना नहीं है कि खुदरा कारोबारियों की स्थिति छोटी-छोटी मछलियों की सी है। जब बड़ी पूंजी का दखल उनके कारोबार की चौखट पर दस्तक देगा तो किसी तरह अपनी दुकान और घर-परिवार चलाने वाले छोटे कारोबारियों की लाइफ लाइन ही छिन जाएगी। चमक-दमक वाली गुणवत्ता की प्रतिस्पर्धा में बने रहने का दबाव ऐसे दुकानदारों पर पहाड़ बन कर टूट पड़ेगा। छोटी पूंजी की स्थिति छोटी मछली की होती है। इसलिए ऐसे कारोबारी मालिक से नौकर की स्थिति में आ जाएंगे। अर्थात नौकरियां निश्चित रूप से बढ़ेंगी। लेकिन यह सब व्यावसायिक स्वंतंत्रता को गिरवी रखवाने के बाद होगा।
समकालीन राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि सरकार अपने फैसले पर पुनर्विचार करने जा रही है। जो क्षेत्रीय पार्टियां विरोध का स्वर बुलन्द कर रही हैं उनके पास एफडीआई के विरोध का तात्कालिक तर्क तो है लेकिन एफडीआई जैसे तमाम फैसलों की तह तक जाने का साहस नहीं है। शायद इन्हें भी पता है कि ऐसे जनविरोधी फैसलों के तार आर्थिक सुधारों से जुड़े हैं। यह बात किसी से छुपी नहीं रह गयी है कि सुधारों के मोर्चे पर सूबाई सियासत की धार पर केन्द्र में मज़बूत स्थिति रखने वाली पार्टियां अपने ही घर में किस तरह नाकाम हुई हैं।
कहना पड़ रहा है कि खुदरा बाजार में एफडीआई महज सरकार की असफलता को नहीं दर्शाता है बल्कि विपक्ष में बैठे उन तमाम दलों की सियासी समझदारी पर भी सवालिया निशान है जो इस देश के गरीब, नौजवान, किसान, मज़दूर, दलित, पिछड़े और पसमांदा अवाम के हक की बात करते हैं। कहना होगा कि यह असफलता उन कारोबारियों की भी है जिन्होंने बतौर मतदाता अपने लोकतांत्रिक दायित्वों के निर्वहन में बार-बार कोताही की है। चूंकि सभी दल अभी से 2014 के चुनावी दंगल में उतरने की तैयारी में हैं तो जनता को भी इस दंगल में दो-दो हाथ करने के लिए कमर कस लेना चाहिए। यह समय देश की राजनीति और अर्थव्यव्यस्था के लिए संकट का समय है। इसका समाधान तभी निकलेगा जब उबी हुई और उकताई हुई जनता अपना विकल्प खुद सामने लाएगी। वरना आर्थिक संवृद्धि के नाम पर प्रधानमंत्री के कठिन सुधारों की कठिन मार झेलने के लिए तैयार रहना होगा।

कैनविज टाइम्स, 22 सितम्बर 2012

Wednesday, September 12, 2012

भत्ता तोड़ देगा युवाओं का मनोबल

"   बेरोजगारी भत्ता सुनने में जितना अच्छा और आकर्षक लग रहा है, उतना ही खतरनाक है। इसलिए नहीं कि आर्थिक सहायता में कोई बुराई है। बल्कि इसलिए कि 1000 रूपए की राहत कहीं आने वाले समय में युवाओं ही नहीं बल्कि समाज के हर निम्न मध्यम वर्गीय और वंचित तबके के परिवारों के लिए गले की फांस न बन जाए। गंभीरता से गौर किया जाए तो यह योजना समाज को इसी दिशा में ले जाने वाली है....".

9 सितम्बर को प्रदेश के मुख्यमंत्री के हाथों बेरोजगारी भत्ता का चेक प्राप्त करते हुए अर्ह् बेरोजगार खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। दूसरी तरफ कई सारे विश्लेषकों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को प्रदेश सरकार की इस योजना को मूर्त रूप देने पर दुःखी होते देखा गया। देखना होगा कि 1000 रूपए के भत्ते का प्रदेश और प्रदेश के युवाओं के लिए क्या मायने हैं। गौर तलब है कि पिछली बार जब युवा मुख्यमंत्री के पिता जी सत्ता की बागडोर संभाल रहे थे तो उस समय पहली बार यह प्रयोग किया गया था। तब भत्ता की राशि 500 रूपए थी। उस समय भी रोजगार दफ़्तरों से लेकर बैंकों में युवा छात्र-छात्राओं की लम्बी-लम्बी कतारें देखी गयी थीं। फोटो स्टेट की दुकानों पर बेकारों को जोश व खरोश से आवश्यक दस्तावेजों की फोटो काॅपी कराते देखा गया था। रोज़गार दफ़्तरों पर लगने वाली भीड़ और अब चेक प्राप्त करते हुए उनकी खुशी को देखकर बेकारी की परिथितियों का सहज अंदाजा होता है। लेकिन चेक प्राप्त करने वाले बेरोजगारों की इस भीड़ की भी अपनी प्राथमिकता है। जो महज 500 से 1000 रूपए तक सिमित है। सियासी पार्टियों और हमारे नेताओं में तो इतनी इच्छा शक्ति नहीं है कि वो रोजगार और बेरोजगार भत्ता में अन्तर बताएं। यदि अन्तर बताएंगे तो नौजवानों के मन में नौकरी की चाह पैदा होगी। राजव्यवस्था और सत्ता की दशा और दिशा पर सवाल पैदा होंगे। जो धरना-प्रदर्शन का रूप भी ले सकते हैं। अच्छा है इन्हें 1000 में उलझाए रखा जाए। भरी जवानी में उलझे हुओं को उलझाना ही तो शासक वर्ग की उलझनों का सुलझना बन चुका है।

कहना पड़ रहा है कि बेरोजगारी भत्ता सुनने में जितना अच्छा और आकर्षक लग रहा है, उतना ही खतरनाक है। इसलिए नहीं कि आर्थिक सहायता में कोई बुराई है। बल्कि इसलिए कि 1000 रूपए की राहत कहीं आने वाले समय में युवाओं ही नहीं बल्कि समाज के हर निम्न मध्यम वर्गीय और वंचित तबके के परिवारों के लिए गले की फांस न बन जाए। गंभीरता से गौर किया जाए तो यह योजना समाज को इसी दिशा में ले जाने वाली है। वो ऐसे कि 35 वर्ष की आयु काम-काज की आयु होती है। इस आयु वर्ग के नौजवानों में नई ऊर्जा, नई उमंग और नया उत्साह होता है। जब जवानी के इस उम्र में किसी को बैठे-बिठाए बेरोजगारी भत्ता मिलने लगेगा तो इससे उस व्यक्ति का सीखा हुआ स्किल (हुनर/क्षमता) स्थिर हो जाएगी। यानि जो युवा कम्प्युटर आॅपरेट करने में प्रवीण है, उसे सही समय पर इस क्षेत्र में अवसर नहीं मिलने या बेरोजगरी भत्ता का सहारा मिलने से वो भत्ता प्राप्त होने की अवधि तक सीखे हुए हुनर को व्यवहार में करने और इसमें परिवर्धन करने से वंचित रह जाएगा। ऐसे में यदि किसी कारणवश भत्ता बंद होता है, तो वह क्षमता विहीन युवा रह जाएगा। जिसे आज के प्रतिस्पर्धी दौर में कोई भी सरकारी या गैर-सरकारी अमला अपनी प्राथमिकता में रखना नहीं चाहेगा। अच्छा होता कि प्रदेश के युवाओं के लिए 1000 रूपए के बेरोजगारी भत्ता के बजाए कम से कम 999 रूपए के रोजगार की व्यवस्था की जाती।

बेरोजगारी भत्ता से भी अच्छा और आकर्षक टैबलेट और लैपटाप की योजना है। शिक्षा और साक्षरता में विकास की कई सीढि़यां चढ़ने के बाद भी गांव-कस्बे के लोग अभी तक टैबलेट को दवा ही समझ पा रहे थे। भला हो सूचना क्रान्ति का जिसके चलते गंवई जीवन जीने वाले लोग न सिर्फ टैबलेट नामक इलेक्ट्राॅनिक यंत्र के बारे में जागरूक हो रहे हैं बल्कि यह यंत्र उनके सपनों में आकार लेने लगा है। सपनों का होना अच्छी बात है। पाश ने भी कहा था “सबसे बुरा होता है सपनों का मर जाना...”। लेकिन उन सपनों का क्या जो आर्थिक क्रिया-कलापों (सीधा कहें तो बाजारवाद) को बढ़ाने के नाम पर थोपा जा रहा हो। आज के फेसबुकिया दौर में प्रदेश के बच्चों को टैबलेट और लैपटाप देने की योजना ऐसे सपनों को पैदा व जवान करने की योजना है।

कौन नहीं जानता कि प्रदेश के हाई स्कूल और इण्टरमीडिएट कालेजों में ऐसे अध्यापकों की कमी है जो हमारे बच्चों को कोचिंग के शोषक व्यवस्था से मुक्त करा सकें। सवाल यह भी है कि असमान प्रतिस्पर्धा के चलते जिन बच्चों का मनोबल टूट जाता है और प्रतिवर्ष जो बच्चे आत्महत्या करते हैं, वैसे बच्चों को टैबलेट और लैपटाप किस तरह राहत पहंुचाएगा। यदि टैबलेट और लैपटाप की उपयोगिता को स्वीकार कर भी लिया जाए तो इन यंत्रों के मेन्टीनेन्स (रख-रखाव) और बिजली की सप्लाई आदि ज़रूरतों को पूरा करने की गारण्टी कौन लेगा। क्या हम दावे के साथ कह सकने की स्थिति में हैं कि हमारे प्रदेश के गरीब बच्चों के घरों तक बिजली पहुंच पाती है या उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी है कि वो लैपटाप या टैबलेट से संबंधित अन्य ज़रूरतों को पूरा कर पाने में सक्षम हैं? शायद नहीं! फिर ऐसे में प्रदेश के बच्चों को प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा व्यवस्था का ऐसा ढ़ांचा चाहिए जिसमें न तो कोचिंग की ज़रूरत हो और न ही मुफ़्त टैबलेट या लैपटाप की। कहना नहीं है कि प्रदेश की नयी पीढ़ी के छात्र-छात्राओं की आवश्यकताओं की प्राथमिकता सूची तैयार करके उनकी शिक्षा और रोजगार के अवसर सृजित करना बेरोजगारी भत्ता, टैबलेट और लैपटाप के निःशुल्क वितरण से बेहतर होता।

कैनविज़  टाइम्स, १२ सितम्बर २०१२

Friday, August 17, 2012

मुस्लिम बच्चों की शिक्षा

मदरसों के भ्रम जाल में फंस कर मुस्लिम बच्चों की शैक्षिक वंचना से नज़र चुराना शिक्षा के क्षेत्र में अब तक प्राप्त उपलब्धियों को मुंह चिढ़ाता है। ऐसा नहीं है कि मुसलमान अपने बच्चों को तालीम नहीं देना चाहते हैं।......
यदि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट की बात करें तो 7-16 आयु वर्ग में स्कूल जाने वाले कुल मुस्लिम बच्चों में महज 4 प्रतिशत बच्चे ही बुनियादी शिक्षा के लिए मदरसों पर निर्भर हैं। जबकि 30 प्रतिशत प्राइवेट स्कूलों तथा शेष 66 प्रतिशत सरकारी स्कूलों पर निर्भर हैं। दूसरी ओर स्कूल जाने वाले कुल मुस्लिम बच्चों में 25 प्रतिशत बच्चे या तो ड्राॅपआउट बच्चे हैं या फिर स्कूल जाने के किसी भी अवसर से वंचित हैं। 

बादी की दृष्टि से पश्चिमी उत्तर प्रदेश स्थित मेरठ, मुजफ़्फ़रनगर और सहारनपुर आदि जिले देश के उन 50 जिलों में है जहां मुस्लिम आबादी का अनुपात 30 प्रतिशत या इससे अधिक है। इन शहरों में कई मुहल्ले तो ऐसे हैं जहां मुसलमानों का ही बाहुल्य है। बात करते हैं सहारनपुर की जो परंपरागत काष्ठ उद्योग के लिए जाना जाता है। पिछले कुछ सालों से यहां होजरी उद्योग भी काफी फल-फूल रहा है। इस जिला के शहरी क्षेत्र में रहने वाले मुसलमानों की आजीविका मुख्यतः इन्हीं दो उद्योगों पर ही निर्भर है। देश और दुनिया में अपनी कला का डंका बजाने वाले यहां के कलाकारों विशेषकर मुसलमानों में बेरोजगारी नज़र नहीं आती है। लेकिन सम्पन्न दिखाई देने वाले यहां के मुसलमानों के जीवन के कई ऐसे पहलू हैं जो हमें नयी तस्वीर दिखाते हैं।

दरअसल सहारनपुर के काष्ठ उद्योग में काम करने वालों की जमात में वो लोग भी शामिल हैं जो रिटायरमेन्ट की उम्र से काफी आगे निकल चुके हैं। वो मासूम बच्चे भी जो काम करने के लिए निम्नतम आयु की पात्रता नहीं रखने के बाद भी आजीविका की जिम्मेदारी उठाते है। और वो महिलाएं भी जो इन उद्योगों में फिनिशिंग वर्क के सहारे अपने घर-परिवार के लिए आजीविका जुटाती हैं। वर्क कल्चर तो यहां के हर गली-चैराहे पर दिखाई पड़ता है। लेकिन साक्षरता की बात आती है तो यहां मुस्लिम साक्षरता दर लुढ़की हुई नज़र आती है। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार इस जिला में मुस्लिम साक्षरता दर 47.64 प्रतिशत है, जो जिला, राज्य और देश तीनों ही स्तर के औसत साक्षरता दर से काफी कम है। उसमें भी महिलाओं में साक्षरता दर का प्रतिशत 38.43 है जो 55.56 प्रतिशत मुस्लिम पुरूष साक्षरता दर से 17.13 अंक प्रतिशत कम है। एक तरफ जहां ग्रामीण क्षेत्रों में मुस्लिम साक्षरता दर 45.02 प्रतिशत के हताशाजनक स्थिति में है वहीं दूसरी तरफ शहरी क्षेत्रों में भी मुस्लिम साक्षरता दर की स्थिति अच्छी नहीं है। सहारनपुर के शहरी क्षेत्रों में मुस्लिम साक्षरता दर 52.61 प्रतिशत है। मुस्लिम समाज में साक्षरता की दयनीय स्थिति को देखते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि इस जिला में मुस्लिम आबादी का आधा हिस्सा निरक्षर और अशिक्षित है। सवाल यह है कि जो जिला उद्योग-धन्धे में देश ही नहीं विदेशों में भी जाना जाता है, उस जिला में मुसलमानों की ऐसी स्थिति क्यों है?

आम तौर पर जागरूकता और चेतना का अभाव निरक्षरता के लिए जिम्मेदार कारक माना जाता है। लेकिन पिछले कुछ बरसों से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर, मुजफ़्फ़रनगर और मेरठ जैसे जिलों की यात्रा से मुस्लिम समाज के बारे में कुछ नए तथ्य और सत्य को समझने का अवसर मिला है। देश के मुसलमानों के बारे में कायम यह धारणा इस जिला के मुसलमानों पर भी लागू होता है जो मुसलमानों को संकीर्ण सोच वाला समुदाय मानता है। लेकिन ज़मीनी हक़ीकत इस इस बात को झुठलाते हैं कि स्कूलों में मुस्लिम बच्चों की कम होती संख्या समुदाय के संकीर्ण सोच के कारण है। जहां तक मदरसों का संबंध है तो निश्चित तौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इनकी तादाद तुलनात्मक रूप से अधिक है और मुख्यतः ये दीनी यानि धार्मिक शिक्षा के केन्द्र हैं। लेकिन ऐसे मदरसों की संख्या भी कम नहीं है जो सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त हैं। यदि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट की बात करें तो 7-16 आयु वर्ग में स्कूल जाने वाले कुल मुस्लिम बच्चों में महज 4 प्रतिशत बच्चे ही बुनियादी शिक्षा के लिए मदरसों पर निर्भर हैं। जबकि 30 प्रतिशत प्राइवेट स्कूलों तथा शेष 66 प्रतिशत सरकारी स्कूलों पर निर्भर हैं। दूसरी ओर स्कूल जाने वाले कुल मुस्लिम बच्चों में 25 प्रतिशत बच्चे या तो ड्राॅपआउट बच्चे हैं या फिर स्कूल जाने के किसी भी अवसर से वंचित हैं।

ज़ाहिर है मदरसों के भ्रम जाल में फंस कर मुस्लिम बच्चों की शैक्षिक वंचना से नज़र चुराना शिक्षा के क्षेत्र में अब तक प्राप्त उपलब्धियों को मुंह चिढ़ाता है। ऐसा नहीं है कि मुसलमान अपने बच्चों को तालीम नहीं देना चाहते हैं। पिछले दिनों सहारनपुर के मुस्लिम बाहुल्य बस्तियों पक्का बाग, खाता खेड़ी और नूर बस्ती के लोगों विशेषकर महिलाओं से सीधी बातचीत के दौरान बच्चों की शिक्षा के प्रति उनकी ललक महसूस किया। लेकिन मीडिया वालों के लिए इमराना और गुडि़या जैसी खबरें इकट्ठी करने की रेलमपेल में शिक्षा जैसी बुनियादी मुद्दा पीछे छूट जाता है। बहरहाल सहारनपुर की शहरी बस्तियों में कई जगह तो सरकारी स्कूल ही नहीं हैं। नूर बस्ती ऐसे ही मुहल्लों में एक है। जहां है वहां स्कूल के भवन और अध्यापकों से लेकर शैक्षिक वातावरण आदि की स्थिति संतोषजनक नहीं है। ऐसे में मुस्लिम बच्चों की स्कूल से दूरी कोई अचरज की बात नहीं है।

बहरहाल, ऐसे स्कूल भी हैं जहां अध्यापकों के व्यवहार से मुस्लिम बच्चों का मनोबल टूटता है और स्कूल से उनका मोह भंग हो जाता है। उदाहरण के तौर पर सहारनपुर के ही सुढ़ौली कदीम ब्लाॅक के उन बच्चों को देखें जिन्हें बाल्यावस्था में भेदभाव के कारण स्कूल जाने के अवसर से वंचित होना पड़ता है। इस ब्लाॅक में मुस्लिम महिलाओं और बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता नाज़मा बताती हैं कि “नए शैक्षिक सत्र में जब वो कुछ मुस्लिम बच्चों के दाखिले के लिए स्कूल गयीं तो स्कूल प्रबन्धन की तरफ से उन बच्चों के दाखिला संबंधी औपचारिकता पूरा करने के बजाय खु़द उनकी सामाजिक भूमिका पर सवाल उठाते हुए यह कहा गया कि वो सिर्फ मुस्लिम बच्चों का ही दाखिला क्यों करा रही हैं। उन्होंने अपने समाजिक कार्यों और टार्गेट ग्रुप के बारे बताया कि जब प्रधानमंत्री द्वारा गठित उच्चस्तरीय सच्चर समिति ने इस बात को माना है कि स्कूल जाने वाले 25 प्रतिशत बच्चे स्कूलों से बाहर हैं, तो इस दिशा में काम करने में ग़लत क्या है।”

नाज़मा का यह अनुभव इस सच्चाई से परदा उठाता है कि स्कूलों में मुस्लिम बच्चों के साथ भेदभाव होता है। जिसके चलते वो सरकारी स्कूल नहीं जाना चाहते हैं। बादशाही बाग की समाज सेविका रानी मिर्जा की बातों पर यकीन करें तो “भेदभाव का आलम यह है कि मुस्लिम बच्चों को चिन्हित करके उनसे स्कूल परिसर में झाड़ू लगवाया जाता है। यही नहीं उनसे मध्यान्ह्य भोजन की व्यवस्था में भी काम लिया जाता है।” नाज़मा और रानी जैसी समाज सेविकाओं का यह अनुभव आए दिन अखबारों में छपने वाली उन खबरों और तस्वीरों से साम्य रखता है जिसमें बच्चों द्वारा विशेषकर दलित समुदाय के बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है। लेकिन मानव विकास के शैक्षिक सूचकांक पर मुस्लिम समाज की बदहाली का यह चित्र शायद ही किसी अखबार और रिपोर्टर के लिए कोई महत्व रखता है। समझा जा सकता है कि मौजूदा दौर में मानव विकास के सूचकांक पर मुसलमान किस पायदान पर हैं। इन परिस्थितियों के कारण ही एक तरफ जहां मुस्लिम बच्चों का मनोबल टूटता है, वहीं दूसरी तरफ उनकी शिक्षा या तो मदरसा तक सिमित रह जाती है या फिर वे शिक्षा के किसी भी अवसर से वंचित रह जाते हैं। यही बच्चे खेतों-खलिहानों से लेकर ढ़ाबा और काष्ठ व होजरी उद्योग में नज़र आते हैं।

अचरज की बात तो यह है कि बाल अधिकारिता से संबंधित तमाम सरकारी विभागों को सर्व शिक्षा अभियान के दौरान मुस्लिम समाज का यह चित्र दिखाई नहीं देता है। कहना पड़ रहा है कि ऐसे परिवेश में यदि प्रधानमंत्री का पन्द्रह की जगह तीस सूत्री कार्यक्रम भी होता तो उसके परिणाम भी इसी तरह निराशाजनक होते जैसा कि पन्द्रह सूत्री कार्यक्रम के हैं। ज़रूरी हो जाता है कि योजनाओं को बनाने और क्रियान्वयन से पहले समुदाय स्तर की रूकावटों को दूर करने की इमानदार कोशिश की जाए।

कैनविज टाइम्स, 17 अगस्त 2012

Wednesday, August 1, 2012

निवेश आधारित मीडिया की दशा और दिशा


पिछले कुछ वर्षों में खासकर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में ऐसी प्रस्तुतियों को प्रधानता प्राप्त हुई है जो निवेश और मुनाफा के सिद्धांतों पर आधारित हैं। चूंकि मीडिया भी एक तरह का साहित्य है और साहित्य समाज का दर्पण कहा जाता है। लेहाजा यह मानना होगा कि मीडिया में भी जो कुछ दिखाया जा रहा है वह हमारे समाज का सच है। लेकिन मीडिया की प्रस्तुतियों को सिर्फ साहित्य के दायरे तक सिमित करके नहीं देखा जा सकता है। क्योंकि मीडिया मनोरंजन के साथ-साथ संवाद का असरदार माध्यम भी है और लोकतंत्र के चैथे स्तंभ के रूप में इसकी अपनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां भी होती हैं। मौजूदा दौर में तो इलेक्ट्राॅनिक मीडिया समय की तंगी का सस्ता और आसान विकल्प भी है। देखा जाए तो पिछले बीस बरसों में मीडिया बदलाव के बड़े दौर से गुज़रा है। बदलाव के इन दो दशकों में मीडिया विशेषकर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया की जो नयी पहचान बनी है, उसे निवेश, टी.आर.पी. और मुनाफा से अलग करके नहीं देखा जा सकता है।
निवेश आमंत्रित करना अर्थव्यवस्था के प्राथमिक उद्देश्यों में है। क्योंकि इसका संबंध आर्थिक विकास की दर से बताया जाता है। इस दृष्टि से मीडिया निवेश आमंत्रित करने और निवेशकों दोनों के लिए एक ऐसा क्षेत्र है जहां कम समय में अधिक मुनाफा का संयोग प्रबल है। सरकार उच्च विकास दर हासिल करने के लिए अधिक से अधिक निवेश चाहती है तो वहीं दूसरी तरफ देसी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अधिक से अधिक मुनाफा प्राप्त करने के लिए अधिकाधिक निवेश की करने को लालायित हैं। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि बाजारवादी व्यवस्था में “अधिक निवेश और अधिक मुनाफा” के फार्मुला पर काम करता है। 1991 के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था की दशा और दिशा में जो बदलाव सामने आए हैं, उससे सरकार और कल्याणकारी राज्य की अवधारणा ही बदल गयी है। जिसके चलते मनोरंजन चैनलों की प्रस्तुतियों में समाज के गंभीर मुद्दों को उपभोग करने वाली ऐसी वस्तु के रूप में परोसा जाना संभव हुआ है जिसे देखने वालों की संख्या निरन्तर बढ़ी है। ऐसे मनोरंजक प्रस्तुतियों को देखने वाले दर्शकों की संख्या में वृद्धि का सीधा संबध टी.आर.पी. से है। टी.आर.पी. में वृद्धि का मतलब है अधिक विज्ञापन और अधिक मुनाफा। ज़ाहिर है, निवेश, टी.आर.पी. और मुनाफा रंजित मनोरंजक सीरियलों में किसी गंभीर सामाजिक समस्या की प्रस्तुति और समस्या के समाधान की संभावनाएं निरन्तर कम होती गयी हैं। पिछले दिनों देश में गिरते शिशु लिंगानुपात, दहेज और बच्चों के साथ यौनाचार जैसे मुद्दों पर एक चैनल ने “सत्यमेव जयते” शुरू किया जिसके एंकर आमिर खान को प्रस्तुति के एवज में करोणों-करोण का भुगतान किया जा रहा है। “सत्यमेव जयते” या ऐसे अन्य सीरियलों/रियालिटी शो की प्रस्तुति के मुद्दों से कोई विरोध नहीं है। लेकिन देखना होगा कि क्या समाज के गंभीर मुद्दों को मीडिया के केन्द्र में लाने और समाज को जागरूक करने के लिए सेलेब्रिटि का होना अनिवार्य और अपरिहार्य हैं? क्या ऐसे मुद्दों पर समाज को चेतित करने में ज़मीनी सतह पर काम करने वाले लोगों की कोई भूमिका नहीं रही है? दरअसल सेलेब्रिटी द्वारा प्रस्तुति का संबंध भी मीडिया के निवेशवादी माॅडल से है। यह संबंध निवेश, टी.आर.पी. प्रस्तुति, प्रसारण और दर्शक हर स्तर पर है। ऐसे कार्यक्रमों के स्क्रिप्ट राइटर, एडिटर, प्रस्तुतकर्ता और इन्हें देखने वाले तथा टिप्पणी करने वाले सभी उसी क्लास से आते हैं जो मुनाफा आधारित सुविधाभोगी जीवन में विश्वास करते हैं। यही वजह है कि जमीनी कार्यकर्ताओं को उनके तमाम संघर्षों के बाद भी न तो उन्हें उचित मानदेय/पारिश्रमिक मिल पाता है और न ही ख्याति। मीडिया का यही रूप नागवार है।
आज की मीडिया निवेश के दम पर मुख्य धारा की मीडिया को परिभाषित कर रही है। प्रस्तुति के विषय, तौर तरीके और दर्शक की संख्या तय कर रही है। कुछ कहिए तो एक मिथक जनता पर थोप कर खुद को आर्थिक दोहन के इल्जाम से बरी भी कर लेती है। सवाल लाज़मी है कि आर्थिक दोहन के पूरे प्रकरण में मीडिया का एकतरफा प्रभाव कैसे संभव हो पाता है। दरअसल सैटेलाइट चैनलों के माध्यम से एक ही समय में लाखों-करोड़ों परिवारों और व्यक्तियों तक पहुंचना तो मुमकिन है। लेकिन लाखों-करोणों व्यक्तियों के लिए एक क्लिक में अपनी शिकायतों को सही जगह पहुंचाना संभव नहीं है। बहरहाल, सैटेलाइट चैनलों पर शिकायत करने के लिए http://www.nbanewdelhi.com/ फ्लैश किया जा रहा है। ताकि किसी कार्यक्रम में किसी भी तरह की आपत्ति हो तो दर्शक इस वेव साइट पर आॅन लाइन शिकायत कर सकें। लेकिन इस साइट पर जो आॅब्जेक्टिव दिए गए हैं उनमें निवेशवादी मीडिया इंडस्ट्री के हित रक्षण का ध्येय अधिक प्रभावी जान पड़ता है। दूसरी तरफ कानूनी कार्यवाही के लिए न जो जनता के पास पैसे हैं और न ही इतना समय कि वो मनोरंजन के आर्थिक दोहन की गतिविधियों के विरोध में व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर कोई कानूनी हस्तक्षेप करे। खासकर ऐसे में जबकि कमरतोड़ महंगाई और आजीविका के लिए अधिक से अधिक संसाधन जुटाने का वैश्विक संकट दिनों-दिन गहराता जा रहा हो। “सोने की जेब और लोहे के पैर” वाली कहावत प्रासंगिक जान पड़ता, है जो पूंजीपरस्त मीडिया घरानों के पास ही है। लोकतंत्र में सभी को आज़ादी का समान हक है। शायद यही वजह है कि यदि चैनलों को प्रस्तुति के तौर-तरीकों की आज़ादी है तो वहीं दूसरी तरफ दर्शकों को चैनलों पर दिखाए गए किसी कार्यक्रम के खिलाफ शिकायत की आज़ादी भी है। लेकिन कहना होगा कि लोकतांत्रिक आज़ादी की सीमा तय करने में आर्थिक सुधारों पर आधारित निवेश की भूमिका लगातार बढ़ी है। जिसकी वजह से बड़ी और मज़बूत आज़ादी के सामने छोटी और कमज़ोर आज़ादी को दम तोड़ना पड़ रहा है।
जाहिर है मीडिया के नए ताने-बाने और तौर-तरीकों को स्वाभाविक स्वीकृति आर्थिक सुधारों के मीडिया पर पड़ने वाले प्रभावों में सबसे अहम है। ऐसे में तथाकथित मुख्य धारा की मीडिया की भूमिका निवेश के अनुरूप तय होना भी स्वाभाविक है। समाज के किसी ज्वलंत मुद्दे का अर्थपूर्ण होना या महत्वहीन होने में इस स्वाभाविकता की बड़ी भूमिका है। इस स्वाभाविकता के चलते ही न तो ज़मीनी समस्याओं को प्रमुखता मिल पाती है और ज़मीनी स्तर पर काम करने वाली हाशिए की आवाज़ों को यथा सम्मान मिल पाता है।


कैनविज टाइम्स, 27 जून 2012

Monday, May 28, 2012

आर्थिक सुधारों की विवशता है मूल्य वृद्धि

पेट्रोल की कीमतों में की जाने वाली वृद्धि को पेट्रोलियम मंत्री ने अर्थव्यवस्था के दीर्घकालिक हित के लिए उचित फैसला बताया तो वहीं दूसरी तरफ बढ़ी कीमतों का ठीकरा राज्य सरकारों के सर फोड़ते हुए यही भी कहा गया कि यदि राज्य सरकारें करों में कमी करें तो पेट्रोल सस्ता हो सकता है। तीसरी ओर छुटपुट विरोध-प्रदर्शनों को छोड़ दें तो  मूल्य वृद्धि की खबरें प्रसारित होते ही बाइक और कार सवार उपभोक्ताओं को पेट्रोल पम्पों की ओर कूच करते देखा गया ताकि वो अधिक से अधिक ईंधन संरक्षित कर सकें। यह पहली बार नहीं है कि ईंधन में वृद्धि की गयी है। बल्कि पिछले कुछ बरसों में कभी वैश्विक बाजार में प्रति बैरल पेट्रोलियम ईंधन की कीमतों में वृद्धि तो कभी वैश्विक मंदी को संदर्भित करके ईंधन में वृद्धि की जाती रही है। पेट्रोल कीमतों में हालिया वृद्धि के पीछे सबसे बड़ा तर्क यह दिया जा रहा है कि अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए वृद्धि जरूरी थी।

जहां तक भारतीय अर्थव्यवस्था की बात है तो 1991 में इसे राजकोषीय घाटा और मुद्रा स्फीति के संकट से बचाना सबसे बड़ी चुनौती थी। इस निमित्त भूमण्डलीकरण को सबसे अच्छा विकल्प मानकर आर्थिक सुधारों की नीति अपनायी गयी। आर्थिक सुधारों की राह पर पग रखते हुए यह कहा गया था कि इस नीति के बदौलत आने वाले समय में अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होगी। लेकिन पिछले दो दशकों के अनुभव बताते हैं कि अर्थव्यवस्था में कमोबेश उतार-चढ़ाव को छोड़ दिया जाए तो इसके नाकारात्मक परिणाम ही अधिक रहे हैं। यह बात अलग है कि संवृद्धि को ही सम्पूर्ण विकास मानने वाले अर्थशास्त्रियों और विश्लेषकों की नज़र में देश पहले से खुशहाल और समृद्ध हुआ है। लेकिन सामाजिक संदर्भों में देखा जाए तो अमीरी और गरीबी की खाई पहले से कहीं अधिक बढ़ी है। दूसरी तरफ मंहगाई कब एक से दो अंकों में पहुंच जाती है इसका पता आम जनता को नहीं होता। जाहिर है पेट्रोल कीमतों में लगातार वृद्धि को सही ठहराने के लिए एक बार फिर 1991 जैसे ही तर्कों का सहारा लिया जा रहा है कि आने वाले समय में देश की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी। एक आम नागरिक की हैसियत से इस सवाल को आपके बीच रखना चाहता हूं कि वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि से अर्थव्यवस्था को यदि वास्तव में मजबूती मिलती है और समाज के हर तबके तक विकास की धारा पहुंचती है तो कहना नहीं होगा कि पिछले दो दशक में तमाम वस्तुओं की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। लेकिन दुःखद है कि मंहगाई ही अर्थव्यवस्था की मजबूती की शर्त है तो आसमान छूती मंहगाई के इस दौर में भी देश की अर्थव्यवस्था आखिर क्यों संकटों से घिरी हुई है?

गौर तलब है कि राज्य सरकारों को करों में कमी करके मूल्य वृद्धि से राहत दिलाने का तर्क देकर न सिर्फ वृद्धि से ध्यान हटाने की कोशिश हो रही है बल्कि मूल्य वृद्धि के फैसले को वापस लेने के सरोकार की संभावनाओं को भी सिरे से नकारा जा रहा है। पूरी बहस इस बिन्दु पर केन्द्रित है कि यदि राज्य सरकारें चाहें तो पेट्रोलियम ईंधन पर करों में कमी करके पेट्रोल कीमतों को कम कर सकते हैं। ध्यान देना होगा कि एक तरफ केन्द्र सरकार मुक्त बाजार के सिंद्धांतों या यूं कहें कि आर्थिक सुधारों की विवशता के कारण तेल कम्पनियों पर नियंत्रण समाप्त करने की दिशा में अग्रसर है वहीं दूसरी तरफ वृद्धि के फैसले खुद करके राज्य सरकारों को अपने करों में कमी करने का सुझाव भी दे रही है। निश्चित तौर पर पेट्रोलियम उत्पादों पर राज्य द्वारा वैट की दर कम किए जाने की भी जरूरत है। लेकिन यह भी तय होना चाहिए कि इस कमी के बाद पेट्रोल जैसे ईंधन उचित मूल्य पर उपलब्ध होने लगेंगे?

पेट्रोलियम कंपनियों का हाल यह है कि ये नियंत्रणहीनता और मुनाफा चाहती हैं। अर्थशास्त्रीय शब्दावली में कहा जाए तो हानि की स्थिति में कोई भी व्यापारिक प्रतिष्ठान अधिक दिनों तक सेवा नहीं दे सकता है। लेकिन मुक्त बाजार के सिद्धांतों के अनुरूप लिया जाने वाला हर फैसला मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति को न सिर्फ बढ़ावा दे रहा है बल्कि आम जनता तक संसाधनों की पहुंच में रूकावट पैदा कर रहा है। इस बात को इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि जब-जब पेट्रोल या डीजल जैसे ईंधनों में वृद्धि होती है इसका प्रभाव यातायात किराया पर भी पड़ता है। विशेषकर गांव से कस्बों और कस्बों को शहरों से जोड़ने वाले यातायात पर। अनुमानतः 20 किमी की यात्रा के लिए एक आम व्यक्ति को कम से कम 20 रूपए का भुगतान करना पड़ता है। वो भी वैसे स्थानों पर जहां नियमित रूप से यातायात संसाधन उपलब्ध हैं।

कुछ बातें मीडिया की भी हो जाए। मीडिया को पेट्रोल पम्पों पर कार सवारों और बाइक सवारों की भीड़ आसानी से नजर आ जाती है। लेकिन बसों और रेलगाडि़यों की भीड़ जो हर दिन हर बस और रेलगाड़ी में जानवरों की मानिन्द सफर करती है, उस भीड़ की ओर कैमरा घुमाना और प्रसारण दिक्कत तलब काम होता है। कहना नहीं है कि ईंधन की कीमतों में वृद्धि यातायात संसाधनों की सिमित सुलभता जैसी स्थिति में यातायात संकट को अधिक गहराने वाला फैसला है। ऐसे में यदि कोई गरीब यदि समय रहते इलाज के लिए अस्पताल न पहुंच पाने के कारण दम तोड़ दे तो हैरानी की बात नहीं। कोई आम व्यक्ति अपने किसी प्रिय संबंधी या शुभचिंतक का कुशलक्षेम पूछने दस-बीस किमी की यात्रा न कर पाए तो भी हैरान होने की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए इनकी भावनाओं की अवहेलना और त्याग आवश्यक है। पेट्रोल पम्पों पर भीड़ लगाकर टंकी फुल करवाने वालों का क्या! वो तो क्षणिक राहत प्राप्त करने के अभ्यस्त हो चुके हैं। विरोध-प्रदर्शन तो बस राजनीतिक क्षमता प्रदर्शन तक सिमित होकर रह गया है। वरना संसद में बैठ प्रतिनिधियों से आंख चुराकर किसी भी सरकार के लिए जनविरोधी फैसले लेना आसान काम नहीं है।

कैनविज टाइम्स, 29 मई, 2012

Monday, May 7, 2012

निजी विद्यालयों में सीट आरक्षण के मायने

उच्चतम न्यायालय ने एक फैसले मेें निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 को सही ठहराते हुए सहायता प्राप्त और गैर-सहायता प्राप्त निजी स्कूलों के साथ-साथ सहायता प्राप्त अल्पसंखयक विद्यालयों में भी दाखिले में समाज के कमजोर और वंचित वर्ग के बच्चों के लिए 25 प्रतिशत सीट आरक्षित करने संबंधी प्रावधान को उचित बताया है। ज्ञात हो कि निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के कुछ प्रावधानों पर बहस होती रही है। इनमें अल्पसंख्यक विद्यालयों को इस कानून के दायरे में लाना और निजी विद्यालयों में अधिनियम को प्रभावी ढ़ंग से लागू कराना आदि प्रमुख मुद्दे रहे हैं। शिक्षा का अधिकार अधिनियम और सुप्रीम कोर्ट के हालया फैसले के आलोक में यह देखना होगा कि निजी विद्यालयों में सीट आरक्षण के जरिए समाज के कमजोर और वंचित वर्ग के बच्चों का किस प्रकार और किस हद तक भला हो पाता है?
सीट आरक्षण के प्रावधान को यदि राष्ट्रीय संदर्भ देखा जाए तो सातवें अखिल भारतीय शिक्षा सर्वेक्षण के अनुसार प्राथमिक स्तर पर देश के महज 11.24 प्रतिशत निजी विद्यालय ही इस दायरे में आते है। जिनमें 3.62 प्रतिशत सहायता प्राप्त एवं 7.62 प्रतिशत गैर-सहायता प्राप्त निजी विद्यालय हैं। जबकि 88.73 प्रतिशत प्राथमिक विद्यालय सरकार या स्थानीय निकायों द्वारा संचालित किए जाते हैं। ऐसे में सीट आरक्षण के मामले पर संदेह लाज़मी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि इस बहाने निजी विद्यालयों की साख को मजबूत करने की कोशिश की जा रही है, ताकि मध्यम वर्ग की आकांक्षाओं की पूर्ति हो सके। यानि एक पन दो काज। 88.73 प्रतिशत विद्यालयों में शिक्षा के संसाधनों को बेहतर बनाने और उनके सुचारू संचालन के बजाए 11.24 प्रतिशत निजी विद्यालयों पर ध्यान केन्द्रित करना कहीं न कहीं सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की जिम्मेदारियों से सरकार के विमुख होने का संकेतक है।
बहरहाल निजी स्कूलों के आस्तित्व और मौजूदा दौर की शिक्षण व्यवस्था में उनकी भूमिका को नकारा भी नहीं जा सकता है। खासकर केरल जैसे राज्यों में जहां 58.50 प्रतिशत सहायता प्राप्त तथा 2.07 गैर-सहायता प्राप्त निजी विद्यालय हैं। इस राज्य में सरकारी और स्थानीय निकायों द्वारा संचालित विद्यालय क्रमशः 38.04 और 1.37 प्रतिशत है। केरल दक्षिण भारतीय राज्य है और वहां साक्षरता की दर भी सर्वाधिक है। वहां के संदर्भों के साथ इस विषय पर अलग से बात की जा सकती है। फिलहाल बात करते हैं उत्तर प्रदेश की, जहां सहायता प्राप्त निजी विद्यालयों की संख्या 2.33 प्रतिशत और गैर-सहायता प्राप्त निजी विद्यालयों की संख्या 20.62 प्रतिशत है। ज़ाहिर है देश के सबसे बड़े राज्य में प्राथमिक शिक्षा में निजी विद्यालयों की संख्या और भूमिका दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। शायद यही वजह है राज्य के निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीट आरक्षण का मामला महत्वपूर्ण है।
जब संख्या और भूमिका महत्वपूर्ण है तो फिर यह भी समझने की जरूरत है कि निजी विद्यालयों में 25 प्रतिशत आरक्षित सीटों पर प्रवेश पाने वाले बच्चों की कमजोरी और वंचना को परिभाषित कैसे किया जाएगा। यह सवाल इसलिए भी अहम है क्योंकि निजी स्कूलों की फीस में काफी विविधता है। प्रदेश में पचास रूपए से लेकर ढ़ाई तीन हजार प्रति माह वाले स्कूल आस्तित्व में हैं। तय करना होगा कि 50 रूपए फीस का भुगतान करने वाले परिवारों के लिए सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर एवं वंचित होने के क्या मायने हैं और पचास-सौ से लेकर ढ़ाई-तीन हजार रूपए भुगतान करने वाले परिवारों के लिए सामाजिक वंचना क्या होती है? यदि सैनिकों के बच्चों की शिक्षा पर केन्द्र सरकार द्वारा की जाने वाली मासिक राशि के भुगतान की बात करें तो यह राशि प्रति बच्चा लगभग 1000 रूपए है। यदि इसे माॅडल बनाया जाए तो फिर इसमें संशय नहीं कि 1000 से अधिक राशि के फीस वाले निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत कमजोर और वंचित परिवारों के बच्चों का स्वतः बहिष्करण कोई नहीं रोक सकता। शिक्षा का अधिकार कानून में उल्लेख है कि सरकार द्वारा निर्धारित राशि अथवा स्कूल की फीस जो भी कम हो उतनी राशि वापस की जाएगी। इस युक्ति को बी.पी.एल. से जोड़ कर भी देखा जा सकता है। क्योंकि सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों को चिन्हित करने के लिए संभावित मानक के तौर पर या तो बी.पी.एल. परिवारों को पात्रता दी जाय या पात्रता के लिए आय की सीमा निर्धारित की जाए। चूंकि बी.पी.एल. कार्ड को लेकर पहले ही धोखाधड़ी की ढ़ेरों प्रकरण प्रकाश में आ चुके हैं। कई मामले तो ऐसे भी हैं जिनमें अपात्र परिवारों को बी.पी.एल. कार्ड जारी किए गए हैं। अनाज, तेल और 30000 हजार रूपए के मुफ्त इलाज के लिए जो लोग निर्धनों और वंचितों का हक मारने से जरा भी नहीं हिचकते, संभव है ऐसे लोग नामी विद्यालयों में कमजोर और वंचित का रूप धारण कर अपने अपने बच्चों का दाखिला कराने की हिमाक़त करें। याद रहे कि जब नब्बे के दशक में मंडल के तहत ओ.बी.सी. आरक्षण लागू हुआ था तो हमारे जागरूक होते समाज में ऐसे प्रकरण सामने आए थे, जहां देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों और सरकारी नौकरियों में फर्जी प्रमाण पत्र के माध्यम से बहुतेरे लोगों ने आरक्षण का लाभ प्राप्त किया था।
शिक्षा विकास की कुंजी है। मौजूदा प्रतिस्पर्धी माहौल में गुणवत्तापरक शिक्षा दिलाना हर माता-पिता का सपना है। होना भी चाहिए। लेकिन जिस तेजी से शिक्षा का व्यवसायीकरण हुआ है, उससे जागरूक-चेतित लोगों की निर्भरता निजी विद्यालयों पर बढ़ी है। दुःख की बात है कि जागरूक और चेतित लोगों में कम ही ऐसे हैं जिनकी मानसिकता में परिमाणात्मक बदलाव आया है। यहां तो सारा खेल नम्बर वन का बना दिया गया है। शिक्षा में सीखो-सीखो के बजाय मुनाफा-मुनाफा का खेल खेला जा रहा है। मुनाफा के खेल ने शिक्षण व्यवस्था में वर्गीय चरित्र को ही विकसित किया है। इसी वजह से इस बात को बल मिलता है कि कोई निजी विद्यालय जो वर्गीय चरित्र के सिद्धांतों पर स्थापित और विकसित हुआ है, वो आसानी से समाज के कमजोर और वंचित वर्ग के बच्चों को व्यवहार रूप में अपनाना नहीं चाहेगा। मौजूदा हालात को देखते हुए जरूरी है कि निजी विद्यालय प्रबंधन की संवेदना को जगाया जाए। तभी शिक्षा का अधिकार कानून का प्रभावी क्रियान्वयन संभव हो सकेगा और 25 प्रतिशत सीट आरक्षित करने संबंधी प्रावधान के साकारात्मक परिणाम भी आ सकेंगे।
22 अप्रैल 2012, कैनविज टाइम्स लखनऊ

मन के विज्ञान से हताहत होती बेटियां


पिछले माह बंगलोर की आफरीन के साथ जो कुछ हुआ उससे एक बार फिर साफ हो गया है कि अग्नि 5 तक का सफर तय कर चुका हमारा देश सामाजिक जीवन में लैंगिक भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में अभी बहुत पीछे है। कहने को शिक्षा और साक्षरता निरन्तर बढ़ रही है। फिर भी बच्चियों, बेटियों और महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। तीन माह की आफरीन की मृत्यु ऐसी ही भेदभाव जनित घटनाओं की एक कड़ी है। ऐसी घटनाओं का विरोध, निन्दा और लिंगभेद से जुड़े कारकों पर विद्वता पूर्वक बहस भी होती है। लेकिन सबकुछ के बाद आए दिन होने वाली घटनाएं कहीं न कहीं सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में लिंगभेद के खिलाफ होने वाली कोशिशों की नाकामी की ओर इशारा करते हैं। यही वजह है कि लिंगभेद को जन्म देने वाले कारकों पर बार-बार ध्यान जाता है। बेटियों के प्रति मौजूदा दौर में बढ़ती हिंसात्मक घटनाओं के मद्दे नज़र ज़रूरी हो जाता है कि लिंगभेद के कारणों पर नए सिरे से गौर किया जाए, कि आखिर किन परिस्थितियों में मानव मन में लिंगभेद की इच्छाएं आकार लेती हैं और देखते-देखते किसी आफरीन या फलक को मौत के दहाने पर पहुंचा देती हैं।

इतिहास का अवलोकन किया जाए तो प्राचीन काल में अपाला, घोषा और लोपा जैसी विदुषी महिलाओं का उल्लेख आता है। सल्तनत काल में रजिया सुल्ताना और फिर मुगल काल में नूरजहां, अरजुमंद बानो बेगम जैसी महिलाओं ने राजनीति और साहित्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भक्ति आंदोलन के दौरान साध्वी महिलाएं भी हुयीं। 19वीं-20वीं सदी से होते हुए अब 21वीं सदी में सामाजिक जीवन में महिलाओं की भूमिका में एक बार फिर बदलाव देखा जा सकता है। यह सिलसिला महिला सशक्तिकरण से भी जुड़ता है। लेकिन फलक और आफरीन के केस से स्पष्ट है कि बेटियों के खिलाफ समाज का रवैय्या अभी भी सख्त है। बदलाव सिर्फ स्वरूप में हुआ है। पुराने ज़माने में बच्चियों को जिंदा दफनाने के उदाहरण मिलते हैं तो मौजूदा वैज्ञानिक दौर में वैज्ञानिक तकनीक का प्रयोग कर बच्चियों को गर्भ में मारने की घटनाएं हो रही हैं। कहना नहीं है कि जहां गुरबत का साया होता है वहां बच्चियों को लावारिश छोड़ने या फिर क्रूरता पूर्वक पिटाई या अन्य तरह की पाबन्दियां सामान्य बातें होती हैं। फलक और आफरीन दर असल समाज के उन परिवारों से थीं जो धार्मिक और आर्थिक रूप से भ्रूण परिक्षण नहीं करवा सकते थे। यह बात परिकल्पनात्मक ज़रूर है लेकिन सत्य से दूर नहीं है। यदि ये बच्चियां किसी रईस परिवार की किसी महिला की कोख में रही होतीं या उमर फारूक खुद कोई रईस होता तो शायद उसकी पुत्र प्राप्ति की इच्छा के चलते आफरीन जैसी बच्ची की भ्रूण में ही हत्या की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। जैसा कि अन्य बहुत से मामलों में हो रहा है।

बहरहाल बात करते हैं उन कारणों की जिनके चलते बेटियों का जीवन असुरक्षित है। कुछ लोग अल्ट्रासाउण्ड सोनाग्राफी मशीनों को तो कुछ लोग व्यक्ति विशेष को जिम्मेदार मानते हैं। यदि आफरीन के केस की बात करें तो उसकी मौत की असल वजह उसके पिता उमर फाररूक की पुत्र प्राप्ति की चाह थी। पहली नज़र में उसके पिता उमर फारूक को गुनहगार माना जाना अपनी जगह सर्वथा उचित है। उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही और सजा भी उचित है।ऐसी सजा, जो समाज के शेष लोगों के लिए न भूलने वाली नज़ीर बन जाए। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती क्योंकि यह मामला लिंगभेद का भी है और सिर्फ एक उमर फारूक को जेल भेजने भर से लिंगभेद की समस्या का स्थाई समाधान नहीं होने वाला। क्योंकि उमर फारूक जैसे व्यक्तियों को गुनहगार बनाने वाले कारक कहीं न कहीं किसी स्रोत से पैदा होते हैं और समय-समय पर उमर फारूक जैसे व्यक्तियों के मन का विज्ञान बनाते हैं। इसलिए इस पक्ष पर ध्यान दिए बगैर ऐसे मामलों में किसी अन्तिम निष्कर्ष पर पहुंचना तार्किक नहीं है। विशेषकर ऐसे में जब पुत्र प्राप्ति के लिए प्रेरित करने वाले कारक अदृश्य और अप्रत्यक्ष हों और जिन्हें कानूनन सबूत के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता हो। दरअसल उमर फारूक जैसे व्यक्ति भी तो इसी समाज के पैदावार हैं। स्त्रीवादी व्याख्या के अनुसार पुरूष सत्ता के केन्द्र से ही लिंगभेद का प्रत्यक्ष और परोक्ष संचालन होता है। फिर भी हमें देखना होगा कि इस सत्ता के केन्द्र को पोषण कहां से प्राप्त होता है? इसलिए कानूनी कार्यवाही के साथ-साथ सामाजिक कार्यवाही भी ज़रूरी हो जाता है। मेरा मतलब समाजिक कार्यवाही के नाम पर खाप पंचायत जैसी किसी संस्था या संगठन से नहीं है। बल्कि व्यापक सामाजिक संदर्भों में उन परिस्थितियों के गहन अध्ययन से है जिनके चलते कभी गर्भ में ही बच्चियों का गला घोंट दिया जाता है तो कभी तीन माह की बच्चियों की हत्या होती है या फिर तीन साल की बच्चियों का बलात्कार और फिर हत्या होती है।

असुरक्षा और खौफ हमारे सामाजिक संरचना के खास तत्व हैं। बेटियों को शुरू से ही सार्वजनिक स्थलों और क्रियाकलापों से अलग रखने के पीछे सबसे बड़ा कारण असुरक्षा और खौफ का वातावरण ही है। यह कारण पारिवारिक से अधिक सामाजिक इसलिए है क्योंकि जो लड़की परिवार में एक ही छत के नीचेे सुरक्षित रहती है, घर से बाहर निकलते ही पग-पग पर उसे असुरक्षा का सामना करना पड़ता है। इसी तरह परिवार में जिन लड़कों का घर की महिलाओं के प्रति व्यवहार अच्छा होता है, वो घर से बाहर निकलते ही अपने सामाजिक दायित्वों से मुक्त हो जाते हैं। इसके पीछे एक बड़ी वजह है समाज का व्यक्ति केन्द्रीत सोच है। मौजूदा दौर में विकास के जो माॅडल स्थापित हुए हैं उसमें व्यक्ति, परिवार और समाज की कल्पना “मैं” तक सिमट कर रह गयी है। ऐसे में सामाजिक स्तर पर संवेदनाओं का टूटना-बिखरना स्वाभाविक है। ऐसे में कोई भी गंभीर घटना सिर्फ भुक्तभोगी परिवार के लिए ही दुःख का कारण बनता है। शेष सामाजिक प्राणियों को न तो कोई हमदर्दी होती है और न ही कोई संवेदना। गौरतलब है कि व्यक्तिवादी सोच को बढ़ाने में नई आर्थिक सुधार और इससे जनित उपभोक्तावादी संस्कृति की अहम भूमिका रही है।

ज़ाहिर है संवेदनाएं टूट रही हैं, असुरक्षा बढ़ रही है। शायद इसकी वजह भी पुरूष सत्ता के केन्द्र में ही है। वरना कैसे संभव है कि जो व्यक्ति अपने घर में उचित व्यवहार करता है, वही व्यक्ति घर से बाहर निकलते ही बेलगाम कैसे हो जाता है? व्यक्ति का सामाजिक ताने-बाने में बेलगााम होना ही पुरूष सत्ता को मजबूत करता है। जहां से अन्य व्यक्ति भय और भविष्य की असुरक्षा प्राप्त करते हैं। असुरक्षा की बलवती होने वाली यह भावना ही पुत्र प्राप्ति की चाह को बढ़ाता है। ऐसी स्थिति में खानदान का चिराग, बुढ़ापे का सहारा, परिवार का रक्षक आदि पुरातन मान्यताएं और मजबूत होती हैं। फिर कोई अनपढ़-गंवार हो या पढ़ा-लिखा संभ्रांत दोनों ही बेटियों को दोयम दर्जे की सन्तान मानने की गलती करते हैं। यह मानना ही माता-पिता के मन में बेटियों के प्रति दोहरे व्यवहार का मनोविज्ञान तैयार करता है। जिसके परिणाम भू्रण हत्या से लेकर बलात्कार जैसी घटनाओं के रूप में सामने आता है।

उक्त संदर्भ में उचित यही है कि असुरक्षा को कम करने के लिए सुरक्षा के उपबंध करने के बजाए असुरक्षा को जन्म देने वाले सामाजिक कारकों पर चोट किया जाए। यह किसी एक का दायित्व नहीं है। इस कार्य को करने में व्यक्ति-व्यक्ति की अपनी भूमिका है। सुविधाभोग के नाम पर यदि व्यक्ति इस भूमिका से और अधिक विमुख होगा तो इसका खमियाजा भी उसे भुगतना होगा। खासकर ऐसे समय में जबकि उत्तर प्रदेश सहित देश के अन्य कई राज्यों में बाल लिंगानुपात में गिरावट दर्ज की गयी हो और संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून अपने भारत दौरे के अवसर पर मुम्बई में बाल लिंगानुपात और शिशु मृत्युदर पर चिंता व्यक्त कर रहे हों, तो ज़रूरी हो जाता है कि मौजूदा दौर की सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक परिस्थितियों में लिंगभेद को समाप्त करने के लिए जनमानस की संवेदनाओं को जगाया जाए। वरना उपभोक्तावाद की राह पर तीव्र गति से आगे बढ़ते समाज के पास पछताने के लिए कुछ भी नहीं बचेगा।

७ मई २०१२, कैनविज़ टाईम्स, लखनऊ

Friday, April 13, 2012

समाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण और गरीबी के सुलगते सवाल


पिछले कुछ महीनों से गरीबी रेखा के निर्धारण के मानकों को लेकर मीडिया, राजनीति और अर्थ जगत में काफी चर्चा हो रही है। कोई गरीबी को प्रति व्यक्ति प्रतिदिन कैलोरी ऊर्जा की प्राप्ति तो कोेई प्रति व्यक्ति प्रतिदिन आय और कोई उपभोग के नए आंकणों के मद्दे नज़र मानक निर्धारित किए जाने का पक्षधर है। गौर तलब है कि योजना आयोग ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के लिए गरीबी निर्धारण के जिन मानकों को हरी झण्डी दी है उनमें बदलाव की कोई गुंजाइश पिछले वर्ष अगस्त में ही समाप्त हो चुकी थी। इस बाबत अगस्त 2011 में ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि “प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, बी.पी.एल. की सूची में शामिल करने और इस सूची से बाहर करने संबंधी मानक को मंत्रीमण्डल द्वारा अनुमोदित किया जा चुका है, अब इसमें कुछ नहीं हो सकता।” मानकों में बदलाव की उम्मीद इसलिए भी नहीं है क्योंकि देश के 31 राज्यों में सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण का कार्य पहले से ही प्रगति में है। फिर भी गरीबी निर्धारण के मानकों को लेकर बहस जारी है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि सरकार अगामी कुछ दिनों में सर्वेक्षण का कार्य सफलता पूर्वक संपन्न कर लेगी। लेकिन इस बात का भरोसा कैसे हो कि राज्य और देश के अभाव ग्रस्त सभी लोग सर्वेक्षण के बाद तैयार होने वाली गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों की सूची में शामिल हो सकेंगे। अभी तक जो मानक तय किए गए हैं उसमें स्वतः समावेश और बहिष्करण के सिद्धांत को अपनाया गया है। जैसे भूमि, भूमि का माप, किसान क्रेडिट कार्ड, ऋण की राशि, फ्रीज, लैण्ड लाइन फोन और बाइक आदि वस्तुओं की उपलब्धता को जिस तरह आधार बनाया गया है उससे अधिकतर ज़रूरतमंदों और निर्धनों के स्वतः ही गरीबी रेखा के नीचे की सूची से बाहर होने की संभावना प्रबल है। इसके अलावा मानकों में वंचित होने के सात संकेत भी रेखांकित किए गए हैं। जैसे मकान, मकान का स्वरूप (कच्चा/पक्का), परिवार में 16 से 59 वर्ष की आयु के किसी सदस्य का न होना तथा ऐसे परिवार जिनमें 25 वर्ष से अधिक आयु का कोई साक्षर व्यक्ति न हो आदि। इन संकेतकों से आभाष होता है कि 16 से 59 वर्ष आयु के लोग गरीब नहीं हो सकते। इसी तरह 25 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्ति वंचित नहीं हो सकते। यदि मौजूदा सार्वजनिक प्रणाली के काम-काज तथा शिक्षा और रोजगार की स्थिति पर नज़र डालें तो वास्तविकता छुपाए नहीं छुपती कि ऐसे परिवारों की कमी नहीं है जिनमें 16 से 59 वर्ष आयु के सदस्य मौजूद हैं। ऐसे परिवार की संख्या भी काफी है जिनमें 25 वर्ष से अधिक आयु के लोग साक्षर हैं। लेकिन ऐसे परिवारों के साथ गरीबी का संबध भी पुराना है। यदि साक्षरता की बात करें तो 2011 की जनगणना के अनुसार साक्षरता की दर 74.01 प्रतिशत है जो 2001 में 64.83 प्रतिशत दर्ज की गयी थी। तो क्या मान लिया जाए कि देश की 74 प्रतिशत लोग गरीब नहीं हैं! ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार योजनाबद्ध तरीके से गरीबों की एक ऐसी सूची तैयार करने की इच्छुक है जिसमें पात्र परिवारों की संख्या पहले से ही निश्चित हो। शायद यही वजह है कि एन.सी. सक्सेना समिति ने अपनी रिपोर्ट में अपनी राय देते हुए लिखा है कि “बी.पी.एल. सूची में लक्ष्य निर्धारण जैसी किसी युक्ति को अपनाने से बेहतर है कि संधाधनों के सार्वभौमिक वितरण की बात सुनिश्चित की जाए।”

ज़ाहिर है एक तरफ सरकार के समक्ष कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन की चुनौती है तो वहीं दूसरी तरफ गरीबी को एक निश्चित अवधि सीमा में एक निश्चित स्तर तक कम करके आंकने का लक्ष्य है। कहना पड़ रहा है कि चुनौतियों का सामना करने के बजाय गरीबी के मानक लक्ष्य प्राप्ति से अधिक प्रेरित हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो विभिन्न प्रदेशों के लिए बी.पी.एल. कार्ड धारकों की संख्या पूर्व निर्धारित नहीं होती। यदि खुद के निजी अनुभव की बात करूं तो उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो वास्तव में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत अनाज और तेल जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। लेकिन जब भी ऐसे लोग स्थानीय स्तर पर ग्राम सभाओं, ब्लाक अथवा तहसील में संबधित ओहदेदारों से बी.पी.एल. कार्ड बनवाने के लिए अर्जी देने के बाबत जानकारी चाहते हंै, तो उन्हें निराश होना पड़ता है। सरकारी कार्यालयों में पहले तो उन्हें फरवरी माह के बाद आने को कहा गया और फिर चुनाव के बाद की तिथि बतायी गयी। लेकिन मार्च महीना गुजर जाने के बाद भी इस दिशा में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई है। अनुमान लगाया जा सकता है कि जब तक सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण नहीं हो जाता तब तक न तो गरीबों की नयी सूची तैयार हो पाएगी और न ही नए कार्ड बनाए जा सकेंगे।

निश्चित तौर पर अगामी कुछ-एक महीनों में सर्वे का कार्य पूरा कर लिया जाएगा। लेकिन यह सवाल फिर भी अनुत्तरित रहेगा कि इस सर्वे के आधार पर तैयार होने वाली बी.पी.एल. सूची में ग़रीब और वंचित किस हद तक शामिल हो सकेंगे? क्योंकि सामाजिक-आर्थिक सर्वे उन्हीं मानकों के अनुरूप किया जा रहा है जिनपर काफी सवाल उठाए जा रहे हैं। ऐसे में गरीबों की सूची तो तैयार कर ली जाएगी लेकिन लक्षित सूची में शामिल न हो पाने वाले गरीबों को राहत नहीं पहुंचेगा। यह बात समझ से परे है कि इतने बड़े देश में गरीबी निर्धारण के व्यावहारिक और सर्वमान्य मानक क्यों नहीं अपनाए गए? सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के बाद भी गरीबी के सुलगते सवालों के जवाब की दरकार बनी रहेगी। विशेषकर एक ऐसे देश में जहां के प्रधानमंत्री खुद अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त अर्थशास्त्री हैं और जिस देश के एक होनहार को अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है।

Sunday, March 25, 2012

जे.एन.यू.: महज अनुभव नहीं लोकतंत्र का दर्शन

अब जबकि यादों को शब्दों और वाक्यों के माध्यम से लिखने की कोशिश कर रहा हूँ तो ऐसा महसूस कर रहा हूँ कि ढे़र सारे चट्टान, चट्टानों पर स्थित ढ़ाबे, ओपेन थिएटर, कटीली झाड़ियों वाले पेड़-पौधे विशेषकर अमलताश के फूल, सतलज से काॅवेरी के बीच के अजीब खुशबू वाले वृक्ष, ढे़रों पगडंडियां और लाल रंग की इमारतें और इन पगडंडियों तथा इमारतों में घूमते फिरते प्रगतिशील विचारों की श्रृंखला, टीचर्स का दोस्ताना व्यवहार, 9.30 बजे की गंगा ढ़ाबा से ताप्ती तक के जुलूस, थेसिस जमा करने का प्रेसर और हिलटाॅप की चढ़ाई, 615 से मुनिरका, बेर सराय, वसंत विहार और सरोजनी मार्केट की यात्रा वगैरह चित्र यहीं कहीं आस-पास ही बिखरे हैं।

जे.एन.यू. के अनुभव लिखने की कोशिश कर रहा हूँ। समझ नहीं आता कि अनुभवों के बिखरे संसार को किस तरह एक जगह इकट्ठा करूँ। हाॅस्टल के रूम और मेस से लेकर एड ब्लाॅक और लाइब्रेरी होते हुए स्कूल बिल्डिंग, तो कभी ढ़ाबा, के.सी., टेफला और पीएसआर की चढ़ाई का चित्र आँखों के सामने किसी चलचित्र की भाँति घूम रहा है। जे.एन.यू. में पहला दिन, क्लासमेट्स से परिचय, पहली क्लास, कांपते हाथों से पहली बार सेमीनार पेपर पढ़ना, थरथराते होंठों से प्रश्नों के उत्तर देना, एंडसेम के लिए दिन-दिन भर लाइब्रेरी में बैठे रहना और लाइब्रेरी के पीछे चट्टानों पर बैठकर हाथों में चाय के प्याले लिए दोस्तों के संग घंटों देश और दुनिया की चर्चाओं और परिचर्चाओं में दिमाग खपाना, कभी खाने की गुणवत्ता के लिए तो कभी मेस बिल और हाॅस्टल में सैनिटेशन के लिए हो हंगामा करना और कभी एड ब्लाॅक पर धरना-प्रदर्शन में शामिल होना वगैरह किसी भी छात्र के अनुभव संसार में एक नया अध्याय जोड़ने के लिए काफी होता है। 9.30 बजे के समय को तो शायद ही कोई छात्र भूल सकता है। दुनिया में अलग-अलग हिस्सों में इस समय पर चाहे जो भी होता हो। लेकिन जे.एन.यू. में यह समय किसी पब्लिक मीटिंग या टाॅर्च लाइट प्रोसेशन का होता है। इस बात को समझना बाहर वालों के लिए कठिन हो सकता है कि इतनी सारी एक्टीविटीज़ किस तरह से संभव होता है। लेकिन मैं अपने अनुभव के आधार पर इस बात का श्रेय इस विश्वविद्यालय के प्रोग्रेसिव और डेमोक्रेटिक वातावरण को देता हूँ। एक ऐसा वातावरण जो यहाँ की कम्यूनिटी लाइफ को ठोस आधार प्रदान करता है। यहाँ के छात्र-छात्राओं को उस दुनिया के बारे अवगत कराता है, जहाँ मानवीय मूल्यों, श्रेष्ठ परम्पराओं और विचारों का सम्मान होता है, जहाँ हक और इंसाफ के लिए आवाज़ बुलंद करने का हौसला मिलता है।

सबसे पहले झेलम हाॅस्टल की बात करूंगा। 1998 में जब मैं जे.एन.यू. आया तो उस समय यहाँ हाॅस्टल की समस्या चल रही थी। इस समस्या के समाधान के लिए स्टूडेन्ट्स आर्गनाइजेशन्स एड ब्लाॅक पर लगातार धरना प्रदर्शन कर रहे थे। रात में मेस टेबल पर पैम्फलेट्स आ जाते थे। बताना चाहता हूँ कि पैम्फलेट्स की परम्परा इस विश्वविद्यालय में ऐसी रही है जैसे दाल में नमक। जिस दिन डिनर के समय पैम्फलेट्स नहीं आते उस दिन भोजन में कोई कमी सी महसूस होती है। दरअसल छात्र-छात्राओं के एक हाथ में भोजन का निवाला होता है तो दूसरे हाथ में पैम्फलेट होता है। कितना खाना है या कितना खाया से ज्यादा महत्वपूर्ण पैम्फलेट पढ़ना होता है। फिर मेस टेबल पर अगली सुबह, दोपहर और शाम बहस का न ख़त्म होने वाला सिलसिला। कहना चाहता हूँ पैम्फलेट्स निश्चित तौर पर हमें वाहय जगत से जोड़ने में महत्वपूर्ण कड़ी होते थे। किसी समाचार पत्र की तरह। लेकिन ये महज समाचार पत्र नहीं होते थे बल्कि छात्र-छात्राओं की संवेदना को जगाने का सशक्त माध्यम भी होते थे।

पैम्फ्लेट के माध्यम से छात्र समुदाय तक न सिर्फ देश दुनिया की अद्यतन सूचनाएं आसानी से पहुंच जाती हैं बल्कि जे.एन.यू. में छपने वाले पैम्फ्लेट्स समकालीन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक घटनाक्रम के प्रति छात्र-छात्राओं को सेन्सटाइज़ करने में भी महत्वपूर्ण होते हैं। पैम्फ्लेट्स की परम्परा हमें कई बार इतिहास में थोड़ा पीछे भी ले जाती है। आज़ादी से पहले की उस परंपरा से जोड़ती है जिसकी बुनियाद खुदीराम बोस, भगत सिंह और लाजपत जैसों के हाथों पड़ी थी। 1947 में भारत के आज़ाद होने के बाद आज 21वीं सदी के दूसरे दशक तक का सफर ढ़ेर-सारे राजनीतिक उतार-चढ़ाव और सामाजिक, आर्थिक, तकनीकी और सांस्कृतिक बदलावों से भरा पड़ा है। भूमण्डलीकरण और इससे जनित मानवीय जीवन की चुनौतियां भी बढ़ी हैं। संचार और तकनीकी क्रांति ने हमारे लिए नित नई मशीनें और माध्यम पैदा किये हैं, जिनका उपयोग आज पूरा विश्व कर रहा है। बदलते-बदलते हम आज इतना बदल चुके हैं कि हमारे हाथ से क़लम फिसल सा गया है। कलम का सिपाही अब हम अपने बच्चों को कलम पकड़ना नहीं सिखाते। हमारी उंगलियां कम्प्यूटर के कीबोर्ड और मोबाइल के बटन पर थिरकती हैं। निश्चित तौर पर विद्युतीय तारों और संकेतों द्वारा अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र में भी आसानियां पैदा हुई हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि इसने लेखन की परंपरागत विधियों से खिलवाड़ भी किया है। क्षण भर में किसी संदेश को एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप तक पहुंचाना संभव है। लेकिन संवेदनाओं के टूटते-बिखरते संसार को बचाना मुश्किल होता जा रहा है। इस संदर्भ में जे.एन.यू. के पैम्फ्लेट्स महज छात्र समुदाय के राजनीतिक सोच की अभिव्यक्ति भर नहीं होते बल्कि एक संवेदनायुक्त और संवादयुक्त समाज के निर्माण और विकास के सशक्त माध्यम होते हैं। यदि देखा जाय तो तेजी से बदलते वैश्विक परिस्थितियों में एक अहम चुनौती बढ़ती हुई संवादहीनता और संवेदनहीनता है।

जेएनयू के असाइनमेन्ट्स यहाँ के छात्र-छात्राओं को हाॅस्टल से स्कूल और स्कूल से लाइब्रेरी तक खूब दौड़ाते हैं। लाइब्रेरी में बैठकर असाइइनमेन्ट्स को पूरा करना कठिन कार्य होता है। लेकिन पैम्फ्लेट्स इस कठिन कार्य को असान बनाने में मददगार होते हंै। पढ़ने की आदत हो या लिखने की कला दोनों ही दृष्टि से पैम्फ्लेट्स हमारी सहायता करते हैं। पैम्फ्लेट्स से जुड़ी एक रोचक बात जो इस वक्त याद आ रही है, बताता हूँ। जब मैं 1998 ई. में पहली बार एक असाइनमेन्ट (टर्म पेपर) लिख रहा था तो मेरे एक सीनियर ने बताया कि ‘‘वो तो पैम्फ्लेट्स के पीछे के खाली हिस्से पर ही अपना असाइनमेन्ट लिख लिया करते हैं।’’ मैंने हैरानी से उनसे पूछा कि ‘‘फिर फेयर करते होंगे।’’ उन्होंने बताया कि ‘‘नहीं पैम्फ्लेट पर ही फेयर करते हैं।’’ कहना चाहता हूँ कि जेएनयू से पहले और न ही बाद में अबतक कोई ऐसी जगह देखी जहां इतनी अद्भुत बातें होती हों। इसे विश्वविद्यालय में व्याप्त आर्थिक विविधता का नाम दिया जाना चाहिए। जिसकी वजह से गरीब घरों से आने वाले छात्र-छात्राओं द्वारा पैम्फ्लेट्स के उपयोग पर टीचर्स नाराज़ नहीं बल्कि ख़ुश होते हैं। और इससे कहीं अधिक ख़ुशी की बात इस तरह की तरकीबों की खोज कर विभिन्न वस्तुओं की उपयोगिता को बढ़ाने पर होती है।

हास्टल और कैन्टीन्स से लेकर एड ब्लाॅक, लाइब्रेरी और स्कूल बिल्डिंग्स हर जगह हाथों से बनाए गए पोस्टर अनायास ही हमारा ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं। ये पोस्टर कोई आम पोस्टर नहीं होते थे। पोस्टरों के तीन पक्षों पर ध्यान दिलाना चाहता हूँ, जिसके प्रभाव से शायद ही कोई अछूता रहता है। पहला यह कि संवाद करते ये पोस्टर छात्रों-छात्राओं में देश-दुनिया की समस्याओं के प्रति बौद्धिक समझदारी विकसित करते हैं। दूसरा यह कि इन पोस्टरों में जो रचनात्मकता होती है वो किसी प्रेस से छपी पोस्टर में मिलना मुश्किल है। तीसरा यह कि पोस्टर वर्कशाप उन छात्र-छात्राओं की रचनात्मक प्रतिभा को उभारने का अवसर प्रदान करता है जो अबतक किन्हीं कारणों से ऐसे अवसरों से वंचित रह गए होते हैं।

वर्कशाप सिर्फ पोस्टरों के ही नहीं होते हैं बल्कि इस विश्वविद्यालय में ड्रामा क्लब, म्यूजिक क्लब, लिट्रेरी क्लब और यूनेस्को क्लब के वर्कशाप भी हुआ करते हैं। ये वर्कशाप भी नये-पुराने विद्यार्थियों में एक हेल्दी संवाद स्थापित करते हैं। दिलचस्प बात यह है कि इन क्लबों का प्रतिनिधित्व लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए प्रतिनिधि ही करते हैं। किसी विश्वविद्यालय में ऐसी छोटी-छोटी लोकतांत्रिक संस्थाओं का आस्तित्व सिर्फ औपचारिकता नहीं होती बल्कि इन संस्थाओं के तत्वाधान में समय-समय पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में छात्र-छात्राओं और टीचर्स की बड़ी संख्या में उपस्थिति संवाद की डोर को और मजबूत करती है।

सच कहूँ तो जे.एन.यू. की न केवल भौगोलिक स्थिति विलक्षण है बल्कि इस विश्वविद्यालय की ढ़ेरों परंपराएं अपने आप में अद्भुत हैं, जो देश और दुनिया को आइना दिखाते हैं। इस विश्वविद्यालय की लोकतांत्रिक परंपरा देश और दुनिया के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करते हैं। संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित समानता, स्वतंत्रता, न्याय, पंथनिरपेक्षता और समाजवाद की मूल भावना यहाँ के शैक्षिक और सामुदायिक जीवन का अभिन्न अंग हैं। इस विश्वविद्यालय में सीनियर और जूनियर स्टूडेन्ट्स में कोई भेद नहीं। कम से कम मैं जितने समय तक यहाँ छात्र रहा तबतक किसी की रैगिंग नहीं देखी। बी.ए., एम.ए., एम.फिल. और पीएच.डी. हर कोर्स में पढ़ने वाले छात्र-छात्रा एक साथ भोजन करते हुए, बात करते हुए और योजनाएं बनाते हुए देखे जा सकते हैं। आपस में इस तरह का साहचर्य सीखने के नए अवसर प्रदान करता है न कि सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में किसी तरह की बाधा उत्पन्न करता है। गौरतलब है कि इलाहाबाद, बी.एच.यू., ए.एम.यू. और डी.यू. इस मामले में बिल्कुल अलग हैं। बहरहाल झेलम मेस की एक छोटी सी घटना का जिक्र करूंगा। मैं अभी नवागन्तुक छात्र था। भोजन करने के पश्चात वाटर कूलर में ही हाथ धोने लगा। मुझे यह पता नहीं था कि इस टैंक का प्रयोजन पानी पीना था न कि हाथ धोना। हाॅस्टल के एक सीनियर ने मुझे बताया कि हाथ वाश बेसिन में धोते हैं। मुझे उनकी बातें बुरी नहीं लगीं। मैंने सीखा कि पानी पीने की जगह कुल्ली नहीं करते। इससे कहीं अधिक यह सीखा कि किसी भी गलत बात को रोकने के लिए हौसले की जरूरत होती है।

जाति, धर्म और समुदाय भारतीय समाज के विशिष्ट लक्षण हैं। अरावली की श्रेणियों, जिसे दिल्ली रीज़ कहा जाता है, पर अवस्थित इस विश्वविद्यालय में भेदभाव के संस्थागत ढ़ांचे नहीं हैं जिस प्रकार से हमारी सामाजिक व्यवस्था में पाए जाते हैं। समानता महज छात्रों-छात्रों और छात्राओं-छात्राओं तक सीमित नहीं बल्कि रात्रि के दो बजे जे.एन.यू. की कटीली झाड़ियों से होकर हाॅस्टल से लाइब्रेरी और स्कूल आॅफ लाइफ साइंसेज तक लड़कियों का बेरोक-टोक, बेखौफ आना-जाना स्वतंत्रता और समानता का आदर्श प्रस्तुत करता है। इसी संदर्भ में जी.एस.केश. (GSCASH) प्रासंगिक हो जाता है। ज्ञात हो कि सुप्रीम कोर्ट के निदेशानुसार ऐसी संस्था की स्थापना देशव्यापी स्तर पर करना सरकार का भी लक्ष्य है लेकिन जे.एन.यू. को छोड़कर शायद ही कोई स्थान या संस्थान ऐसा है जहाँ लिंग आधारित भेदभाव और शोषण को रोकने के लिए व्यक्ति को सेंसटाइज़ करने जैसी कोई युक्ति प्रभावी ढ़ंग से लागू है। किसी भी समाज या समुदाय में हर तरह के लोगों का होना लाज़मी है। सो जे.एन.यू. भी इस विविधता का गवाह है। बात उस समय की है जब मैं झेलम हाॅस्टल का प्रेसीडेन्ट चुना गया था। हाॅस्टल प्रेसीडेन्ट की तमाम जिम्मेदारियों में एक अहम काम Annual Hostel Day Cellebration (हाॅस्टल नाइट) को सफलतापूर्वक सम्पन्न कराना होता है। जे.एन.यू. प्रशासन पिछले कई वर्षों से इस प्रयास में था कि सभी हाॅस्टल्स को मिलाकर एक समेकित कार्यक्रम हो। इसके पीछे प्रशासन की सबसे बड़ी दलील लड़कियों को Tease करने (छेड़ने) की बढ़ती हुई घटनाएं थीं। इस विषय पर सभी छात्रावासों के अध्यक्ष/अध्यक्षा और छात्र संघ तथा डीन के बीच मीटींग हुई और नतीजा यह निकला कि सभी प्रतिनिधि मिलकर Self Vigilence की Team बनाएंगे और इस तरह की घटनाओं को होने से रोकने में प्रशासन की मदद करेंगे। हम सभी ने हाॅस्टल नाइट का वैयक्तिक सुख त्यागकर इस बात को साबित किया कि सेक्सुअल हरासमेंट को रोकने के लिए किसी सामाजिक समागम को समाप्त नहीं किया जाना चाहिए। बल्कि ऐसे आयोजनों को और उत्साह से करके यह संदेश देना चाहिए कि सामाजिक समागम लोगों को जोड़ने के लिए होता है न कि तोड़ने के लिए। वैसे भी हमें पढ़ाई पूरी करने के बाद एक बार फिर उसी समाज में वापस जाना है जहाँ सेक्सुअल हरासमेंट की घटनाएं बडें पैमाने पर घटित होती हैं। इसलिए छात्र-छात्राओं को सेन्सटाइज करना ही देश और समाज के दीर्घकालिक हित में है।

वर्ष 1991 भारत में आर्थिक सुधारों के नाम रहा तो 1992 बाबरी मस्जिद के विध्वंश के कारण इतिहास में दर्ज हुआ। इन वर्षाें में मैं इलाहाबाद में सी.ए.वी. इण्टर काॅलेज में छात्र था। इसी दौरान मैंने सुना था कि जे.एन.यू. से पढ़ाई करने के बाद 10000-15000 तक की नौकरी तुरंत मिल जाती है। रोजगार हर हाल में जरूरी है। 1986 की नई शिक्षा नीति में भी व्यवसायपरक शिक्षा के प्रसार पर जोर दिया गया है और नई आर्थिक नीतियों के चलते शिक्षा में निजी क्षेत्र का हस्तक्षेप बढ़ा है। पिछले बीस बरस में व्यवसाय के नए अवसर अवश्य सृजित हुए हैं लेकिन आर्थिक सुधारों से जनित शिक्षा के बाज़ारीकरण के अनुभव हमें ये भी बताते हैं कि फिस्कल डिफीसिट को संभालने में शिक्षा की मूल भावना और उद्देश्यों की अवहेलना भी हुई है। बेलगाम फीस वृद्धि और सेल्फ फाइनेंस्ड कोर्सेज के कारण आम छात्र शिक्षा के अनेक अवसरों से वंचित है।

मौजूदा परिस्थितियों में जे.एन.यू. जैसे विश्वविद्यालय का आस्तित्व उम्मीद की किरण दिखाता है। इस विश्वविद्यालय की एडमिशन पाॅलिशी और लोकतांत्रिक परंपरा कुछ ऐसी है कि यहाँ समाज के हर तबके और हर वर्ग के छात्र-छात्रा अपनी योग्यता के आधार पर प्रवेश पाते हैं। यहाँ छात्र-छात्रा विश्वविद्यालय में उपलब्ध संसाधनों तक लिंग, जाति, धर्म या क्षेत्र के आधार पर होने वाले भेदभाव के बिना ही अपनी पहुंच रखते हैं। निजी तौर पर मैं कह सकता हूँ कि मैंने जे.एन.यू. को इसके उच्च शिक्षा की गुणात्मक विशेषताओं से ही नहीं बल्कि इससे कहीं अधिक इसकी लोकतांत्रिक परंपराओं के कारण समझ पाता हूँ। दरअसल यह विश्वविद्यालय शिक्षा का बेहतर माहौल तो देता ही है साथ में आगामी जीवन के लिए ऐसी लीडरशिप के बीज तत्व तैयार करता है जो अन्य विश्वविद्यालय में अप्राप्य है। मूलाधिकारों की बात हो या फिर मूल कत्र्तव्यों की या भारत के कल्याणकारी राज्य होने की, संविधान के हर उपबन्ध को यहाँ व्यवहार रूप में देखा, समझा और महसूस किया जा सकता है।

कल्याणकारी राज्य से एक बात याद आई। 1998-2000 के समय में जे.एन.यू. का डीन कार्यालय ‘‘डीन आॅफ स्टूडेन्ट्स वेलफेयर’’ कहलाता था। लेकिन बाद के समय में ‘‘वेलफेयर’’ शब्द तिरोहित कर दिया गया। और डीन कार्यालय ‘‘डीन आॅफ स्टूडेन्ट्स’’ बन कर रह गया। मेरे कहने का अर्थ यह है कि शायद ऐसा नए आर्थिक सुधारों के दबाव में हुआ हो। इसी तरह पिछले तीन-चार बरसों में कैम्पस सुन्दरीकरण और मरम्मत के नाम पर विनीर्माण के जो काम हुए और किए जा रहे हैं, उनमें भी वेलफेयर कम बल्कि विकास के नए प्रतिमानों को छूने की कोशिश अधिक दिखती है। शायद सादगीयुक्त कुर्ता और झोले में सुन्दरता देखने-परखने वाले छात्रों की पहचान भी मिटती जा रही है। इनफार्मेशन-टेक्नोलाॅजी की धूप-छावँ में जवान होती नयी पीढ़ी जे.एन.यू. को नए आयाम दे रही है।

ज़ाहिर है प्रगतिशील और बुद्धिजीवियों का विश्वविद्यालय जे.एन.यू. भी आज भूमण्डलीकरण जनित चुनौतियों से दो-चार है। जिन छात्र आंदोलनों के बल पर देश के युवा नाज करते थे, ऊर्जा प्राप्त करते थे, आज वहाँ भी छात्र संघ पर प्रतिबंध है। 2007 में एन.डी.टी.वी. की रिपोर्टर अमृता प्रधान (अब राज्य सभा टी.वी.) ने जब मुझसे लिंगदोह कमीशन की संस्तुतियों के जे.एन.यू. में लागू करने की संभावना के बारे में मेरे विचार जानने चाहे थे तो उस समय मैंने कहा था कि संभव है, देश के दूसरे विश्वविद्यालयों में इस कमीशन की संस्तुतियों के अनुरूप छात्र संघों के चुनाव होने लगें। लेकिन जे.एन.यू. के छात्र संघ के कार्यप्रणाली और कार्यशैली को देखते इसे लागू करना संभव नहीं होगा। तीन-चार बरस बाद अब सोचता हूँ कि मैं कितना गलत था। लिंगदोह की संस्तुतियों के अनरूप चुनाव कराना तो दूर की बात यहाँ तो पूरा का पूरा छात्र संघ ही प्रतिबंधित है। इसे मैं ट्रेजडी कहूंगा। एक ऐसी ट्रजडी जो सिर्फ जे.एन.यू. की नहीं बल्कि समूचे देश के विश्वविद्यालयों और युवाओं की ट्रेजडी है। 

जे.एन.यू. की मौजूदा स्थिति चिन्ताजनक और निराशाजनक है जरूर लेकिन प्रोफेसर आनंद कुमार की बातों पर यकीन करें तो जब सारे रास्ते बंद हो गए हों तो ऐसे में इतिहास में थोड़ा पीछे देखना चाहिए। वहीं से नयी ऊर्जा और स्फूर्ति प्राप्त होती है। इस संदर्भ में सन् 2005 का नेसले आउटलेट के खिलाफ छात्र आंदोलन हमें रास्ता दिखाता प्रतीत होता है कि किस तरह इस देश में तेजी से बढ़ते काॅरपोरेट प्रभाव को धूल चटाया जाय। याद आते हैं वो दिन जब कैम्पस के छात्र बिना वैचारिक और राजनीक भेदभाव के बड़ी तादाद में नेशले आउटलेट के विरोध में चल रहे आंदोलन का हिस्सा बने थे। और कारपोरेट वल्र्ड को संदेश दिया था कि हम उत्पाद का उपभोग करेंगे न कि उपभोक्तावादी संस्कृति का अनुकरण करेंगे। नेसले को अपना आउटलेट हटाना पड़ा था। जे.एन.यू. सीख देता है कि किस प्रकार वैश्विक संदर्भों में काॅरपोरेट विश्व द्वारा प्रायोजित उपभोक्तावादी संस्कृति से खुद को अक्षुण्य रखते हुए विकास की नई मंजिलों तक पहुंच जाए। बहरहाल ये घटनाएं मेरे लिए इसलिए खास हैं क्योंकि कि राजनीतिक रूप से अलग-अलग खेमों में बंटे छात्र समुदाय का काॅमन इश्शूज़ के लिए काॅमन प्लेटफार्म पर आना जे.एन.यू. की विलक्षण विशेषता रही है। इस बात को मैं दावे के साथ इस लिए भी लिख पा रहा हूँ क्योंकि मैंने चंदू पर बनी फिल्म में देखा था कि चंदू के लिए आंदोलनरत्त छात्र-छात्राओं में वो चेहरे भी शामिल थे जो उनसे राजनीतिक सहमति नहीं रखते थे।

मैं समझता हूँ कि झेलम छात्रावास और इसके तत्वाधान में आयोजित होने वाले चाट महासम्मेलन के जिक्र के बिना मेरे अनुभव का यह हिस्सा अधूरा रहेगा। जे.एन.यू. विशेषकर झेलम मेस की ढे़र सारी चर्चाओं-परिचर्चाओं में एक प्रमुख विषय चाट परंपरा का होता है। जिसका अभिप्राय अपनी विद्वतापूर्ण बातों को पूरे विस्तार से कहने से है। प्रवेश के समय जब कोई छात्र हाॅस्टल में आता है और यदि कम समय में ही छात्रावासियों के साथ घुल-मिल जाता है तो पुराने छात्रावासी यह कहते नहीं थकते हैं कि डीन आॅफिस में बैठे श्री गुलाटी इनकी चाट झमताओं को देखते हुए ही पेरियार, कावेरी या अन्य छात्रावास के आग्रह को ठुकराकर इन्हें झेलम भेजा है। झेलम छात्रावास की कुछ शब्दावलियां जो याद रह गयीं हैं। किसी नवागन्तुक के लिए आपस में छात्र कुछ इस लहजे में बात करते हैं ‘‘आज ही गिरे हैं’’ (यानि आज ही आए हैं), ‘‘कहाँ विलुप्त हो गए थे सर’’ (अर्थात कहाँ चले गए थे) वगैरह। झेलमवासी इन शब्दावलियों को चाट भाषा का नाम देते हैं। चाट भाषा जाकर जुड़ती है होली की पूर्व संध्या पर आयोजित होने वाले चाट महासम्मेलन से। वरिष्ठ छात्रों से पता चलता है कि चाट महासम्मेलन की परंपरा आज से करीब एक दशक पूर्व शुरू हुई थी। इस परंपरा की स्थापना का श्रेय भारतीय भाषा केन्द्र के शोध छात्र डा. हरिओम को है जो संप्रति कानपुर के जिलाधिकारी हैं। धन्य हो डा. साहब, बीड़ी-सिगरेट और गंगा ढ़ाबा का नशा क्या पहले से कम था!, जो यहाँ के छात्र समुदाय को चाट महासम्मेलन का वार्षिक नशा पकड़ा दिया। प्रत्येक वर्ष होने वाले इस आयोजन में मुझे 1999 में एक दर्शक छात्र के रूप में भाग लेने का मौका मिला। झेलम मेस दर्शकों से खचाखच भरा था। प्रोफेसर पुरूषोत्तम अग्रवाल मुख्य अतिथि की कुर्सी को शुशोभित कर रहे थे। गद्य और काव्य में रूचि रखने वाले अपनी रचनात्मक क्षमताओं का भरपूर प्रदर्शन कर रहे थे। लेकिन झेलम के निवासी कवि हृदय भरत प्रसाद त्रिपाठी को मंच से उतरना पड़ा था। पी.एच.डी. पूरा करने के बाद भरत जी को उत्तरपूर्व में लैक्चरशिप का पद मिला लेकिन शोध छात्र रहते वो कभी मंच से अपनी कविताओं का वाचन नहीं कर सके। 1999 के चाट सम्मेलन की एक मजेदार बात यह भी है कि सभी छात्र-छात्रा चाट महानुभावों को सुन और देखकर आनंदित हो रहे थे। लेकिन सैंकड़ों की भीड़ (जो बढ़ते-बढ़ते अब हजारों मेें लगती है) में मुख्य अतिथि अग्रवाल सर का चेहरा क्रोध से फटा जान पड़ता था। सम्मेलन की समाप्ति पर उन्होंने छात्रों के लिए दो शब्द में ढ़ेरों उपदेश दिए थे। सतलज छात्रावास के वार्डेन और भारतीय भाषा केन्द्र में लैक्चरर होने के बाद भी उन्हें देर तक देखने की तमन्ना एन.डी.टी.वी. पर ही पूरी होती थी। संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य मनोनित होने के बाद यह अवसर भी जाता रहा है।

चाट सम्मेलन का आने वाले दिनों में इतना विस्तार हुआ कि यह आयोजन चाट सम्मेलन से चाट महासम्मेलन कहा जाने लगा। इसका आयोजन झलेम हाॅस्टल के मेस से बाहर बैडमिन्टन कोर्ट पर होने लगा। 2004-05 में जब मैं हाॅस्टल प्रसीडेन्ट था, उस वर्ष इसका आयोजन हाॅस्टल के अन्दर अवस्थित उस गड्ढे़ में हुआ जिसकी गड्ढ़े के रूप में कोई उपयोगिता नहीं थी। इसी वर्ष इस गड्ढे़ को चाटलीला मैदान कहा गया। इसी वर्ष पहली बार झेलम चाट महासम्मेलन का मीडिया वालों ने लाइव कवरेज भी किया। बहरहाल झेलम मेस और बैडमिन्टन कोर्ट से होता हुआ यह महासम्मेलन झेलम लाॅन तक पहुंच चुका है। जे.एन.यू. में इस तरह के आयोजन की सफलता यही है कि यह आयोजन देश के किसी भी हिस्से में होने वाले होली की हुड़दंग से अलग होता है। किसी पर व्यक्तिगत छींटाकशी से दूर यह महासम्मेलन हास्य के गुब्बारों में संवेदना के इन्द्रधनुषीय रंग लिए होता है।

संप्रति मैं जे.एन.यू. के फिल्टर वाटर और झेलम के स्वादिष्ट भोजन से दूर पूर्वांचल के गाज़ीपुर जिला के ग्रामीण क्षेत्र में बाल हृदय की गहराइयों को समझने की कोशिश कर रहा हूँ। जे.एन.यू. से भौगोलिक दूरी है जरूर लेकिन खुशी और सन्तुष्टि इस बात की है कि जे.एन.यू. के अनुभव पग-पग पर काम आते हैं। फेसबुक पर जब गंगा के माध्यम से अपने अनुभव लिखने की सूचना मिली तो यादें ताज़ा हो उठीं। अब जबकि यादों को शब्दों और वाक्यों के माध्यम से लिखने की कोशिश कर रहा हूँ तो ऐसा महसूस कर रहा हूँ कि ढे़र सारे चट्टान, चट्टानों पर स्थित ढ़ाबे, ओपेन थिएटर, कटीली झाड़ियों वाले पेड़-पौधे विशेषकर अमलताश के फूल, सतलज से काॅवेरी के बीच के अजीब खुशबू वाले वृक्ष, ढे़रों पगडंडियां और लाल रंग की इमारतें और इन पगडंडियों तथा इमारतों में घूमते फिरते प्रगतिशील विचारों की श्रृंखला, टीचर्स का दोस्ताना व्यवहार, 9.30 बजे की गंगा ढ़ाबा से ताप्ती तक के जुलूस, थेसिस जमा करने का प्रेसर और हिलटाॅप की चढ़ाई, 615 से मुनिरका, बेर सराय, वसंत विहार और सरोजनी मार्केट की यात्रा वगैरह चित्र यहीं कहीं आस-पास ही बिखरे हैं। ये चित्र मुझे एक विश्वविद्यालय की भौगोलिक अवस्थिति और शिक्षण व्यवस्था की तस्वीर नहीं दिखाते बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था का दर्शन कराते हैं।

Alumni Association of JNU AAJ 2010 में प्रकाशित यह आलेख जे.एन.यू. की वेबसाइट पर (पेज नम्बर ६९ - ७६) भी जिसका लिंक http://www.jnu.ac.in/AAJ/souvenir2010.pdf  है, को क्लिक करके पढ़ा जा सकता है.

Friday, February 10, 2012

समतामूलक समाज के सापेक्ष सम्मान की लड़ाई


सामाजिक अन्याय के खिलाफ लड़ाई नयी नहीं है। सामाजिक न्याय की दिशा में पहली बार छठीं शताब्दी ई॰पू॰ में बुद्ध और जैन धर्मों की तरफ से पहल की गयी। मध्यकालीन भारत में भी भक्ति और सूफी आंदोलनों के रूप में समानता के लिए आंदोलन चला। कबीर और नानक जैसे महान समाज सुधारकों ने इसी युग में जन्म लिया। जहां तक आधुनिक भारत में सम्मान और समानता का प्रश्न है तो ज्योतिबा फुले से लेकर डा॰ बी.आर. अंबेडकर तक यह कारवां आगे बढ़ा। 1947 में आजादी और उसके बाद 1950 में संविधान का लागू होना आधुनिक भारतीय इतिहास में एक लैण्डमार्क है कि कम से कम कानून इन तिथियों के बाद जाति, नस्ल, लिंग, धर्म, क्षेत्र और समुदाय के आधार पर किसी नागरिक के साथ न तो भेदभाव किया जाएगा और न ही शोषण होगा। इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कि अछूत समझा जाने वाला तबका विकास के मुख्य धारा में शामिल हो सके, राष्ट्रपति के विशेष अध्यादेश से आरक्षण की व्यवस्था की गयी। मण्डल के दौर में आरक्षण पर नए सिरे से बहस भी शुरू हुई। ओ.बी.सी. में क्रिमीलेयर के प्रावधान के अनुरूप अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था में भी इस प्रावधान की हिमायत की गयी। इक्कीसवीं सदी में प्रवेश के साथ ही आरक्षण की नीति पर भी बहस के नए द्वार खुले। जैसे निजी क्षेत्र में आरक्षण को लागू करना, महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण, पसमांदा मुसलमानों के लिए सामाजिक स्टेटस के अनुकूल आरक्षण वगैरह।
आरक्षण के विरोधियों ने हर मोड़ पर अपनी आवाज़ बुलंद की। लेकिन सत्य यही है कि भेदभाव और शोषण पर आधारित  समाजिक व्यवस्था अभी भी मजबूत है। इस व्यवस्था का चरित्र भी अजीब है, जब जाहे, जहां चाहे और जैसे चाहे खुद को समायोजित कर लेती है। नब्बे के दशक में मण्डल कमीशन की अनुशंसाओं का लागू होना ऐसे ही प्रयासों और सामाजिक न्याय के लिए संघर्षरत्त पिछड़े लोगों की उपलब्धि थी। कम से कम शिक्षा और नौकरियों में अवसर के नए द्वार खुले। पिछड़ी जाति के लोगों को मुख्य धारा में शामिल होने का अवसर मिला। मण्डल कमीशन के अन्तर्गत लागू आरक्षण की व्यवस्था का साकारात्मक परिणाम व्यवहार में दिखाई देने लगा। लेकिन सामाजिक न्याय की राह में यह अन्तिम पड़ाव नहीं था। समय का चक्र घूमता रहा। विरोध-प्रदर्शन का लम्बा दौर चला। लेकिन पूर्व प्रधानपंत्री वी.पी. सिंह को याद करते हुए कहना पड़ रहा है कि उन्होंने जो किया वो इतिहास का एक अतिमहत्वपूर्ण फैसला था। पिछले बीस वर्षों में आरक्षण के माध्यम से अपनी हिस्सेदारी और हक प्राप्त करने वालों ने मेरिट के मिथ को धता-बता दिया है। फिर भी जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों में पिछड़ी और दलित जातियों के लोगों के साथ भेदभाव बदस्तूर जारी है। मीडिया का हस्तक्षेप बढ़ने से घटनाएं प्रकाश में तो आ जा रही हैं। लेकिन सम्मान को ठेस पहुंचाने के कायदे और कानून शायद अभी भी संविधान से ऊपर हैं। ये कानून अदृश्य और अप्रतयक्ष हैं। ऐसे कानूनों से पार पाना कोई मामूली बात नहीं। यदि होता तो अभी हाल-फिलहाल में राजधानी की दो प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में ओ.बी.सी आरक्षण को लेकर बहस नहीं होती।
आरक्षण के पीछे मूल भावना “सम्मान” का रहा है। क्योंकि भेदभाव के ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ को वर्तमान से अलग नहीं किया जा सकता। इतिहास का अवलोकन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक भेदभाव के मानक दैवीय या अलौकिक नहीं हैं बल्कि इन्हें मनुष्यों ने ही स्थापित किया है। इतिहास का थोड़ा भी ज्ञान रखने वाला व्यक्ति जानता है कि मनुस्मृति जैसी किताबों के सहारे भेदभाव को संस्थागत रूप प्रदान किया गया। इससे इतर कुछ संस्थाएं ऐसी भी खड़ी की गयीं जो बिल्कुल अप्रत्यक्ष और अदृश्य थीं। विकास के कालक्रम में ये संस्थाएं जिनकी मान्यता नहीं हैं अभी भी आस्तित्व में हैं। ध्यान दिलाना चाहता हूँ उन गालियां की तरफ जो समाज के पिछड़े और दलित तबके का केन्द्र में रखकर बनायी गयीं और जो आज भी हमारे सामाजिक जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। अपने गांव-मोहल्ले में चलते-फिरते लोगों का गुस्सा जब गालियों के माध्यम से व्यक्त होता है तो इनमें महिलाएं और पिछड़े-दलित ही निशाने पर होते हैं। उदाहरण भी प्रस्तुत कर देता हूँ। स्कूल के दिनों में जब बच्चे आपस में एक दूसरे स मजाक करते थे या चिढ़ाते थे तो प्रेम पूर्वक कही गयी कुछ बातें और उन बातों का निहितार्थ अब समझ में आता है। जैसे- “अहिर-बहिर बम्बोकड़ा क लासा, अहिरा पदलस भइल तमाशा।” यह गाली मजाक लगती है लेकिन किसी पिछड़े के मनोबल को बाल्यावस्था में ही तोड़ने के लिए काफी है। “चोरी-चमारी” में चोरी शब्द समझ में आता है लेकिन “चमारी” का अर्थ विचारणीय है। इसी तरह बात-बात में प्रगतिशील लोगों के मुंह से भी सुना जा सकता है “डोम हउव का” या फिर “जोलहा-जपाटी” और “धुनिया” वगैरह। ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसी गालियां पिछड़ों, दलितों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों को लक्ष्य करके किसी साजिश के तहत व्यवहार में लायी गयीं।
बहरहाल आज़ादी के बाद से लेकर अबतक सम्मान के इस संघर्ष में यदि वी.पी. सिंह जैसे कुछ लोगों को छोड़ दिया जाए तो आरक्षण विरोधियों को ऐसा लगता है कि आरक्षण से उनका हिस्सा मारा जा रहा है। कहना नहीं है कि प्रोफेशनल कोर्सेज के दौर में नयी पीढ़ी के बच्चों की सोच भी प्रोफेशनल बनती जा रही है। कहा जाता है कि हर आने वाली पीढ़ी अपने पूर्वजों से एक कदम आगे झंडा फहराती है। लेकिन सामाजिक विकास के सूचकांक पर देखा जाय तो आरक्षण विरोधियों ने अपने पूर्वजों से पीछे ही झंडा फहराया है। 2006-07 में एम्स के तथाकथित मेरिटोरियस डाॅक्टरों को जिन्होंने हिप्पोक्रेटिक शपथ को भी तिलांजली दे दी थी और आरक्षण विरोध की जंग में शामिल हो गये थे। गौर करने की बात यह है कि समान्यतः साइंस स्ट्रीम के छात्र-छात्रा जनआंदोलनों का हिस्सा बनते कभी-कभार ही देखा गया है। लेकिन जब आरक्षण की बात होती है तो ये मरीजों को मरता छोड़ आंदोलन में शामिल हो जाते हैं। इनका कहना है कि आरक्षण से अयोग्य डाॅक्टर बन जाएंगे। ध्यान देने की बात है कि पहले से सामाजिक रूप से सशक्त परिवारों से संबंध रखने वाले बच्चे जब प्राइवेट मेडिकल या इंजीनियरिंग कालेजों में कैपीटेशन की बड़ी रकम अदा करके डाॅक्टर या इंजीनियर बन जाते हैं तो उस समय इनका विरोध न जाने कहां चला जाता है।
पिछले दिनों मैं मऊ जा रहा था। ट्रेन में कुछ छात्रों से मुलाकात हुई। बातों का दौर शुरू हुआ। बात शिक्षा, नौकरी से होते हुए आरक्षण तक आ पहुंची। लड़कों की तारीफ करना चाहूंगा। बहुत भोले और शिष्ट थे। लेकिन आरक्षण के सवाल पर उनका यू टर्न लेना मेरे लिए हतप्रभ होने का विषय नहीं था। क्योंकि यह मेरे लिए कोई नया अनुभव नहीं था। कहना चाहता हूं कि उदारीकरण के इस दौर में बच्चों की पूरी परवरिश आधुनिकता के दायरे में हो रही है लेकिन सम्मान देने और लेने का संस्कार पीढि़यों पुरानी है। कहा जाता है कि पूंजीवाद मनुष्य को दकियानूसी सामाजिक मूल्यों और परंपराओं की जकड़ से मुक्त करता है। लेकिन यहां तो मामला ही अलग है। 2008 मे 27 नवम्बर को जिस दिन वी.पी. सिंह का निधन हुआ था उससे एक दिन पहले मुम्बई का बम हादसा हो गया था। पिछड़ों को सामाजिक समानता की सौगात देने वाले इस व्यक्ति का कद छोटा होते हम सबने देखा था। चलिए मान लेते हैं टी.आर.पी मीडिया के लिए ब्रेकिंग न्यूज जरूरी है। लेकिन 2009 और 2010 में इस तिथि को तो कहीं कोई बम विस्फोट नहीं हुआ था। फिर वी.पी. सिंह के योगदानों को मीडिया में प्रखुता से क्यों नहीं प्रस्तुत किया गया। जाहिर है निवेश और मुनाफे के सिद्धांतों पर खड़े बड़े-बड़े मीडिया घरानों में भी ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से वर्चस्व प्रधान लोगों का ही प्रभाव है। इस बात को अगस्त माह के भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन से भी जोड़कर देखा जा सकता है। मीडिया का पूंजीवादी और दलित-पिछड़ा विरोधी चरित्र उजागर हो जाता है। एक अन्ना जो भ्रष्टाचार जैसी गंभीर समस्या के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे, तो अधिकतर समय उनके आंदोलन, अनशन और स्वास्थ्य वगैरह समाचार और चर्चा-परिचर्चा का विषय बने हुए थे। देखा जाए तो अन्ना को अभी जन लोकपाल जैसा कोई कानून पास करवाना है। दूसरी तरफ आज से लगभग दो दशक पहले वी.पी. सिंह ने मण्डल को पास करवाया था और लागू भी करवाया था। जिससे शैक्षिक और सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को मुख्य धारा में शामिल होने का अवसर मिला। लेकिन मीडिया के लिए इंसान का परिमाणात्मक दुःख-दर्द कोई मायने नहीं रखती। आज की बाजार परस्त मीडिया के लिए मनुष्य का मनुष्य के साथ भेदभाव कोई मुद्दा नहीं है। इसीलिए संदेह होता है कि मीडिया का चरित्र पूंजीवादी होने के साथ-साथ ब्राम्हणवादी भी है। कहना पड़ रहा है कि सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालयों के गठन से काम नहीं चलने वाला है। सरकार ने जिस तरह से अन्ना के खिलाफ इच्छा शक्ति का प्रदर्शन किया या जिस तरह घुटने टेके। ठीक उसी तरह हर क्षेत्र में ब्राम्हणवादी व्यवस्था के प्रच्छन्न प्रभावों को समाप्त करने के लिए इच्छा शक्ति दिखाए तो कोई बात बने। वरना सामाजिक न्याय के नाम पर अन्याय करने वाले बहरूपियों का बोलबाला यूं ही बना रहेगा।
इस लेख के माध्यम से इस ओर भी ध्यान दिलाना चाहता हूं कि कोई भी समाज तभी आगे बढ़ा है जब उस समाज के अन्दर से नेतृत्व उभरा है। ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से पिछड़े और वंचित तबकों की एक कमजोरी रही है वह अपने नेतृत्व को स्वीकारने के बजाय धन, बल और छल के नेतृत्व को सहजता से स्वीकार कर लेता है। उदाहरण के तौर पर पंचायत चुनाओं में जो सीट महिलाओं के लिए या दलितों के लिए सुरक्षित होते हैं वहां महिलाओं के पीछे उनके पति खड़े रहते हैं और पतियों के सर पर किसी सम्पन्न-सम्भ्रांत का हाथ होता है। यानि सशक्तिकरण और सम्मान घूम फिर कर पहले की तरह सम्भ्रांतों के चैखट पर ही पहुंच जाते हैं। ऐसे किसी भी क्षेत्र का दौरा किया जाए तो स्थितियां कमोबेश ऐसी ही मिलेंगी।
अब समय आ चुका है कि मौजूदा दौर में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हो रही प्रगति से कदमताल करते हुए गांव-मोहल्ले, स्कूल-काॅलेज और नौकरियों के प्रतिष्ठानों से लेकर सार्वजनिक जीवन के हर उस स्थान पर अदृश्य रूप में होने वाले भेदभाव की पड़ताल की जाए। सड़क से लेकर संसद तक बौद्धिक परिपक्वता के साथ यह बात बताई जाए कि आरक्षण का संबंध नौकरियां प्राप्त करना नहीं बल्कि समतामूलक व्यवस्था के सापेक्ष सम्मान प्राप्त करने का अबतक का सबसे बेहतर उपाय है। सम्मान की लड़ाई अभी अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंची पायी है। पिछड़ों-दलितों ने संवैधानिक रूप से एक सोपान जरूर तय किया है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति भी दर्ज की है। लेकिन अभी भी पाने को बहुत कुछ बाकी है।

ओ.बी.सी. आरक्षण की समीक्षा के बजाए 4.5 प्रतिशत कोटा अतार्किक

पिछले कुछ दिनों से मुस्लिम आरक्षण पर बहस तेज है। सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सभी दल यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि इनमें मुसलमानों का कौन कितना बड़ा हमदर्द है। 4.5 प्रतिशत अल्पसंख्यक कोटा के माध्यम से 64 बरस के आजाद भारत के इतिहास में नया अध्याय जोड़ने की कोशिशें जारी हैं। कैबिनेट के इस फैसले को कुछ लोग देश बांटने वाला, कुछ लोग मुस्लिम ध्रुवीकरण, कुछ लोग विशेषकर मुसलमानों के पिछड़ेपन को दूर करने वाला और कुछ लोग पिछड़ों को बांटने वाला फैसला बता रहे हैं। सवाल यह भी है कि 27 प्रतिशत ओ.बी.सी. आरक्षण के अन्दर 4.5 प्रतिशत अल्पसंख्यक कोटा निर्धारित करने वाले फैसले के पीछे कहीं केन्द्र सरकार की सोची समझी चुनावी रणनीति तो नहीं है? मुख्य धारा की पार्टियों से तो ऐसे सवालों की गुंजाइश बनती ही है कि पिछले 64 बरसों में नहीं तो कम से कम मण्डल लागू होने के 18 बरसों के शैक्षिक-सामाजिक विकास के बाद केन्द्र सरकार का इस नतीजे पर पहुंचना क्या तार्किक है? यदि पिछले 18 बरसों की बात करें तो यह सवाल उन छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियों पर भी समान रूप से लागू होता है, जिन्हें दलित-पिछड़ा आंदोलनों के राजनीतिक नेतृत्व का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गौर तलब है कि संवैधानिक प्राविधान और दलित-पिछड़ा आंदोलन में उभार के बाद भी ओ.बी.सी. में शामिल अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों को आरक्षण का लाभ क्यों नहीं मिला। ऐसे में विचार जरूरी है कि अल्पसंख्यक आरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए पिछले दो दशक की उपलब्धियों की समीक्षा की जाए या 4.5 प्रतिशत अलग को कोटे का प्राविधान किया जाए।
ग़ौर तलब है कि इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई में दलित-पिछड़ा की शब्दावली में एक नए शब्द “पसमांदा” की वृद्धि हुई। हालांकि कि इसके प्रयास बीसवी सदी के अन्तिम दशक में ही शुरू हो चुके थे। इसका पूरा श्रेय ‘‘मसावात की जंग’’ नामक किताब के लेखक अली अनवर को है। यह किताब मूलतः बिहार के पसमांदा मुसलमानों की शैक्षिक-सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक संस्थाओं में प्रतिनिधित्व का शोधपरक चित्र प्रस्तुत करता है। यह किताब देश भर में मुस्लिम समाज में व्याप्त सामाजिक अन्याय और भेदभाव के चरित्र को उजागर करता है। यद्यपि पहले से ही मुस्लिम समाज में जाति स्तरीकरण पर प्रो॰ इम्तियाज़ अहमद जैसे समाज विज्ञानियों के महत्वपूर्ण शोध उपलब्ध हैं। लेकिन ऐसे अध्ययनों को आंदोलन का रूप देने में ‘‘मसावात की जंग’’ का उल्लेखनीय योगदान रहा है। ‘‘मसावात की जंग’’ ने सामाजिक आंदोलन तो खड़ा किया लेकिन अफसोस कि अभी तक यह आंदोलन अपने राजनीतिक लक्ष्यों तक पहुंच नहीं सका।
बहरहाल “मसावात की जंग” (2001) और सच्चर कमेटी की रिपोर्ट (2005) और सामाजिक स्तरीकरण के इतिहास से इस बात को बल मिलता है कि अन्य समाजों की तरह मुसलमानों में भी जाति व्यवस्था का प्रभाव रहा है। पसमांदा मुसलमानों के 75 से 80 प्रतिशत हिस्से को समाज और देश में कभी उचित सम्मान नहीं मिला। यही कारण है कि पसमांदा मुसलमानों को मण्डल कमीशन की संस्तुतियों में ओ.बी.सी. के अन्तर्गत अधिसूचित किया गया। मण्डल और उसके बाद की परिस्थितियों में पसमांदा मुसलमान कम से कम सर उठाने की स्थिति में आया है और अपने अधिकारों के प्रति सचेत होने की प्रक्रिया में है, लेकिन उन्हें आरक्षण का लाभ उस अनुपात में आज तक नहीं मिल सका। मुमकिन है सरकार इस बात से वाकिफ हो और इसी पृष्ठभूमि में 4.5 प्रतिशत कोटे को मंजूरी दी गयी हो। लेकिन सरकार का संदर्भ 1992 के राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग एक्ट की धारा 2 (सी) का है, न कि शैक्षिक और सामाजिक रूप से पिछड़े मुसलमानों या अन्य अल्पसंख्यकों का। सवाल लाजमी है कि पिछड़े मुसलमान जो एक सामान्य भारतीय नागरिक के तौर पर जब 18 बरसों में मण्डल के अन्तर्गत लाभान्वित नहीं हो सके तो चुनावी पिटारे से निकलने वाले 4.5 प्रतिशत कोटे के अन्दर कोटे से कैसे लाभान्वित होंगे। मुस्लिम समाज के जाति स्तरीकरण को देखा जाए तो इस कोटे के माध्यम से पिछड़ेपन की वंचना सहने वाले पिछड़ों और अगड़ेपन के आकंठ में डूबे संभ्रांतों को एक ही पंिक्त में लाकर खड़ा कर देना कहां तक उचित है?
आरक्षण की पृष्ठभूमि, नीति और राजनीति के संदर्भ में यह समय समीक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण हो सकता है। इसलिए कि विश्लेषण और समीक्षा के बाद उन कारणों का पता चल सकता है कि मण्डल कमीशन लागू होने के बाद मुस्लिम ही नहीं बल्कि हिन्दू पिछड़ी जातियों को भी आरक्षण का पूरा-पूरा लाभ क्यों नहीं मिला? यह भी कि केन्द्र और राज्य की नौकरियों में खाली पड़ी ओ.बी.सी. की सीटों को समय रहते क्यों नहीं भरा जा सका।
उक्त बातें अल्पसंख्यक आरक्षण से संबंधित सरकार की मंशा को संशय के घेरे में ले आती है। यदि राजनीतिक रूप से देखा जाए तो इस फैसले से पिछड़े समाजों में लोकतंत्रीकरण की जो प्रक्रिया चल रही है वह कमजोर हो सकती है। क्योंकि जाति विन्यास में “जिसकी लाठी/उसकी भैंस” वाले अल्पसंख्यक समुदाय के लोग भी 27 प्रतिशत में शामिल कर लिए गए हैं। सर्वाधिक लाभ उन लोगों को मिलने की संभावना है जो पहले से ही संभ्रांत और समृद्ध हैं। खासकर वे लोग जो आरक्षण की मूल भावना और सिद्धान्त का आरम्भ से ही विरोध करते आए हैं। ऐसे में कोटे के अन्दर 4.5 प्रतिशत कोटा का टोटा जातीय दम्भ और सामंती वर्चस्व के दावानल में अल्पसंख्यक पिछड़ों को कुछ और सदियों तक जलाता रहेगा। मेरा मानना है कि आरक्षण की लड़ाई महज शिक्षा और नौकरी की लड़ाई नहीं है। यह लड़ाई समतामूलक समाज के निर्माण और सम्मान की लड़ाई है। इसे इसी रूप में देखा जाना चाहिए।