Monday, May 7, 2012

मन के विज्ञान से हताहत होती बेटियां


पिछले माह बंगलोर की आफरीन के साथ जो कुछ हुआ उससे एक बार फिर साफ हो गया है कि अग्नि 5 तक का सफर तय कर चुका हमारा देश सामाजिक जीवन में लैंगिक भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में अभी बहुत पीछे है। कहने को शिक्षा और साक्षरता निरन्तर बढ़ रही है। फिर भी बच्चियों, बेटियों और महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। तीन माह की आफरीन की मृत्यु ऐसी ही भेदभाव जनित घटनाओं की एक कड़ी है। ऐसी घटनाओं का विरोध, निन्दा और लिंगभेद से जुड़े कारकों पर विद्वता पूर्वक बहस भी होती है। लेकिन सबकुछ के बाद आए दिन होने वाली घटनाएं कहीं न कहीं सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में लिंगभेद के खिलाफ होने वाली कोशिशों की नाकामी की ओर इशारा करते हैं। यही वजह है कि लिंगभेद को जन्म देने वाले कारकों पर बार-बार ध्यान जाता है। बेटियों के प्रति मौजूदा दौर में बढ़ती हिंसात्मक घटनाओं के मद्दे नज़र ज़रूरी हो जाता है कि लिंगभेद के कारणों पर नए सिरे से गौर किया जाए, कि आखिर किन परिस्थितियों में मानव मन में लिंगभेद की इच्छाएं आकार लेती हैं और देखते-देखते किसी आफरीन या फलक को मौत के दहाने पर पहुंचा देती हैं।

इतिहास का अवलोकन किया जाए तो प्राचीन काल में अपाला, घोषा और लोपा जैसी विदुषी महिलाओं का उल्लेख आता है। सल्तनत काल में रजिया सुल्ताना और फिर मुगल काल में नूरजहां, अरजुमंद बानो बेगम जैसी महिलाओं ने राजनीति और साहित्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भक्ति आंदोलन के दौरान साध्वी महिलाएं भी हुयीं। 19वीं-20वीं सदी से होते हुए अब 21वीं सदी में सामाजिक जीवन में महिलाओं की भूमिका में एक बार फिर बदलाव देखा जा सकता है। यह सिलसिला महिला सशक्तिकरण से भी जुड़ता है। लेकिन फलक और आफरीन के केस से स्पष्ट है कि बेटियों के खिलाफ समाज का रवैय्या अभी भी सख्त है। बदलाव सिर्फ स्वरूप में हुआ है। पुराने ज़माने में बच्चियों को जिंदा दफनाने के उदाहरण मिलते हैं तो मौजूदा वैज्ञानिक दौर में वैज्ञानिक तकनीक का प्रयोग कर बच्चियों को गर्भ में मारने की घटनाएं हो रही हैं। कहना नहीं है कि जहां गुरबत का साया होता है वहां बच्चियों को लावारिश छोड़ने या फिर क्रूरता पूर्वक पिटाई या अन्य तरह की पाबन्दियां सामान्य बातें होती हैं। फलक और आफरीन दर असल समाज के उन परिवारों से थीं जो धार्मिक और आर्थिक रूप से भ्रूण परिक्षण नहीं करवा सकते थे। यह बात परिकल्पनात्मक ज़रूर है लेकिन सत्य से दूर नहीं है। यदि ये बच्चियां किसी रईस परिवार की किसी महिला की कोख में रही होतीं या उमर फारूक खुद कोई रईस होता तो शायद उसकी पुत्र प्राप्ति की इच्छा के चलते आफरीन जैसी बच्ची की भ्रूण में ही हत्या की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। जैसा कि अन्य बहुत से मामलों में हो रहा है।

बहरहाल बात करते हैं उन कारणों की जिनके चलते बेटियों का जीवन असुरक्षित है। कुछ लोग अल्ट्रासाउण्ड सोनाग्राफी मशीनों को तो कुछ लोग व्यक्ति विशेष को जिम्मेदार मानते हैं। यदि आफरीन के केस की बात करें तो उसकी मौत की असल वजह उसके पिता उमर फाररूक की पुत्र प्राप्ति की चाह थी। पहली नज़र में उसके पिता उमर फारूक को गुनहगार माना जाना अपनी जगह सर्वथा उचित है। उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही और सजा भी उचित है।ऐसी सजा, जो समाज के शेष लोगों के लिए न भूलने वाली नज़ीर बन जाए। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती क्योंकि यह मामला लिंगभेद का भी है और सिर्फ एक उमर फारूक को जेल भेजने भर से लिंगभेद की समस्या का स्थाई समाधान नहीं होने वाला। क्योंकि उमर फारूक जैसे व्यक्तियों को गुनहगार बनाने वाले कारक कहीं न कहीं किसी स्रोत से पैदा होते हैं और समय-समय पर उमर फारूक जैसे व्यक्तियों के मन का विज्ञान बनाते हैं। इसलिए इस पक्ष पर ध्यान दिए बगैर ऐसे मामलों में किसी अन्तिम निष्कर्ष पर पहुंचना तार्किक नहीं है। विशेषकर ऐसे में जब पुत्र प्राप्ति के लिए प्रेरित करने वाले कारक अदृश्य और अप्रत्यक्ष हों और जिन्हें कानूनन सबूत के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता हो। दरअसल उमर फारूक जैसे व्यक्ति भी तो इसी समाज के पैदावार हैं। स्त्रीवादी व्याख्या के अनुसार पुरूष सत्ता के केन्द्र से ही लिंगभेद का प्रत्यक्ष और परोक्ष संचालन होता है। फिर भी हमें देखना होगा कि इस सत्ता के केन्द्र को पोषण कहां से प्राप्त होता है? इसलिए कानूनी कार्यवाही के साथ-साथ सामाजिक कार्यवाही भी ज़रूरी हो जाता है। मेरा मतलब समाजिक कार्यवाही के नाम पर खाप पंचायत जैसी किसी संस्था या संगठन से नहीं है। बल्कि व्यापक सामाजिक संदर्भों में उन परिस्थितियों के गहन अध्ययन से है जिनके चलते कभी गर्भ में ही बच्चियों का गला घोंट दिया जाता है तो कभी तीन माह की बच्चियों की हत्या होती है या फिर तीन साल की बच्चियों का बलात्कार और फिर हत्या होती है।

असुरक्षा और खौफ हमारे सामाजिक संरचना के खास तत्व हैं। बेटियों को शुरू से ही सार्वजनिक स्थलों और क्रियाकलापों से अलग रखने के पीछे सबसे बड़ा कारण असुरक्षा और खौफ का वातावरण ही है। यह कारण पारिवारिक से अधिक सामाजिक इसलिए है क्योंकि जो लड़की परिवार में एक ही छत के नीचेे सुरक्षित रहती है, घर से बाहर निकलते ही पग-पग पर उसे असुरक्षा का सामना करना पड़ता है। इसी तरह परिवार में जिन लड़कों का घर की महिलाओं के प्रति व्यवहार अच्छा होता है, वो घर से बाहर निकलते ही अपने सामाजिक दायित्वों से मुक्त हो जाते हैं। इसके पीछे एक बड़ी वजह है समाज का व्यक्ति केन्द्रीत सोच है। मौजूदा दौर में विकास के जो माॅडल स्थापित हुए हैं उसमें व्यक्ति, परिवार और समाज की कल्पना “मैं” तक सिमट कर रह गयी है। ऐसे में सामाजिक स्तर पर संवेदनाओं का टूटना-बिखरना स्वाभाविक है। ऐसे में कोई भी गंभीर घटना सिर्फ भुक्तभोगी परिवार के लिए ही दुःख का कारण बनता है। शेष सामाजिक प्राणियों को न तो कोई हमदर्दी होती है और न ही कोई संवेदना। गौरतलब है कि व्यक्तिवादी सोच को बढ़ाने में नई आर्थिक सुधार और इससे जनित उपभोक्तावादी संस्कृति की अहम भूमिका रही है।

ज़ाहिर है संवेदनाएं टूट रही हैं, असुरक्षा बढ़ रही है। शायद इसकी वजह भी पुरूष सत्ता के केन्द्र में ही है। वरना कैसे संभव है कि जो व्यक्ति अपने घर में उचित व्यवहार करता है, वही व्यक्ति घर से बाहर निकलते ही बेलगाम कैसे हो जाता है? व्यक्ति का सामाजिक ताने-बाने में बेलगााम होना ही पुरूष सत्ता को मजबूत करता है। जहां से अन्य व्यक्ति भय और भविष्य की असुरक्षा प्राप्त करते हैं। असुरक्षा की बलवती होने वाली यह भावना ही पुत्र प्राप्ति की चाह को बढ़ाता है। ऐसी स्थिति में खानदान का चिराग, बुढ़ापे का सहारा, परिवार का रक्षक आदि पुरातन मान्यताएं और मजबूत होती हैं। फिर कोई अनपढ़-गंवार हो या पढ़ा-लिखा संभ्रांत दोनों ही बेटियों को दोयम दर्जे की सन्तान मानने की गलती करते हैं। यह मानना ही माता-पिता के मन में बेटियों के प्रति दोहरे व्यवहार का मनोविज्ञान तैयार करता है। जिसके परिणाम भू्रण हत्या से लेकर बलात्कार जैसी घटनाओं के रूप में सामने आता है।

उक्त संदर्भ में उचित यही है कि असुरक्षा को कम करने के लिए सुरक्षा के उपबंध करने के बजाए असुरक्षा को जन्म देने वाले सामाजिक कारकों पर चोट किया जाए। यह किसी एक का दायित्व नहीं है। इस कार्य को करने में व्यक्ति-व्यक्ति की अपनी भूमिका है। सुविधाभोग के नाम पर यदि व्यक्ति इस भूमिका से और अधिक विमुख होगा तो इसका खमियाजा भी उसे भुगतना होगा। खासकर ऐसे समय में जबकि उत्तर प्रदेश सहित देश के अन्य कई राज्यों में बाल लिंगानुपात में गिरावट दर्ज की गयी हो और संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून अपने भारत दौरे के अवसर पर मुम्बई में बाल लिंगानुपात और शिशु मृत्युदर पर चिंता व्यक्त कर रहे हों, तो ज़रूरी हो जाता है कि मौजूदा दौर की सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक परिस्थितियों में लिंगभेद को समाप्त करने के लिए जनमानस की संवेदनाओं को जगाया जाए। वरना उपभोक्तावाद की राह पर तीव्र गति से आगे बढ़ते समाज के पास पछताने के लिए कुछ भी नहीं बचेगा।

७ मई २०१२, कैनविज़ टाईम्स, लखनऊ

1 comment:

  1. hamein behad khushi hoti hai ki ham logon mein se kam se kam ek aadmi to samaj sewa kar raha hai. lage raho, is ka phal zaroor milega

    ReplyDelete