Saturday, July 25, 2020

लाॅकडाउन और बुनकर मज़दूरों का अर्थशास्त्र

नोटः
यह लेख उत्तर प्रदेश के जिला गाजीपुर स्थित रसूलपुर गांव के पुराने अनुभवों और लाॅकडाउन के दौरान क्रमशः 12, 13 और 15 मई 2020 को बुनकर मजदूर मेराज अंसारी से हुई विशेष बातचीत पर आधारित है।
यह लेख एक पत्रिका में प्रकाशित होना था। लेकिन लाॅकडाउन के कारण अब तक पत्रिका प्रकाशित नहीं हो सका है। आज सुबह फेसबुक, व्हाट्सअप और ट्वीटर पर बनारस के एक बुनकर की आत्महत्या की ख़बरें प्राप्त हुईं। बुनकरों के जीवन को नज़दीक से देखना पहले से ही मन को दुःखित करता रहा है। यह लेख बुनकरों की ज़िन्दगी और कारोबार से जुड़े अब तक  के अनुभवों  के लेखकीय अभिव्यक्ति का ही हिस्सा है। पुराने प्रकाशित लेख भी आप तक पहुंचाने की कोशिश रहेगी। क्योंकि पहले से ही अपने परंपरागत व्यवसाय को बचाने और आजीविका अर्जित करने की चुनौतियों से जूझ रहे बुनकरों के लिए मौजूदा स्थिति त्रासद और भयावह है। 


“गेंहू, चावल तो राशन से मिल रहा है। लेकिन साग-सब्जी खरीदने के लिए पैसा चाहिए। तबियत खराब हो जाए, तो इलाज के लिए पैसे चाहिए। गांव में सरकारी डाॅक्टर नहीं हैं। स्वास्थ्य सुविधा के नाम पर गांव में आंगनवाड़ी कार्यकतृी हैं। उनका काम दो बूंद जिन्दगी तक सीमित है। लाॅकडाउन में यह काम भी बंद है। गांव वालों के लिए स्वास्थ्य केन्द्र का नाम बताना बड़ी चुनौती है। लाॅकडाउन में गांव वालों के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं बिल्कुल ही नदारद है। गांव वालों का इलाज पहले ही प्राइवेट डाॅक्टरों के भरोसे रहा है। आपात परिस्थिति में अगर ये डाॅक्टर, गांव से हट जाएं या सुई-दवाई बंद कर दें, तो गांव वालों को प्राथमिक उपचार से वंचित होना पडे़गा।” ये कहना है भारत के एक गांव के बुनकर मज़दूर मेराज अंसारी का। मेराज अंसारी जवानी में ही वृद्ध दिखते हैं। हथकरघा का चलना ही इनके घर-परिवार का चलना है। हथकरघा का इतिहास कबीर से भी पुराना है। हथकरघा के ताने-बाने पर दुनिया के बेहतरीन कपड़े तैयार होते रहे हैं। पिछले लगभग तीन दशकों में बड़ी संख्या में पावरलूम ( बिजली चालित करघा ) ने हथकरघा का स्थान लिया है। लेकिन मेराज अंसारी जैसे बुनकर अभी भी हथकरघा ही चलाते हैं। इस काम में इनका पूरा परिवार (बच्चे, बड़े, बूढ़े और महिलाएं सभी) सहायक की तरह शामिल है। हथकरघा पर गमछा और लुंगी आदि वस्त्र की बुनाई के बाद, इसे बाज़ार तक पहुंचाना होता है। हथकरघे पर तैयार सामान को बाज़ार पहुंचाना ज़ोखि़म भरा काम होता है। लेकिन रीब को दो पैसे कमाने के लिए सिर्फ मेहनत ही नहीं, बल्कि अपने खाने-पीने की वस्तुओं और यात्रा के खर्च में भी कटौती करनी पड़ती है। तब कहीं जाकर घर-परिवार का पेट पलता है। इसलिए मेराज़ अंसारी जैसे बुनकर मज़दूरों को अपनी ज़िन्दगी दाव पर लगाने का जोखि़म उठाना पड़ता है।

क दिन की बात है। मैं अपने मित्र विजय राव के साथ मऊ की ओर जा रहा था। मेरी नज़र एक बाइक सवार पर पड़ती है। हम लोगों की रफ्तार उस बाइक सवार से कुछ अधिक होती है। हम लोगों और बाइक सवार के बीच का फासला लगातार कम होता जाता है। मैं बाइक सवार से रूकने का इशारा करता हूं। रूकने की वजह बाइक पर लदे हुए कपड़े और बाइक सवार की स्थिति होती है। बाइक सवार अपने चेहरे से हेलिमेट हटाता है। अरे! ये तो मेराज भाई हैं! मैं और विजय भाई हैरान होते हैं। हम हैरान होने के सिवा मेराज भाई के लिए कुछ कर नहीं पाते। हर मुलाक़ात की तरह, इस मुलाक़ात में भी कुछ औपचारिक बातों के साथ सिर्फ यही बता पाए, कि श्रम विभाग में मज़दूरों का पंजीकरण कहां और कैसे होता है। हथकरघा पर काम करने वाले बुनकर मज़दूरों का पंजीकरण कहां होता है। बुनकर मज़दूरों लिए सरकार की ओर से कौन सी योजनाएं चलाई जा रही हैं। प्रत्यक्ष को प्रमाण की ज़रूरत नहीं होती है। मेराज अंसारी की बाइक शायद इस लायक नहीं है, कि उससे एक जगह से दूसरी जगह जाया जा सके। मैं भूल नहीं पाता कि उन्होंने किस जतन से बाइक को रोका था। जब चलने को हुए तो संतुलन बनाने में कितनी मशक्क़त करनी पड़ी थी। यही नहीं बाइक को कुछ दूर ठेलना पड़ा था। तब मुझे इल्म हुआ कि बुनकरी सिर्फ ताने-बाने पर सूत और धागों को सुलझाने का नाम नहीं है। बल्कि बुनकर मज़दूरों को बाज़ार तक तैयार माल पहुंचाने में ज़िन्दगी दाव पर लगाने का नाम भी है। मेराज अंसारी जैसे बुनकरों की जीवन शैली को समझना बेहद ज़रूरी है। क्योंकि गांव के अर्थतंत्र को संभालने में मेराज़ अंसारी जैसे बुनकर मज़दूरों का बड़ा योगदान है। इनकी मेहनत से ही पूंजी निर्माण होता है। जब इनका कुनबा शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं से दूर रहकर काम करता है, तो गांव में पूंजी का प्रवाह बनता है। लाॅकडाउन ने मेराज़ भाई जैसे बुनकर मज़दूरों को न सिर्फ घरों और गांवों में लाॅक कर दिया है, बल्कि इनके रोज़ी-रोटी पर भी तालाबंदी कर दी है। हालांकि मेराज भाई अपनी बाइक से सामान पहुंचाने का बड़ा ख़तरा उठाते रहे हैं। लेकिन लाॅकडाउन की आपात परिस्थिति ने उससे भी बड़ा खतरा पैदा कर दिया है। यह ख़तरा है आजीविका का। जिस पर संकट के बादल मंडला रहे हैं।

सूलपुर उन गांवों में है, जहां बुनकर मज़दूरों का ताना-बाना ही ज़िन्दगी की पहली और आखि़री उम्मीद है। लाॅकडाउन में हथकरघे बंद पड़े हैं। ऐसे में मेराज अंसारी जैसे बुनकर मज़दूरों को न तो बुनकरी का काम करना पड़ रहा है और न ही हथकरघा पर तैयार सामान बाज़ार तक पहुंचाने का काम करना पड़ रहा है। लेकिन मज़दूर काम न करे, तो ज़िन्दगी बोझ बन जाती है। वो ख़तरा न उठाए तो खाने को लाले पड़ जाते हैं। अभावों का जीवन जीने वाले मज़दूर लाॅकडान का सामना जिस साहस से कर रहे हैं, वो वाकई लाजवाब है। उधर दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े-बड़े शहरों से प्रवासी मज़दूर साइकिल और पैदल ही हज़ारों मील दूर अपने घरों के लिए रवाना होने का हौसला दिखा रहे हैं, तो इधर गांवों में बहुत से मज़दूर बिना अर्थ के ही पेट के अर्थशास्त्र के साथ तालमेल बनाने का नज़ीर पेश कर रहे हैं। मज़दूरों के धैर्य, संयम और अनुशासन की इससे बड़ी परीक्षा और क्या हो सकती है?

लाॅकडाउन की अवधि में आवश्यक सेवाओं को जारी रखने की अनुमति है। हम जानते हैं कि हर सेवा के तार किसी न किसी तरह पेट से जुड़े होते हैं। खाद्यान्न आपूर्ति, साग-सब्जी, गैस सप्लाई और किराने की दुकानों को खोलने की अनुमति इसी उद्देश्य से है। लेकिन मेराज अंसारी जैसे बुनकर मज़दूरों के लिए खाद्यान्न आपूर्ति को छोड़कर अन्य सभी सेवाओं का कोई मतलब नहीं है। मेराज अंसारी बताते हैं कि बाज़ार जाने के लिए पैसे चाहिएं। जो उनके पास नहीं हैं। उन जैसे मज़दूरों के लिए बैंक का खुलना-बंद होना भी बेमानी है। उनके पास कोई बैंक बैलेन्स नहीं है और न ही किसी योजना के तहत सरकार की ओर से कोई धनराशि उनके खाते में भेजी गयी है।

गांव का अर्थशास्त्र समझने के लिए गांव के लोगों से संवाद और उनकी जीवन शैली को समझना जरूरी है। मेराज अंसारी बताते हैं कि ‘जो लोग कपड़ा बुनकर आजीविका अर्जित करते हैं, या मज़दूरी करके दो जून की रोटी जुटाते हैं, उनके हाथ खाली हैं। गेंहू और चावल तो राशन से मिल रहा है। लेकिन साग-सब्जी खरीदने के लिए पैसा चाहिए। तबियत खराब हो जाए, तो इलाज के लिए पैसे चाहिए। रोज़मर्रा ज़रूरत की वस्तुओं के लिए किराना के दुकान पर जाना हो, तो बिना पैसे कैसे जाया जाय? यह बात समझ से परे है। कोई उधार भी दे, तो कैसे दे? उधार मांगा जाए तो, किससे और कब तक?’ मेराज अंसारी जैसे मज़दूरों की बातें सुनकर अंदाज़ा होता है कि गांव के किराना वाले का अर्थतंत्र भी पूंजी के बहाव में बह जाने के कगार पर पहुंच गया है। इन दिनों गांव के लोग महामारी की आपात परिस्थिति से उपजी इन समस्याओं से जूझ रहे हैं। मज़दूर काम पर नहीं जा रहे हैं। रोज़ कमाने वाले-खाने वाले मज़दूरों के सामने जीवन और मृत्यु का संकट मंडला रहा है। राशन का अनाज बिना तेल-नमक, आलू-प्याज, दाल और मिर्च-मसाले के कैसे खाया जाता है, यह मज़दूर ही जानता है। रसूलपुर गांव के लगभग ज़्यादातर परिवारों की आजीविका मज़दूरी पर ही निर्भर है। रोज-कमाने खाने की प्रक्रिया में शामिल मज़दूरों में कोई लूम चलाता है, कोई बुनाई करता है, कोई गारा-माटी करता है, तो कोई खेत मज़दूर है। इनमें हर परिवार की महिलाएं भी काम करती है। बच्चे भी अपने घर के काम में सहायक की भूमिका निभाते हैं। यदि पूरा परिवार एक इकाई की तरह काम न करे, तो खाए बिना मरने की नौबतें पैदा हो सकती हैं। यह समय लाॅकडाउन की आपात परिस्थिति का है। मज़दूरों के हाथ-पैर बंध से गए हैं।

नरेगा मज़दूरों के लिए राहत की बात है। उनके लिए काम का आवंटन हो रहा है। उनके खाते में पैसे आना भी उनके लिए बड़ी राहत का सबब है। लेकिन बहुत से मज़दूर और उनका परिवार पात्र होते हुए भी मनरेगा जाब काॅर्ड या श्रमिक सन्निर्माण मजदूर की पहचान से वंचित है। इस वजह से ऐसे मज़दूर 1000 रूपए के मुख्यमंत्री राहत राशि से भी वंचित हैं। मेराज अंसारी की बात करें तो, ये बुनकर मज़दूर हैं। इसलिए मनरेगा और श्रमिक सन्निर्माण मज़दूर की पहचान से वंचित हैं। समाज सेवी संस्थाओं द्वारा मदद के तौर पर भोजन का पैकेट पहुंचाए जाने की खबरें टीवी स्क्रीन और अख़बारों का हिस्सा ज़रूर बन रही हैं। लेकिन रसूलपुर गांव की बात करें, तो अभी तक यह गांव ऐसी किसी मदद से अछूता है। गांव के लोग सरकार की ओर मुंह किए मदद के इंतेज़ार में हैं।

मेराज अंसारी इस बात से भी चिन्तित हैं कि मैं उनके गांव की कहानी सुधी जनों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहा हूं, तो इससे गांव के लोगों के समक्ष विशेषकर मेराज अंसारी को किसी तरह की समस्या का सामना तो नहीं करना पड़ेगा। इस बात को दृष्टिगत रखते हुए यह बताना भी ज़रूरी है कि इस आलेख का उद्देश्य सामाजिक व सामुदायिक जीवन में बेहतरी के प्रयासों में सहभागी बनना है। न कि डर का मनोविज्ञान तैयार करना या किसी व्यक्ति या संस्था की कार्यशैली की बुराई करना है।



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नोटः यह लेख उत्तर प्रदेश के जिला ग़ाज़ीपुर स्थित रसूलपुर गांव के पुराने अनुभवों और लाॅकडाउन के दौरान क्रमशः 12, 13 और 15 मई 2020 को बुनकर मज़दूर मेराज अंसारी से हुई विशेष बातचीत पर आधारित है।

Thursday, May 7, 2020

किशोर बच्चों का परिवेश और माता-पिता एवं शिक्षक

"जब माता-पिता अपने बच्चों के परिवेश में शामिल नहीं होते तो ऐसे में बाहरी परिवेश में मौजूद व्यक्ति, समूह, वस्तु, और गतिविधियां बच्चों के मन में जगह बनाने लगती हैं। इस तरह बाहरी परिवेश बच्चों के आन्तरिक द्वन्द्व के समय में उनके सुख-दुःख का साथी बन जाता है। इन्हीं परिस्थितियों में बच्चों का भावनात्मक विकास परिपक्वता प्राप्त करता है। परिपक्व भावनाओं की अभिव्यक्ति बच्चों के आचरण, विचार और व्यवहार में होती है। ये बात और है कि बाहर के परिवेश में शामिल अच्छाई और बुराई में किस एक से बच्चा अधिक प्रभावित होता है।"


म जानते हैं कि 10वीं और 12वीं कक्षा की पढ़ाई किसी छात्र/छात्रा के शैक्षिक जीवन में एक विभाजक दीवार की तरह होता है, जहां से बच्चों के भविष्य की दिशाएं तय होती हैं। शैक्षिक जीवन के इस मोड़ पर बच्चों में भविष्य में अपनी पढ़ाई और कॅरियर को लेकर स्पष्टता नहीं होती है। 10वीं और 12वीं कक्षा के बच्चों के लिए निर्णय करना कठिन होता है कि वो आगे की पढ़ाई किस विषय में, किस संस्थान से करें। एक तरफ इन कक्षाओं के बच्चों को किशोर अवस्था से वयस्क अवस्था में संक्रमण के द्वन्द से जूझना होता है। तो दूसरी तरफ इन्हें अपने परिवेश और परिस्थितियों से भी दो-चार होना पड़ता है। अवस्था संक्रमण में शरीर में हाॅरमोन संबधी बदलाव होते हैं। जिसकी स्पष्ट समझ आम तौर पर न तो बच्चों को होती है और न हीं माता-पिता को। ऐसे में बच्चों को भावनात्मक तौर पर माता-पिता और शिक्षकों की मदद नहीं मिल पाती है। जिसकी वजह से ज्यादातर बच्चे जीवन और कॅरियर के बारे में कुछ स्पष्ट निर्णय नहीं ले पाते हैं। सही समय पर सही निर्णय किसी बच्चे के आचार, विचार, व्यवहार, शैक्षिक, सामाजिक व संस्कारिक प्रगति का आधार होता है। इसे सुनिश्चित करने में काउंसलिंग की भूमिका एक महत्वपूर्ण टूल के समान है।

शारीरिक रूप-रंग और ढ़ांचे में बदलाव बच्चों में उत्तेजना का कारण होता है। उनके लिए अपने संवेगों को नियंत्रित रखना मुश्किल होता है। किशोरावस्था के संवेग साकारात्मक भी होते हैं और नाकारात्मक भी। नाकारात्मक संवेगों के प्रस्फुटन और प्रसार की संभावना अधिक होती है। क्योंकि ज़्यादातर बच्चों को पता ही नहीं होता है कि उनका शरीर और मन क्यों बदल रहा है। उनका संवेग उनके मन और शरीर से ही पैदा होता है और मन और शरीर पर हावी भी रहता है। इस उम्र के बच्चों को माता-पिता, शिक्षक और शुभचिन्तकों की बातें रास नहीं आती हैं। दूसरी ओर माता-पिता और शुभचिन्तक के पास बच्चे के अन्दर होने वाले बायोलाॅजिक बदलाओं की समझ नहीं होती है। जिस घर, स्कूल और समाज में बच्चों के आयु संबंधी शारीरिक और मानसिक बदलाव की समझ नहीं होती, वहां समय रहते बच्चों को अपनी भावनाओं के प्रकटीकरण में उनके निकट परिवेश में मौजूद व्यक्तियों, वस्तुओं और संस्थाओं की मदद नहीं मिल पाती है। माता-पिता द्वारा इस उम्र के बच्चों की निजता का अतिक्रमण आम बात है। ऐसे में बच्चे के अन्दर भ्रम के बीज आरोपित होते हैं। यदि बच्चों की निजता के बारे में वैज्ञानिक समझ बनाई जाए और उनके मन के आवेगों को समझने की कोशिश की जाए, तो बच्चा शारीरिक और मानसिक विकास के क्रम में प्रकट होने वाले सांवेगिक द्वन्द से समय रहते उबर जाता है। वरना उसके संवेग उन्हें गलत रास्ते पर ले जाते हैं। बच्चा बुरी आदतों का शिकार हो सकता है। उसके मन में अच्छाई की कल्पना स्थापित होने की संभावना क्षीण पड़ जाती है। बच्चों की भावनाएं बाहरी परिवेश में मौजूद व्यक्तियों, सहपाठियों और वस्तुओं की आभाषी दुनिया की कल्पना के अनुरूप आकार लेती है।

म तौर पर माता-पिता और शिक्षक बच्चों से परिणामोन्मुख बातें करते हैं। ‘कहां जा रहे हो?’, ‘क्यों जा रहे हो?’, ‘कहां गए थे?’, ‘क्यों गए थे?’, ‘सुबह से अब तक क्या किया?’ आदि वो सवाल हैं, जो अक्सर माता-पिता अपने बच्चों से पूछते रहते हैं। स्कूल में शिक्षक पूछते हैं कि ‘गृह कार्य क्यों नही किया?’ घर और स्कूल दोनों ही जगह बच्चों के सामने एक बड़ा सा ‘क्यों?’ मुंह बाए खड़ा रहता है। इस ‘क्यों?’ में बच्चे के उत्तर की गुंजाइशें कम होती हैं। बड़ों में धैर्य नहीं होता है कि वो बच्चे से अपने ‘क्यों’ का जवाब भी सुनें। बच्चों में चुप रहने की आदत पड़ जाती है। बच्चों की खामोशी को माता-पिता और शिक्षक अपने-अपने तरीके से समझते हैं। बच्चे की खामोशी का कारण बच्चे से संवाद किए बिना ही ढू़ंढ़ लेते हैं, और किसी निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं। माता-पिता अपशब्दों का प्रयोग करते हुए बच्चे को जिम्मेदारी और आत्मनिर्भरता का बोध कराते हैं। तो स्कूल में शिक्षक कक्षा का अनुशासन बनाने में बच्चे के साथ कठोर व्यवहार करते हैं। इस स्थिति से हर किशोर को होकर गुजरना पड़ता है। क्योंकि घर, स्कूल और समाज के परिवेश में बच्चों के बारे में ‘क्यों?’ की मान्यता सामाजिक रूप से सुदृढ़ है। बच्चों को हमेशा बड़ों के ‘क्यों?’ के लिए तैयार रहना होता है।

ज़ाहिर है 15 से 18 वर्ष तक के बच्चों को न सिर्फ शरीर और मन के भावों से द्वन्द की स्थिति में रहना पड़ता है। बल्कि उनका परिवेश और परिस्थितियां उनके प्रति नितान्त आलोचनात्मक, व्यंगात्मक और परिहासात्मक होता है। बच्चों के परिवेश निकट या आन्तरिक और दूर या बाहरी दो भागों में वर्गीकृत करके समझा जा सकता है। निकट के परिवेश में माता-पिता व अभिभावक के अलावा उनके अध्यापक होते हैं। जिनसे बच्चे का प्रत्यक्ष संपर्क और संवाद होता है। ये बच्चे के वास्तविक शुभचिन्तक होतेे हैं। दूसरी ओर वह परिवेश होता है, जो दूर का होता है। जिसमें बच्चों के दोस्त हो सकते हैं। गांव-मुहल्ले के लोग हो सकते हैं। मनोरंजन के तरह-तरह के माध्यम जैसे, भ्रमण, सिनेमा, गेम, आदि हो सकते हैं। दूर का परिवेश अप्रत्यक्ष होता है। इसमें अनिश्चितता होती है। जिस तरह निकट के परिवेश में अच्छे-बुरे दोनों तरह की अभिव्यक्तियों की शामिल होती है, उसी तरह दूर के परिवेश में भी अच्छाई और बुराई की दोनों ही संभावनाएं शामिल होती हैं। निकट परिवेश में माता-पिता जैविक संबंधों का दायित्व निभाता है। बच्चे के हर अच्छे-बुरे आचरण और अभिव्यक्ति के लिए प्राथमिक तौर पर जिम्मेदार होता है। जबकि दूर परिवेश में शामिल व्यक्ति, वस्तु और वातावरण निर्माण के विभिन्न कारण प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार नहीं माने जाते हैं। लेकिन बच्चों के जीवन को प्रायः माता-पिता से अधिक प्रभावित करते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जैसा परिवेश होगा, बच्चे का शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक और सामाजिक विकास वैसा ही होता है।

स्पष्ट है कि बच्चे के लिए उसका निकट और दूर दोनों ही परिवेश महत्वपूर्ण है। इनमें से किसी एक की कमी या किसी एक में असंतुलन बच्चे के विकास में नाकारात्मक परिणाम का कारण बन सकता है। यदि किसी बच्चे के जीवन में उसके माता-पिता की प्रत्यक्ष मौजूदगी नहीं है। तो ऐसे बच्चे अपने निकट परिवेश से दूर होते जाते हैं। उनके जीवन में दूर का परिवेश ही उन्हें अपना असल परिवेश लगने लगता है। वो दूर के परिवेश के आकर्षण में फंसते जाते हैं। जब माता-पिता अपने बच्चों के परिवेश में शामिल नहीं होते तो ऐसे में बाहरी परिवेश में मौजूद व्यक्ति, समूह, वस्तु, और गतिविधियां बच्चों के मन में जगह बनाने लगती हैं। इस तरह बाहरी परिवेश बच्चों के आन्तरिक द्वन्द्व के समय में उनके सुख-दुःख का साथी बन जाता है। इन्हीं परिस्थितियों में बच्चों का भावनात्मक विकास परिपक्वता प्राप्त करता है। परिपक्व भावनाओं की अभिव्यक्ति बच्चों के आचरण, विचार और व्यवहार में होती है। ये बात और है कि बाहर के परिवेश में शामिल अच्छाई और बुराई में किस एक से बच्चा अधिक प्रभावित होता है।

र बच्चा अपने परिवार, समाज और देश के लिए महत्वपूर्ण होता है। इसलिए आवश्यक है कि बच्चे मन और भाव के द्वन्द्व से सफलतापूर्वक बाहर निकलें। उनकी मदद करना हर माता-पिता, शिक्षक और शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे व्यक्तियों का दायित्व है। इसी दायित्व के निर्वहन में माता-पिता और शिक्षक दोनों की काउंसलिंग ज़रूरी है। ताकि वो किशोरावस्था के बच्चों का उचित मार्गदर्शन कर सकें। काउंसलिंग से न सिर्फ माता-पिता की समझ बनती और बढ़ती है बल्कि बच्चा स्वयं भी परिपक्व संवेग और संवेगों की अभिव्यक्ति में परिपक्वता आदि बातों को समझने लगता है। जिन माता-पिता और शिक्षकों को मार्गदर्शन का लाभ मिलता है, उसका लाभ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बच्चों तक भी पहुंचता है। काउंसलिंग प्राप्त बच्चों की शैक्षिक प्रगति अधिक संतोष जनक होती है।

से माता-पिता की संख्या कम है, जिन्हें आधुनिक शिक्षा की बुनियादी विशेषताओं का ज्ञान हो। ऐसे माता-पिता अपनी निजी व्यस्तताओं के चलते बच्चे की रूचियां और क्षमताओं से अनभिज्ञ रहते हैं। ऐसे माता-पिता के बच्चे भीड़ में अकेले रह जाते हैं। ऐस बच्चों के लिए यह निर्णय करना कठिन होता है कि उन्हें 10वीं और 12वीं के बाद किस विषय में पढ़ाई जारी रखनी है। ऐसे बच्चे और उनके माता-पिता कॅरियर को लेकर निश्चित नहीं होते हैं। बच्चों और माता-पिता के सामने यह स्थिति बादलों के धुंध की तरह होती है। जिसे काउंसलिंग की प्रक्रिया से साफ किया जा सकता है।

पिछले कुछ बरसों से मुझे खु़द बतौर एक काउंसलर इस बात का अनुभव है कि काउंसलिंग से बच्चों को सही दिशा में सोचने और पढ़ने के लिए प्रेरणा प्राप्त होती है। काउंसलिंग के अभाव में बहुत से बच्चे 10वीं और 12वीं के बाद सही दिशा में पढ़ाई जारी रखने के अवसर से वंचित रह जाते हैं। यह वंचना अक्सर अदृश्य होती है। जिन बच्चों को माता-पिता, शिक्षक या किसी प्रोफेशनल काउंसलर से सहायता नहीं मिलती है। उन बच्चों की प्रतिभा का क्षरण होता है। उनका समय बरबाद होता है। और तो और उनकी पढ़ाई पर खर्च होने वाला धन भी निरर्थक सिद्ध होता है। चूंकि प्रतिभा रूचि, तत्परता और क्षमता पर निर्भर होती है। इसलिए सही समय पर सही दिशा का चुनाव न होना रूचि, तत्परता और क्षमता के प्रदर्शन को प्रभावित करता है। जीवन की गाड़ी तो चलती रहती है, लेकिन रफ्तार वो नहीं बन पाती, जो सही टैªक और दिशा में होने पर बनती है। इसे हवा के खि़लाफ का उदाहरण कहा जा सकता है। प्रतिकूल दिशा में प्रयास सफल होने के बाद भी बच्चा अपने कॅरियर से संतुष्ट नहीं रहता है। दूसरा यह कि बच्चा परिवार, समाज और देश में जो योगदान अपनी रूचि, तत्परता और क्षमता वाली दिशा में जाकर कर सकता है, उस योगदान से परिवार, समाज और देश हमेशा-हमेशा के लिए वंचित रह जाता है।

काउंसलिंग एक ज़रूरी टूल है, जो बच्चों और उनके माता-पिता एवं शिक्षकों के लिए ज़रूरी है। इसे व्यापक प्रसार देने की ज़रूरत है। मौजूदा दौर के बच्चे पिछली पीढ़ी की तुलना में कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण परिवेश में सांस ले रहे हैं। माता-पिता और शिक्षक को एक मित्र काउंसलर की भूमिका में रहने की आवश्यकता है न कि “क्यों?” का पहाड़ लिए हुए एक सख़्त अभिभावक या कठोर अनुशासन प्रिय शिक्षक की भूमिका में रहने की ज़रूरत है। यही भूमिका किशोर बच्चों के आन्तरिक और वाह्य द्वन्द्व के समाधान का रास्ता निकालती है।


Tuesday, April 28, 2020

ऑनलाइन शिक्षाः बच्चों के लिए कितना लाभप्रद


इस समय दुनिया के सैकड़ों देश कोविड-19 के संक्रमण जूझ रहे हैं। बहुत से देशों में लाॅकडाउन की आपात परिस्थितियां हैं। भारत भी इससे अछूता नहीं है। स्कूल-काॅलेज, दुकानें और सामान्य यातायात सेवाएं बंद हैं। कोविड-19 के संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए उत्तर प्रदेश में 13 मार्च से ही कक्षा 8 तक के स्कूल बंद चल रहे हैं। जिसका सीधा प्रभाव बच्चों की परीक्षा, मूल्यांकन, परिणाम और आगे की पढ़ाई पर पड़ा है। बच्चे स्कूल की औपचारिक शैक्षिक क्रियाओं से दूर हैं। उनकी पढ़ाई पीछे छूट रही है। महामारी की विभीषिका ऐसी है कि घर में रहना, शारीरिक दूरी बनाकर रखना, सार्वजनिक स्थानों पर भीड़ न इकट्ठा होना, फेस माॅस्क का प्रयोग करना, बार-बार हाथ धुलते रहना और नाक, मुंह एवं चेहरे पर बार-बार हाथ न ले जाना आदि ही इस संक्रमण से बचाव के उपाय हैं। भारत में भी संक्रमित मरीज़ों की संख्या लगातार बढ़ रही है। संक्रमण का ख़तरा कब तक बना रहेगा, कहना मुश्किल है। 14 अप्रैल को लाॅकडाउन की आपात परिस्थिति अगले 3 मई तक के लिए बढ़ा दी गयी है। डाॅक्टर, नर्स, पुलिस-प्रशासन और समाज सेवी कोविड-19 से जनता को बचाने की कोशिशों में लगे हुए हैं। इनकी सक्रियता काबिले तारीफ है। शिक्षा से जुड़े लोग भी सक्रिय हैं। इन्हें इस बात की चिन्ता है कि लाॅकडाउन के दौरान बच्चों को कैसे पढ़ाया जाए। सिलेबस कैसे कवर किया जाए। स्कूल एजूकेशन में आॅनलाइन क्लासेज की योजना की चर्चाएं अख़बारों और सोशल मीडिया में हर रोज आ रही हैं। सोशल मीडिया में एजूकेशनल एप्स के प्रचार के विज्ञापन भी मौजूद हैं। मोबाइल फोन के माध्यम से बच्चों के अभिभावकों को आॅनलाइन शिक्षण के बारे में जागरूक बनाया जा रहा है। फलस्वरूप बड़े शहरों से लेकर छोटे नगरों और गांवों तक के लोग आॅनलाइन कक्षाओं के बारे में कुछ न कुछ जानकारी या जिज्ञासा रख रहे हैं। शिक्षा में नुकसान की भरपाई के लिए पहले तो बड़े-बड़े अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों ने आॅनलाइन कक्षाएं आरंभ हुईं। बाद में उत्तर प्रदेश सरकार ने भी परिषदीय विद्यालयों में आॅनलाइन शिक्षा का आदेश जारी किया। यह समझना ज़रूरी है कि ऑनलाइन क्लासेज का माॅड्यूल क्या है। क्या यह बच्चों के हित में है। इससे कितने स्कूली छात्रों को लाभ पहुंचेगा। बच्चों के शैक्षिक नुकसान की भरपाई में यह प्रयोग किस हद तक सफल है। यह आलेख महामारी के कारण लाॅकडाउन के साथ-साथ बाढ़, लू, सूखा, अत्यधिक ठण्ड, ओलावृष्टि, भूकम्प आदि आपदा की परिस्थितियों में भी ऑनलाइन एजूकेशन की युक्ति को समझने की कोशिश है।

क्या है ऑनलाइन शिक्षा

कोविड-19 के कारण लाॅकडाउन की आपात परिस्थिति बच्चों ही नहीं बल्कि माता-पिता/अभिभावक और शिक्षकों के लिए भी कठिन समय है। समय चाहे कितना ही कठिन क्यों न हो स्वास्थ्य का ठीक रहना ज़रूरी है। कहा जाता है कि स्वस्थ्य शरीर में ही स्वस्थ्य मस्तिष्क का विकास होता है। यही वजह है कि इस समय कोविड-19 के संक्रमण से सुरक्षा शिक्षा से भी अधिक महत्व का कार्य है। फिर भी शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी और गैर-सरकारी तौर पर बच्चों को घर पर ही पढ़ाने के लिए पहल किया जा रहा है। स्कूली शिक्षा में यह एक प्रयोग पहली बार व्यापक स्तर पर देखा जा रहा है। इस प्रयोग में बच्चे घर पर रह कर ही अपने स्कूल और शिक्षकों से जुड़ सकते हैं। विभिन्न विषयों के अभ्यास कर सकते हैं। उनके अभ्यास कार्य की जांच हो सकती है। इस तरह बच्चों का कोर्स घर पर रहते हुए पूरा हो सकता है। कोर्स कवर कराने का यही तरीका आॅनलाइन कहा जा रहा है।

ऑनलाइन शिक्षा में बच्चों को एक निश्चित समय के लिए एप्स के माध्यम से एक नेटवर्क से जोड़ दिया जाता है। बच्चे अपने स्कूल की ड्रेस पहनकर अपने-अपने घरों में निश्चित स्थान पर बैठते हैं। उनके सामने कक्षा का ब्लैकबोर्ड या व्ह्ाइटबोर्ड के बजाए एक अदद एन्ड्राएड मोबाइल होता है। मोबाइल में उनके शिक्षक की तस्वीर और आवाज़ सुनाई देती है। बच्चा अपने शिक्षक को कक्षा की बजाय मोबाइल में देखता-सुनता है। अपनी जिज्ञासाएं व्यक्त करता है। इसे विडियो क्लासेज कहा जा सकता है। विडियो क्लास के संचालन के लिए मोबाइल में एप्स का होना ज़रूरी है। यह एप कोई साफ्टवेयर डेवलपर व्यक्ति या कम्पनी बनाती और बेचती है। समाचारों में सुनने में आ रहा है कि एप निर्माताओं ने एक विडियो क्लास में छात्रों की अधिकतम संख्या 40 निर्धारित किया है। एप्स के प्रयोग का फायदा बड़े-बड़े शहरों, बड़े-बड़े स्कूलों और बड़े-बड़े घरों के बच्चों तक पहुंच रहा है। यह प्रयोग बच्चों के जीवन में एक रोचक अध्याय भी जोड़ रहा है। बालमन में नएपन का समावेश हो रहा है। बच्चे पढ़ाई के नए तर्ज से फूले नहीं समा रहे हैं। ऑनलाइन शिक्षा के माध्यम के तौर पर व्हाट्सएप और यूट्यूब का भी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है।

ज़ाहिर है एप्स के माध्यम से बच्चे घर पर रहते हुए एक निश्चित समय के लिए ऑनलाइन विडियो क्लास से जुड़ जाते हैं। अभ्यास के लिए व्हाट्सएप के माध्यम से अभ्यास कार्य की साफ्ट काॅपी बच्चों के पास भेज दी जाती है। बच्चा मोबाइल या कम्प्यूटर में देख कर अभ्यास कार्य अपनी नोटबुक में करता है। अभ्यास करने के बाद उसका फोटो खींच कर संबंधित अध्यापक, व्हाट्सएप ग्रुप या विडियो क्लास वाले ग्रुप में शेयर करता है। इस तरह उसके अभ्यास कार्य की जांच की जाती है। फिर अगले दिन अगली कक्षा, अगला अभ्यास.... इत्यादि। इस तरह आॅनलाइन पढ़ाई चल रही है। माता-पिता और अभिभावक के लिए शिक्षा का ऑनलाइन तरीका काफी संतोषप्रद है। राजस्थान की राजधानी जयपुर में रहने वाले एक मित्र बताते हैं कि ऑनलाइन शिक्षा आरंभ होने के बाद उन्हें बड़ी राहत मिली है। वरना बच्चों का अधिकतम समय टीवी दखने या मोबाइल गेम खेलने में व्यतीत हो रहा था। अब वो स्टडी और अभ्यास कार्य भी कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की भाभी जी भी खुश हैं कि उनका बच्चा विडियो क्लास में उच्च अनुशासन दिखा रहा है। लखनऊ के ही एक मित्र बताते हैं कि उनकी चार साल की नन्ही बच्ची मोबाइल स्क्रीन पर ही अपनी मिस के साथ प्ले वे लर्निंग कर रही है।

जाहिर है ऑनलाइन शिक्षा बच्चों को घर पर स्टडी और अभ्यास से जोड़ने में सफल है। यह तकनीक आधारित है। एन्ड्राएड मोबाइल फोन, कम्प्यूटर या टैबलेट के साथ इंटरनेट डाटा पैक इसकी मूलभूत ज़रूरतें हैं। यह तकनीक कम्प्यूटर विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति का हिस्सा है। वैसे तो बच्चों के लिए इंटरनेट पर बहुत से लर्निंग एप्स मौजूद हैं। लेकिन एप्स का औपचारिक इस्तेमाल बाल शिक्षा में व्यापक स्तर पर पहली बार देखने में आ रहा है। तकनीक आधारित एप्स के इस्तेमाल ने जीवन के दूसरे क्षेत्रों की ही तरह शिक्षा में भी समय और मानव श्रम की बचत को संभव बनाया है। इसे परंपरागत और डिजिटल कक्षा के उदाहरण से समझा जा सकता है। कक्षा में शिक्षण कार्य समय-सारणी के अनुसार होता है। कक्षा और छात्र के बीच उचित अनुपात का ध्यान रखना होता है। आम तौर पर स्कूल की कक्षा में एक समय में एक अध्यापक लगभग 30 से 40 बच्चों को पढ़ाता है। बच्चों की संख्या इससे अधिक होने पर माइक का इस्तेमाल किया जाता है या सेक्शन अलग कर दिया जाता है। विभिन्न विषयों के टाॅपिक्स के बारे में अवधारणात्मक समझ विकसित करने में प्रोजेक्टर आदि का इस्तेमाल भी होता है। माइक सिस्टम और कम्प्यूटर के प्रयोग ने इन बंधनों को तोड़ दिया है। एक समय में कक्षा में 30-40 के बजाए 60 बच्चे भी शिक्षक की आवाज़ सुन सकते हैं। दृश्य माध्यम जैसे, प्रोजेक्टर स्क्रीन या टीवी स्क्रीन से पिछली पंक्ति में बैठे छात्रों की ब्लैक बोर्ड पर देखकर न पढ़ पाने की समस्या का समाधान हो जाता है। कोचिंग क्लासेज में यह सिस्टम काफी कामयाब है। ऐसा अक्सर होता है कि कोई बच्चा बीमारी या किसी कारणवश स्कूल में उपस्थित होकर कक्षा में शिक्षक का लेक्चर नहीं सुन पाता है। बाद में उसे किसी बच्चे की काॅपी लेकर छुटा हुआ काम पूरा करना पड़ता है। ऑनलाइन स्टडी मैटेरियल से ऐसे बच्चों की मदद होना एक बेहतर विकल्प है। इस विकल्प को अपनाने वाले बच्चे स्कूल के समय और कक्षा के अनुशासन से बंधे नहीं होते हैं। अपनी सुविधानुसार एन्ड्राएड मोबाइल फोन या कम्प्यूटर में इण्टरनेट के माध्यम से पढ़ते हैं। इस तरह की पढ़ाई एक तरफा संवाद पर आधारित है, जहां बच्चा जब चाहे मोबाइल या कम्प्यूटर की मदद से पढ़ता है। विडियो क्लासेज में कहने को दो तरफा संवाद होती है, जैसा कि स्कूल की कक्षा में होता है। लेकिन इस संवाद की प्रकृति भी एक तरफा होती है। क्योंकि विडियो क्लासेज में बाल विकास के विविध पक्षों का ध्यान रखना संभव नहीं है। ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि तकनीक आधारित ऑनलाइन कक्षाओं को सफलता पूर्वक संपन्न कराने के लिए शिक्षक और छात्रों, दोनों के पास एन्ड्राएड मोबाइल फोन का होना, दोनों का मोबाइल के संचालन में दक्ष होना, मोबाइल फोन में इण्टरनेट डाटा पैक का होना, नेटवर्क की निरन्तरता का होना, घर के अनौपचारिक माहौल में कक्षा की तरह का शान्तिपूर्ण स्थान और अनुशासन का होना आदि ज़रूरी शर्त हैं। इस बारे में कई शिक्षकों से बात हुई। उनके अनुसार 10 से 11 प्रतिशत बच्चों का ही व्हाट्सएप गु्रप बन पाया है। ऐसे में अधिकतर बच्चों का शिक्षा की प्रक्रिया से वंचित होना निश्चित है।

शिक्षा, समाज और ऑनलाइन तकनीक

शिक्षा को समाज से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। भारतीय समाज के वर्गीय विभाजन को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता है। स्कूल-काॅलेज भी भारतीय समाज के वर्गीय विभाजन का प्रतिनिधित्व करते हैं। शिक्षा को सार्वभौमिक बनाने का अभियान और समान शिक्षा का पहल आदि का उद्देश्य समाज के वर्गीय चरित्र की समस्या को दूर करना है। ताकि सभी बच्चों को शिक्षा का समान अवसर प्राप्त हो सके। 2009 में कक्षा 1 से 8 तक की शिक्षा को कानूनी तौर पर बच्चों का मौलिक अधिकार बनाया गया। लेकिन मौजूदा शिक्षण व्यवस्था वास्तविकता से कोसों दूर है। एक ही देश में अलग-अलग वर्गों के बच्चे अलग-अलग तरह के स्कूलों में पढ़ते हैं। परिषदीय विद्यालयों और काॅनवेन्ट एवं पब्लिक स्कूलों का अन्तर इसी सच्चाई का प्रमाण है। स्कूल भवन और प्रशिक्षित शिक्षकों आदि के रूप में शैक्षिक संसाधन उपलब्ध होने के बाद भी सरकार बुनियादी शिक्षा के क्षेत्र में रोल माॅडल नहीं बन पायी है। बल्कि प्राइवेट स्कूलों को अपना रोल माॅडल बना रही है। जबकि केन्द्रीय विद्यालय और नवोदय विद्यालय भी सरकार का माॅडल हो सकते हैं। यदि तकनीक की बात करें तो आॅनलाइन शिक्षा हेतु आवश्यक सुविधाएं जैसे एन्ड्राएड मोबाइल और इंटरनेट की उपलब्धता समाज के सभी वर्गों तक नहीं है। 

ज़ाहिर है, आपात परिस्थिति में वैकल्पिक शिक्षा के तौर पर ऑनलाइन विडियो कक्षाएं, व्हाट्सअप और यूट्यूब ट्यूटोरियल्स समाज के कमजोर तबके के बच्चों को शिक्षा की मूल प्रक्रिया से अलग-थलग करने वाला प्रयोग साबित होगा। बाल शिक्षा में आॅनलाइन की मौजूदा पहल में 40 बच्चों को एप् के माध्यम से पढ़ाने के चक्कर में हर गांव-कस्बे के न जाने कितने 40 बच्चे पढ़ाई से वंचित रह जाएंगे। क्योंकि आॅनलाइन शिक्षा हेतु मूलभूत संसाधनों और सुविधाओं जैसे, एन्ड्राएड मोबाइल फोन और इंटरनेट आदि तक इनकी पहुंच नहीं हैं। यदि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की बात करें तो यहां ज्यादातर वो बच्चे पढ़ते हैं, जिनके परिवार सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक रूप से कमजोर और पिछडे़ हैं। इनमें बहुत से परिवार ऐसे हैं, जिनके काम में बच्चे हाथ न बटाएं तो घर चलाना मुश्किल हो जाता है। ऐसी स्थिति आने वाले समय में समाज के अंदर शैक्षिक खाई को और बढ़ाएगी?

ऑनलाइन शिक्षा विभेदकारी है

ऑनलाइन शिक्षा के प्रचार-प्रसार के पीछे सबसे महत्वपूण कारण यह बताया जा रहा है कि बच्चों की पढ़ाई पीछे नहीं होनी चाहिए। एप निर्माता स्कूल ऐट होम का संदेश देते हुए बता रहे हैं कि “कोविड-19 को अपने बच्चे की पढ़ाई में बाधा न बनने दें। जल्दी कीजिए् नया बैच दिनांक ...................... से शुरू हो रहा है।” एक लर्निंग एप एक बड़े सेलेबे्रटी का फोटो लगाकर यह दावा करता है कि “विडियो लर्निंग से बच्चों में बेहतर अवधारणात्मक समझ विकसित करने के साथ ही उन्हें बेहतर शिक्षार्थी बनने में मदद करता है।” सोशल मीडिया पर ऑनलाइन शिक्षण के एप्स की बाढ़ आ गयी है। एप का हर विज्ञापन कुछ न कुछ कह रहा है। एक एप का विज्ञापन ऐसा भी है “तो फिर सोचना क्या - जुड़िए हमारे स्मार्ट स्कूल एजूकेशन इनिशिएटिव के साथ, और अपना खु़द का बिजनेस बेहद कम इनवेस्टमेन्ट के साथ शुरू करें।” महानिदेशक, स्कूल शिक्षा, उत्तर प्रदेश द्वारा जारी संदेश में व्हाट्सएप गु्रप के माध्यम से ई-पाठशाला और दूरदर्शन के प्रोग्राम से अधिक से अधिक बच्चों को लाभ पहुंचाने की बात कही गयी है। ऐसा माहौल बन गया है कि ऑनलाइन का विकल्प शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले बहुत से व्यक्तियों और संस्थाओं को उचित लग रहा है। लेकिन ऑनलाइन शिक्षा का फार्मूला कई मायनों में विभेदकारी है। यह बच्चों और समाज के व्यापक हित में नहीं है। आॅनलाइन का आइडिया आर्थिक रूप से कमजोर परिवार के बच्चों को शिक्षा के अवसर से वंचित करती है। उन परिवारों का उदाहरण लिया जा सकता है, जिनके पास एन्ड्राएड मोबाइल नहीं है या जिनके पास एन्ड्रायड मोबाइल में डेटा पैक का रिचार्ज कराने की क्षमता नहीं है। गरीबी की रेखाएं बहुत लम्बी हैं। इस लम्बी रेखा के दायरे में रहने वाले बहुत से घरों में बिजली नहीं है। रोज कमाने-खाने की दिक्कते हैं। रहने की समस्याएं हैं। पलायन और बेकारी की समस्या है। इन समस्याओं का समाधान किए बिना आम जनता के बच्चों के लिए ऑनलाइन शिक्षण व्यवस्था एक बोझ बन जाएगा। यदि उत्तर प्रदेश की बात करें, तो यहां परिषदीय विद्यालयों में आॅनलाइन शिक्षण हेतु व्हाट्सएप् गु्रप बनाए गए हैं। लेकिन शायद ही कोई गु्रप ऐसा है, जिसमें 15 या 20 प्रतिशत से अधिक बच्चे शामिल हुए हों। कारण स्पषट है। ज़्यादातर बच्चों के घर में एन्ड्राएड मोबाइल फोन नहीं है। ज़्यादातर अभिभावक अशिक्षित हैं। उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वो अपने बच्चों की शिक्षा के लिए महंगे एन्ड्राएड फोन और इंटरनेट डाटा पैक का खर्च उठा सकें। यह भी सत्य है कि परिषदीय स्कूलों के अधिकतर बच्चे अपने माता-पिता के साथ अपने घर के कामों में जैसे, खेती-किसानी, मजदूरी और दुकानदारी आदि में हाथ बंटाते हैं। इन बच्चों को स्कूल में बनाए रखने के लिए ही मिड डे मिल, डेªस और वजीफा आदि योजनाएं क्रियान्वयन में हैं। अक्सर समाचारों में यह भी सुनने में आता है कि परिषदीय विद्यालयों के छात्र आम तौर पर अपनी आयु और कक्षा के अनुरूप लिखना-पढ़ना नहीं जानते हैं। ऐसे में इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि व्हाट्सएप गु्रप के माध्यम से पढ़ने की लालसा में परिषदीय स्कूलों के बच्चे बेहतर लर्नर बनने के बजाय मोबाइल का आदी बन जाएं। यदि ऐसा होता है, तो गरीबी की धूप-छांव में जीवन गुजारने वाले परिवारों का भविष्य खतरे में पड़ जाएगा। दूसरी ओर यह भी मुमकिन है गरीबी और अभाव में जीवन यापन करने वाले परिवारों के बच्चों का एक बड़ा हिस्सा अपने परिवार के कमजोर आर्थिक स्थिति को धता-बताते हुए अपने माता-पिता पर एन्ड्राएड मोबाइल खरीदने का दबाव बनाए।

फिर भी यदि सरकार और ऑनलाइन शिक्षा के विशेषज्ञों को बाल शिक्षा में डिजिटल, वर्चअल, विडियो, व्हाट्एप, यूट्यूब आदि का प्रयोग तर्क संगत लगता है। तो अच्छा होता कि हर बच्चे के घर में सरकार एन्ड्राएड फोन या कम्प्यूटर उपलब्ध कराती। जैसा कि उत्तर प्रदेश में पिछली सरकार ने कम्प्यूटर और लैपटाॅप योजना के अन्तर्गत लाखों उपकरण वितरित किए थे। पिछली सरकार ने ये उपकरण हमेशा-हमेशा के लिए दे दिया था। मौजूदा सरकार चाहे तो लाॅडाउन की आपात परिस्थिति समाप्त होने के बाद इन उपकरणों को वापस अपने पास जमा करवा ले। चुनाव में इस्तेमाल होने वाले ईवीएम मशीन की तरह ही ये तकनीकी संसाधन भारत सरकार या प्रदेश सरकारों की संपत्ति होती। जब भी अत्यधिक ठण्ड, ओला वृष्टि, बारिश, आंधी, तूफान और बाढ़ आदि के कारण आपात परिस्थितियां पैदा होतीं, सरकार इन तकनीकी यंत्रों को बच्चों के लिए निःशुल्क उपलब्ध कराती। अपने स्कूल काॅलेज का परिचय पत्र दिखा कर बच्चे इन यंत्रों को लेते और इस्तेमाल करने के बाद वापस कर देते। सरकार को ऑनलाइन शिक्षण जारी रहने तक नेट पैक रिचार्ज कराने की जिम्मेदारी खुद लेनी चाहिए। यदि रेलवे स्टेशनों पर निःशुल्क वाई-फाई सुविधा दी जा सकती है, तो शिक्षा के लिए क्यों नहीं।

स्वयम् प्रभा और दूरदर्शन का उदाहरण

ऑनलाइन शिक्षण का एक विकल्प कम्युनिटी रेडियो या ज्ञानवाणी आदि सैटेलाइट टेलीकाॅस्ट भी हो सकता है। जिस तरह से हम निश्चित समय के लिए टीवी पर समाचार या कोई मनोरंजन चैनल पर कार्यक्रम देखते हैं, ठीक उसी तरह कक्षावार अलग-अलग विषयों पर व्याख्यान का प्रसारण कराया जा सकता है। जैसा कि उत्तर प्रदेश के स्कूल शिक्षा के महानिदेशक ने ई-पाठशाला के अन्तर्गत दूरदर्शन पर कार्यक्रमों के प्रसारण की बात कही है। इससे शिक्षा की मूल प्रक्रिया में अधिक से अधिक बच्चों को शामिल होने का अवसर मिल सकेगा। मानव श्रम और धन की बड़े पैमाने पर बचत भी होगी। इसकी तुलना इग्नू के आॅनलाइन कार्यक्रमों से की जा सकती है। लेकिन यह युक्ति बाल शिक्षा के लिए व्यावहारिक नहीं है। क्योंकि बच्चों की बुनियादी ज़रूरतें सिर्फ कुर्सी या बेन्च पर बैठ कर एक टक अपने शिक्षक और ब्लैकबोर्ड को निहारना नहीं है। बल्कि स्कूल के औपचारिक परिवेश में शिक्षक और अपने कक्षा के सहपाठियों के साथ विभिन्न क्रियाओं में लिप्त रहते हुए सीखना है।

यदि कक्षा 9 और इसके बाद की कक्षाओं के ऑनलाइन शिक्षा की बात करें तो सैटेलाइट चैनलों के माध्यम से औपचारिक शिक्षा की कमी को एक हद तक पूरा किया जा सकता है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा डिजिटल एजूकेशन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर आॅनलाइन शिक्षा के लिए स्वयम् प्रभा की शुरूआत की है। 28 मार्च 2020 की एनडीटीवी की रिपोर्टर अनिशा कुमारी की रिपोर्ट के अनुसार 23 से 28 मार्च के बीच आॅनलाइन शिक्षा से जुड़ने वाले व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि दर्ज की गयी है। इस रिपोर्ट के अनुसार स्वयम् के जनवरी 2020 सेमेस्टर के लिए 25 लाख छात्र पहले से ही 571 अलग-अलग कोर्स में पंजीकृत हैं। लाॅकडाउन के पहले सप्ताह में यानि 23 से 28 मार्च के दौरान लगभग 50,000 लोगों ने स्वयम् तक पहुंच बनाने की कोशिश की है। एनडीटीवी के ही पत्रकार शिहाबुद्दीन कुंजू एस. की 20 अप्रैल की रिपोर्ट के अनुसार स्वयम् आॅनलाइन एजूकेशन प्लेटफाॅर्म पर 1,902 कोर्स उपलब्ध हैं। रिपोर्ट में मानव संसाधन मंत्रालय के हवाले से बताया गया है, कि इस समय 26 लाख छात्र 574 कोर्सों में ऑनलाइन शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। 24 अप्रैल को मित्र शैलेन्द्र ने बताया कि स्वयम् प्रभा चैनल पर वो दोपहर के समय का प्रोग्राम देखते हैं। विशेषज्ञों द्वारा अलग-अलग विषयों पर व्याख्यान बहुत लाभकारी है। यहां दो बातें महत्वपूर्ण हैं। पहली यह कि टीवी का कवरेज मोबाइल से अधिक है। जिन परिवारों में मोबाइल वहन करने की क्षमता नहीं है, उन परिवारों के बच्चों के लिए स्वयम् प्रभा के टीवी कार्यक्रमों का प्रसारण लाभ पहुंचा सकती है। इस संदर्भ में लाॅक डाउन के एक सप्ताह में स्वयम् प्रभा चैनल के दर्शकों में 50,000 की वृद्धी बड़ी बात है। लेकिन यह सवाल फिर भी अनुत्तरित रह जाता है कि क्या दर्शकों की संख्या में वृद्धि होना शिक्षा की प्रक्रिया के सुचारू रूप से चलने का प्रमाण है? क्या 50,000 की यह संख्या ही पूरा भारत है? दूसरी बात यह कि स्वयम् प्रभा की ऑनलाइन टीचिंग्स और स्टडी मैटेरियल्स कक्षा 9 और इससे ऊपर की कक्षाओं के छात्रों के लिए हैं। ऑनलाइन एजूकेशन का प्रयोग इन दिनों पूर्व-प्राथमिक, प्राथमिक और उच्च प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ने वाले छात्रों के साथ भी किया जा रहा है। पूर्व-प्राथमिक, प्राथमिक और उच्च प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ने वाले छात्रों के लिए स्वयम् प्रभा कोई विकल्प नहीं है। यदि होता भी तो 4 घण्टे की अवधि में इन कक्षाओं के बच्चों के विभिन्न विषयों की पढ़ाई कैसे संभव है। यदि इसका कोई रास्ता निकाल भी लिया जाए तो टी.वी. स्क्रीन पर बच्चों के व्यक्तित्व विकास की विभिन्न गतिविधियों को संपन्न कराना असंभव है। बाल विकास बेतार संचार के माध्यम से असंभव है। इसके लिए स्कूल या स्कूल जैसा भौतिक वातावरण और शिक्षक एवं मार्गदर्शक के रूप में व्यक्तियों की मौजूदगी ज़रूरी है। दो तरफा संवाद का होना आवश्यक है। जो बेहतर तरीके से कक्षा में ही संभव होता है, न कि मोबाइल फोन या टीवी पर। ज़ाहिर है, संख्या और परिमाण दोनों ही दृष्टि से आॅनलाइन एजूकेशन की संकल्पना छात्रों के व्यापक हित में नहीं है। यदि इसके बावजूद भी आॅनलाइन शिक्षा का प्रसार होता है तो शिक्षा की गुणवत्ता गिरने और शिक्षा के सर्टिफिकेशन तक सीमित रहने की संभावना बढ़ेगी।

तकनीक का अधिभार

बहुत से अभिभावक ऐसे हैं, जिनके लिए समय से महीने की फीस जमा करना बड़ी समस्या है। ऐसे अभिभावकों पर तकनीक का अधिभार अवश्य बढ़ेगा। बाल मन की गहराइयों में उतरने पर अंदाज़ा होता है कि यह कितना भयावह है। मौजूदा दौर में किशोरों को मोबाइल स्क्रीन और डेटा पैक की दुनिया अपने में समाहित कर लेना चाहती है। शायद ही कोई माता-पिता ऐसा हो जिसका 15-18 वर्ष का बच्चे की मांग एक अदद एन्ड्राएड मोबाइल फोन की नहीं है। माता-पिता और बच्चों का संबंध बाॅयोलाजिकल है। इन संबंधों को पोषित करने के क्रम में बच्चे की हर मांग को पूरा करना अपना परम दायित्व समझते हैं। इसी का फायदा बाज़ार उठाता है। जबकि बाज़ार और बच्चे का संबंध भौतिक है। बाज़ार के क्रिया-कलाप में बाॅयोलाॅजिकल के अंदर की मानवीय संवेदना शून्य है। बाज़ार कोविड-19 की आपात परिस्थिति में भी हमारे घरों की चैखटों पर अपनी दस्तकें लगातार दे रहा है। टीवी और मोबाइल में जो विज्ञापन और संदेश प्रसारित किए जा रहे हैं, उन संदेशों में बच्चों की शिक्षा के प्रति चिन्तित होने की संवेदना की अभिव्यक्ति है। लेकिन इसकी शर्त है कि आप उनके रिचार्ज और टाॅपअप कराते रहें। डाटा पैक डलवाते रहे। उनके स्कीम और आॅफर वाले मेसेज दुःख के पलों में बहुत क्रूर प्रतीत होते हैं।

सोशल डिस्टैन्सिंग में बच्चे घरों में अकेले हैं। पहले से ही एकान्तवास के मनोरंजन के प्रसार में शामिल बाज़ार निर्दयी होकर घरों में बैठे हमारे बच्चों को निगल जाना चाहता है। इसलिए कि उसका आॅनलाइन मुनाफा रूके नहीं। शिक्षा को लेकर हम सभी पहले से कहीं अधिक जागरूक हैं। क्या बाज़ार की प्रक्रिया में शामिल तमाम लोग इसी समाज के नहीं हैं? क्या उनके बच्चे नहीं हैं? क्या उनका दायित्व नहीं है कि शिक्षा को कारोबारी गतिविधियों से अलग रखने में अपना योगदान दें? क्या संकट की इस घड़ी में बाज़ार की कोई साकारात्मक सामाजिक भूमिका नहीं बनती? कम से कम परिस्थितियां सामान्य होने तक स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में मुनाफा आधारित गतिविधियों को भी लाॅकडाउन के दायरे में लाने के लिए सरकार को गाइडलाइन्स जारी करना चाहिए। यह कदम उन अभिभावकों को राहत पहुंचाने वाला होगा, जो कठिन परिस्थितियों में अपने बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य दैनिक आवश्यकताएं पूरी करते है।

अनगिनत लर्निंग एप्स और स्टडी मैटीरियल के इस्तेमाल का खतरा

ऑनलाइन शिक्षा में माध्यम के तौर पर इंटरनेट के कई ख़तरे हैं। इनको नज़र अंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। यह सच है कि इंटरनेट ने बहुत से काम आसान किए हैं। हम जानते हैं कि कोई बीस-पचीस बरस पहले एक चिट्ठी को एक शहर से दूसरे शहर तक पहुंचने में 5 से 15 या इससे भी अधिक दिनों तक का समय लगता था। अब चिट्ठियों के लिए कागज की ज़रूरत नहीं होती है। कम्प्यूटर या मोबाइल का एक बटन दबाते ही छोटी-बड़ी हर चिट्ठी दुनिया के किसी भी हिस्से में पहुंच जाती है। स्कूल-काॅलेज की कक्षाओं में शिक्षक का व्याख्यान समाप्त होने के बाद उसे फिर से सुना नहीं जा सकता है। एक स्कूल का छात्र एक ही शिक्षक का व्याख्यान सुन सकता है। लेकिन इंटरनेट हमें ऑनलाइन के जिस संसार में हमें ले जाती है, वहां एक ही विषय पर अनगिनत व्याख्यान और ट्यूटोरियल्स उपलब्ध होते हैं। यदि एक ट्यूटोरियल से विषय नहीं समझ में आता है, दूसरा, तीसरा ट्यूटोरियल्स देखने-सुनने के अपार अवसर होते हैं। बच्चे को जब तक विषय नहीं समझ में आए, वो तब तक ट्यूटोरियल्स देखने के लिए आज़ाद होता है। लेकिन इस प्रक्रिया में समय का एक बड़ा हिस्सा कब गुज़र जाता है, इस बात का पता ही नहीं चलता। ऑनलाइन की दुनिया की कोई सीमा नहीं है। इसलिए यह कहना मुश्किल है कि बच्चे का कितना समय मोबाइल से पढ़ाई में व्यतीत होगा। ऐसा भी मुमकिन है कि बच्चे का अधिकतर समय उसकी रूचि के किसी एक ही विषय सामग्री को समझने में व्यतीत हो जाए। कहा जा सकता है कि अनगिनत स्टडी मैटेरियल्स को पढ़ना बच्चों के उपयोगी समय के बरबाद होने का कारण बन सकता है। बच्चे मोबाइल का आदी बन सकते हैं। क्योंकि मोबाइल की दुनिया बाल विकास की विविधता के अनुरूप नहीं है। हर मोबाइल स्क्रीन पर आकर्षित करने वाली बहुत से विज्ञापन और एप्स मौजूद हैं, जो बच्चों को भावनात्मक और संवेगात्मक रूप से अत्यधिक सक्रिय और उत्तेजित करते हैं। बच्चों में व्यवहारगत समस्याएं उत्पन्न होती हैं। बच्चा अपने माता-पिता और वास्तविक परिवेश से दूर होने लगता है और मोबाइल की आभाषी दुनिया को ही वास्तविक समझने लगता है। वो एकान्तवास के मनोरंजन की ओर आकर्षित होता है। न समय से खाना-पीना और न समय से सोना-जागना। ऐसी परिस्थिति माता-पिता और अभिभावको के लिए चुनौती बन जाती है, कि वो अपने ही बच्चे को अपना मूल्य और संस्कार कैसे सिखाएं। बच्चा पूरी तरह बाजार और पूंजी आधारित मूल्यों का वाहक बन जाता है। जिसका खमियाज़ा माता-पिता, अभिभावक और समाज को भुगतना पड़ता है।

ऑनलाइन शिक्षा का बच्चों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव

ऑनलाइन पढ़ाई का तरीका बच्चों के लिए फायदेमंद प्रतीत हो रहा है। लेकिन मोबाइल का इस्तेमाल बच्चों के लिए कितना लाभप्रद है, इस विषय पर सरकार या किसी मेडिकल काउंसिल का कोई स्पष्ट निर्देश नहीं है। हालांकि ऑनलाइन कक्षाएं 2 घण्टे से 4 घण्टे तक चलाई जा रही हैं। लेकिन व्हाट्सएप पर विडियो मेसेजेज को देखने का कोई समय निश्चित नहीं है। हम जानते हैं कि हर बच्चा एक दूसरे से अलग होता है, जिसे वैयक्तिक भिन्नता कहते हैं। प्रत्येक बच्चे की सीखने के प्रति तत्परता, क्षमता और कार्य कुशलता भिन्न होती है। ऐसे में यह तय करना मुश्किल है कि किस बच्चे को विषय सामग्री के तौर पर उपलब्ध यूट्यूब विडियो कितनी बार देखना होगा। इसमें अनुमानित समय कितना लगेगा। यह विचारणीय है कि एक तरफ जहां डाॅक्टर बच्चों को मोबाइल का इस्तेमाल कम से कम करने की सलाह दे रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ बच्चों को आॅनलाइन पढ़ाई के नाम पर 4 से 8 घण्टे या इससे भी अधिक समय तक मोबाइल के इस्तेमाल के लिए प्रेरित किया जा रहा है। यह बच्चों की आंख और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है।

यह बात हम सभी जानते हैं कि आंखे अनमोल हैं। मोबाइल, टीवी या कम्प्यूटर स्क्रीन पर अधिक समय तक देखना आँखों को नुकसान पहुंचा सकता है। डाॅक्टरों का सुझाव है कि बच्चे देर तक टीवी न देखें। बच्चे देर तक मोबाइल न देखें। लेकिन ‘पढ़ाई छूट न जाए’ के नाम पर जब 4-5 बरस के बच्चों से लेकर 14-15 साल के बच्चों के समक्ष ऑनलाइन का विकल्प अपनाने को प्राथमिक बना दिया जाए, तो विज्ञान के शिक्षक द्वारा आंखों की संरचना पर दिए गए व्याख्यान बेमानी हो जाते हैं। आंखों की सुरक्षा पर डाॅक्टरों की सलाह बेकाम मालूम होने लगती है। स्थितियां ऐसी बन पड़ी हैं, कि विज्ञान के जो शिक्षक कल तक आंखों को प्रकाश की तेज चमक और मोबाइल व टीवी स्क्रीन से बचाने के उपाय बता रहे थे, वही शिक्षक विडियो क्लास में पढ़ाते नज़र आ रहे हैं।
मोबाइल और टीवी स्क्रीन मन और शरीर को थका देते हैं। बच्चों में इन उपकरणों का आदी बनने की प्रवृत्ति देखी गयी है। ऐसे में दो घण्टे की औपचारिक विडियो क्लास के लिए फाॅलोअप के तौर पर 2 से 4 घण्टे और मोबाइल के इस्तेमाल बाद के समय में बच्चे के बैक पेन (स्पाइनल कार्ड, कमर और पीठ दर्द) और स्पाॅन्डिलाटिस (गर्दन की हड्डियों में विकार) का कारण भी बन सकता है। स्वास्थ्य विकार के इन संभावनाओं को नज़र अंदाज करके आॅनलाइन पढ़ाई का तरीका उचित नहीं है। ऐसा करना बच्चों के दीर्घकालिक स्वास्थ्य हित में नहीं है। बच्चे देश का भविष्य हैं। यदि भविष्य का शरीर, मन और आंख से बीमार होगा, तो देश प्रगति और विकास की नई मंजिलें कैसे तय करेगा?

कुल मिला कर कहा जा सकता है कि किसी आपात परिस्थिति में बाल शिक्षा में वैकल्पिक शिक्षा के तौर पर आॅनलाइन शिक्षा बेहतर विकल्प नहीं है। बच्चों के शारीरिक, मानसिक, सांवेगिक, सामाजिक विकास में तकनीक का सीमित प्रयोग ही उचित है। आपात परिस्थिति में स्कूल बंद होने के कारण कोर्स पूरा कराने या शैक्षिक पिछड़ेपन की भरपाई के नाम पर डिजिटल तकनीक का बेलगाम इस्तेमाल बच्चों के साथ ज़्यादती है। इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि बच्चों के स्वास्थ्य सुरक्षा की कवायद के तौर पर तकनीक के बोझ तले उन्हें दबा न दिया जाए। यह किसी खेल के फाउल की तरह है। जो खेल के नियमों के खि़लाफ़ है। दर असल बच्चा बायोलाॅजिकल है। किसी भी बच्चे के साथ मनुष्य निर्मित तकनीक (या कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग) का प्रयोग करना तब तक ठीक नहीं है, जब तक कि वह बच्चा शारीरिक, मानसिक, सांवेगिक और सामाजिक रूप से परिपक्व न हो जाए। इस बात का विशेष ध्यान रखना माता-पिता और शिक्षकों से कहीं अधिक नीति निर्माताओं का है। जिन्हें यह तय करने का दायित्व है, कि बच्चों की शिक्षा कैसे होनी चाहिए।

हो सकता है कि आने वाले समय में ऑनलाइन शिक्षा का मौजूदा प्रयोग व्यापक स्तर पर अध्ययन-अध्यापन की प्रक्रिया का स्थाई अंग बन जाए या बना दिया जाए। फिर भी कहना होगा कि बाल शिक्षा में यह प्रयोग कदापि उचित नहीं है। कोई भी समाज तकनीक के इस बोझ को उठाने की स्थिति में नहीं है। इस तरह का प्रयोग बाल शिक्षा के सिद्धान्तों के अनुरूप नहीं है। यह बच्चों के स्वास्थ्य हित में नहीं है। यह बड़ी संख्या में बच्चों को शिक्षा की मूल प्रक्रिया में शामिल होने से रोकता है। अखिल भारतीय शैक्षिक सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार निजीकरण के दो दशकों के बाद भी स्कूल जाने वाले बच्चों की निर्भरता सरकारी स्कूलों पर ही अधिक है। ऐसे में ऑनलाइन शिक्षा का फार्मूला नितान्त वैयक्तिक, निजी, एक खास तबके के बच्चों के लिए उपयोगी प्रतीत होता है। इस प्रक्रिया से बाल जगत का बड़ा हिस्सा अछूता रहेगा। आने वाले समय में शैक्षिक खाई और बढ़ेगी। सरकार को ऐसी युक्ति पर विचार करना चाहिए, जिससे शिक्षा की मूल प्रक्रिया में अधिक से अधिक बच्चों को शामिल किया जा सके।

Monday, April 13, 2020

मुश्किल वक्त के इन साथियों को भी सलाम

ये वो लोग हैं, जो दूसरों के लिए अपने घरों से बाहर रहते हैं। हमारे-आपके बीच आते-जाते रहते हैं। लेकिन हमेशा से अदृश्य रहे हैं। ये लोग मज़दूर हैं, मजबूर हैं और शिक्षा से दूर हैं। ये वो लोग हैं जो अपनी सेवाएं उपलब्ध कराने की एवज में फोटो नहीं खिंचाते। इन लोगों के लिए भी आभार, धन्यवाद और सैल्यूट तो बनता ही है।

इन दिनों पूरा देश कोविड-19 के संक्रमण के फैलाव को रोकने के लिए लाॅकडाउन की आपात स्थिति में है। संक्रमण लगातार बढ़ रहा है। हज़ारों लोग कोरैंटीन और आइसोलेसन में हैं। बहुत से लोग ऐसे हैं, जो संक्रमित नहीं हैं। लेकिन ज़रा सी चूक इन्हें संक्रमण का शिकार बना सकती है। इनमें गरीब, मज़दूर, किसान हैं। बड़ी तादाद उन सुविधा प्रदाताओं की है, जिनका ठेला हर रोज़ हमारे घरों की दहलीज पर आ खड़ा होता है। कभी ‘सब्जी वाला, कभी साग वाला, कभी आलू, प्याज और टमाटर वाला बनकर। इनमें फल विक्रेता होते हैं। जो हमारे-आप के लिए कभी अमरूद ले आते हैं, कभी तो केला, सेव और सन्तरा। हम इन्हें चाट वाले, चाय वाले, चाउमिन वाले, चनाचूर वाले, फुल्की वाले, भुजा वाले और सोन पापड़ी वाले के रूप में भी देखते हैं। ये वही लोग हैं जो अपनी सेवाएं हम तक हर रोज़ पहुंचाते हैं। इन्हें पैदल, गली-गली घूमना पड़ता है। ताकि दो जून की रोटी का जुगाड़ हो सके। सामान्य दिनों में चिलचिलाती धूप में खीरा, तरबूज़ और कुल्फी की ठण्डक का एहसास इन्हीं लोगों की बदौलत कर पाते हैं। गर्मी के दिनों में जब लू से बचने के लिए लोग अपने-अपने घरों में पंखे, कूलर और एसी कमरों में होते हैं, तो ये लोग सड़कांे और गलियों की ख़ाक छानते रहते हैं। बीमार पड़ने पर दस-बीस रूपए की स्वास्थ्य सुविधाओं से काम चलाना पड़ता है। दो-चार दिन काम बंद हो जाए तो इनके सामने भूखे रहने की भी परिस्थितियां पैदा हो जाती हैं। इस समय पूरा देश लाॅकडाउन की आपात परिस्थिति में है। रोज़ कमाने-खाने वाले इन अस्थाई ठेले वालों के लिए यह परिस्थिति किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है। सोशल और फिजिकल दूरी बनाए रखना, बार-बार हाथ धुलना, फेस मास्क का इस्तेमाल इनके लिए सहज काम नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि संक्रमण का डर इन्हें नहीं है। लेकिन रोज कमाने-खाने की दिक्कतें ऐसी हैं कि यह डर कोई मायने नहीं रखता। हालात ऐसे हैं कि इन्हें घर-घर सब्जी, दूध, गैस सिलेण्डर और अन्य आवश्यक वस्तुएं पहुंचाने का बीड़ा उठाना पड़ रहा है। ठेले वालों और मज़दूरों के अर्थोपार्जन की प्रक्रिया रूक गयी है। चूंकि सब्जी और फल ज़रूरी वस्तुओं में शुमार है। इसका फायदा हर ग़रीब उठाना चाहता है। ताकि वो अपना परिवार चला सके। यही वजह है कि कोई चाट-पकौड़े वाला सब्जी बेच रहा है, तो किसी मज़दूर फल बेच जीवन चलाना पड़ रहा है। निस्संदेह इनकी आजीविका की आवश्यकताएं हैं। लेकिन इनके सेवा को कम करके नहीं देखा जा सकता है। क्योंकि ये वो लोग हैं जो महामारी की आपात परिस्थिति में साहस करके हम तक आलू, प्याज, लहसुन, अदरक, धनिया, पोदिना, नींबू और साग आदि पहुंचा रहे हैं। ताकि हमारे मुंह का ज़ायका न बिगड़ने पाए और हमारे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बीमारी से लड़ने लायक बनी रहे। अनिल मेरे बचपन का दोस्त है। उसका छोटा भाई पप्पू चाट-पकौड़ा बेचकर घर चलाता है। इन दिनों जब हम और आप अपने-अपने घरों में हैं। पप्पू चेहरे पर मुस्कान लिए सब्जियां बेच रहा है। क्योंकि पप्पू के लिए आजीविका का संकट कोरोना से भी बड़ा है। फरीद मियां उन सब्जी विक्रेताओं में हैं, जिन्होंने हवा के खिलाफ जाकर सब्जी बेचने का बीड़ा उठाया है। इस काम में वो अकेले नहीं हैं। बच्चे को भी काम में हाथ बंटाना पड़ता है।

उन महिलाओं और बच्चियों का जिक्र भी ज़रूरी है, जो आपात परिस्थिति में घण्टे-दो घण्टे के लिए ही सही, सड़क किनारे सब्जी बेचते देखी जा रही हैं। फैयाज़ भाई बढ़ई का काम करते हैं। इन दिनों काम बंद है। एक पत्नी और तीन बच्चों का परिवार बड़ा नहीं है। लेकिन संकट के बादलों से पार पाना इनके लिए भी बड़ी चुनौती है। फैयाज़ भाई इस चुनौती का सामना साग-सब्जी जैसी आवश्यक वस्तुओं को घर-घर पहुंचाकर कर रहे हैं। अशरफ भाई पंचर बनाते हैं, लेकिन दुकान बंद है और इन दिनों ठेले पर सब्ज़ियां बेच जिन्दगी गुजर-बसर कर रहे हैं। राम नरायन कुशवाहा अहिरौली से पैदल ठेले पर सब्जी लेकर मुहम्मदाबाद आते हैं। कोविड-19 से डरे हुए हैं। लाॅकडाउन में पुलिसिया डण्डा भी खाया। लेकिन पेट का सवाल इनके लिए बहुत बड़ा सवाल है। मुंह पर देसी मास्क बांधे मुस्कराते हुए कहते हैं “कि पेटवा क का करल जा।”

निज़ामुद्दीन पहले पावरलूम कारीगर थे। भीवण्डी रहते थे। जिस घर की जिम्मेदारी निभाने के लिए भीवण्डी गए थे, उसी घर की जिम्मेदारियों ने जल्द ही उन्हें घर बुला लिया। उन्हें भिवण्डी छोड़े लगभग सात बरस हो चुके हैं। मेहनत मज़दूरी करके दिहाड़ी से अपना परिवार चलाते हैं। निर्माण कार्य रूका हुआ है। अपने परिवार का पेट पालने के लिए आजकल निज़ामुद्ीन मुहल्ले के लोगों और बाज़ार के बीच कड़ी के तौर पर काम कर रहे हैं। वो हर सुबह दो घण्टे तक अपने घर से बाहर रहकर मुहल्ले के लोगों का सामान-लाने, ले जाने का काम कर रहे हैं। बदले में जो कुछ मिलता है, उससे गुजारा कर रहे हैं। निज़ामुद्दीन सन्निर्माण श्रमिक में हैं लेकिन श्रम विभाग में उनका पंजीयन नहीं है। पंजीयन के लिए दो वर्ष पहले मैंने खु़द उन्हें प्रेरित किया था। उनका फार्म भी भरवा दिया था। लेकिन शिक्षा और जागरूकता न होने के कारण निज़ामुद्दीन जैसे मज़दूर अपनी पहचान से वंचित हैं। इसलिए ऐसे मज़दूर सरकार की ओर से दी जाने वाली 1000 रूपए की सहायता राशि से भी वंचित हैं। कोविड-19 के कारण लाॅकडाउन की इस परिस्थिति में गैस सिलेण्डर पहुंचाने वाले मेहनतकश मज़दूरों की सेवाएं भी काबि़ले तारीफ़ है। यदि ये सिलेण्डर घर-घर न पहुंचाएं तो बहुत से घरों में समय पर चूल्हा जलना मुश्किल हो जाएगा। सुबह-सवेरे दूध वाले दूध न दें तो दूध पीते बच्चों को भूखा रहना पड़ेगा।

दर असल ये वो साहसी लोग हैं, जो अपने परिवार की आजीविका के लिए सड़कों पर हैं। खासकर तब जब बाकी लोग संक्रमण से सुरक्षित रहने के लिए अपने-अपने घरों में हैं। रोज कमाने-खाने वाले ये लोग पहले से शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं। लेकिन आज की कठिन परिस्थिति में इनकी सेवाएं किसी डाॅक्टर, नर्स, पुलिस-प्रशासन और सामाजिक कार्यकर्ता से कम नहीं है। ये वो लोग हैं, जो दूसरों के लिए अपने घरों से बाहर रहते हैं। हमारे-आपके बीच आते-जाते रहते हैं। लेकिन हमेशा से अदृश्य रहे हैं। ये लोग मज़दूर हैं, मजबूर हैं और शिक्षा से दूर हैं। ये वो लोग हैं जो अपनी सेवाएं उपलब्ध कराने की एवज में फोटो नहीं खिंचाते। इन लोगों के लिए भी आभार, धन्यवाद और सैल्यूट तो बनता ही है।

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Saturday, April 4, 2020

कोविड-19 का उत्पादन, मांग और आपूर्ति पर प्रभाव


ह समय गंभीर है। इस समय को संवाद, संवेदना, धैर्य और अनुशासन से ही जिया और जीता जा सकता है। यह तो अर्थशास्त्री ही बता सकते हैं कि मंदी की ओर जाती अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर आने में कितना समय लगेगा। इसलिए आर्थिक धैर्य से काम लेना हर व्यक्ति के लिए इस समय की बड़ी ज़रूरत है। जैसे वस्तुओं के इस्तेमाल में अनुशासन बरतना। भोजन नष्ट न करना। यह आत्मसात करना कि हमारे ही जैसे हज़ारों गरीब बच्चे, बड़े, बूढ़े और महिलाएं अपनी कम भोजन कर रहे हैं या फिर भूखे रह रहे हैं। हमारी संवेदना ही हमें कोविड-19 और इससे पैदा हुई आर्थिक संकट से उबरने में मदद करेगी। लेकिन आर्थिक मोर्चे पर सरकार को अभिनव प्रयास करने होंगे।


दुनिया के सैंकड़ों देश इन दिनों कोविड-19 के संक्रमण का सामना कर रहे हैं। चीन, अमेरिका, इटली, फ्रांस, स्पेन और जर्मनी आदि देशों में इस महामारी के कारण हज़ारों लोगों को जान गंवानी पड़ी है। कई देशों को जीवन और मृत्यु के बीच लाॅकडाउन की सीमा रेखा खींचनी पड़ी है। भारत भी इस संक्रमण के साए में है। ये अलग बात है कि यहां पर संक्रमण अमेरिका और यूरोपीय देशों की तरह नहीं फैला है। लेकिन संक्रमित मरीज़ों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। सरकार के बार-बार अपील करने और प्रशासन की सक्रियता का असर दिख भी रहा है। कुछ संवेदनहीन और लापरवाह लोगों को छोड़कर बाकी सभी लोग घरों में हैं। दुनियाभर के डाॅक्टर, नर्स प्रशासनिक और सामाजिक सेवा से जुड़े व्यक्ति युद्ध स्तर पर काम कर रहे हैं। सब्जी वाले, किराना स्टोर वाले, दूध वाले और रसोई ईंधन वाले भी अपनी जान जोखि़म में डाल कर दूसरे के घरों तक आवश्यक वस्तुएं पहुंचा रहे हैं। एक तरह से पूरी मानवता परीक्षा के कठिन दौर से गुज़र रही है। देखना यह है कि इस परीक्षा में सफलता कब प्राप्त होती है। चीन की बात करें, तो वहां पर संक्रमण कम होने की ख़बरें हैं। लेकिन दुनिया के शेष देशों से कोई सुखद समाचार नहीं आ रहा है। विशेषज्ञों की राय है कि अमेरिका और यूरोपीय देशों को अपनी लापरवाही का खामियाज़ा चुकाना पड़ रहा है। ऐसी आशंकाएं भी व्यक्त की जा रही हैं कि भारत जैसे देश को भी लापरवाही की कीमत चुकानी पड़ सकती है। बहरहाल, हर संकट समाधान ले कर आता है। हालांकि कोविड-19 लाइलाज है। फिर भी सोशल डिस्टैन्सिंग, बार-बार हाथ धुलना, मास्क लगाना, चेहरे पर बार-बार हाथ न ले जाना, मुंह में, नांक में हाथ न डालना आदि सुरक्षा उपायों में ही फिलहाल इस संकट का समाधान छुपा है। कम से कम कोविड-19 संक्रमण की दवा की खोज होने तक या इस संक्रमण के स्वतः समाप्त होने तक इन उपायों को अपनाए रखना होगा।

हामारी के समय में जब घरों में बंद रहना पड़ता है, तो जीवन बहुत मुश्किल और नीरस हो जाता है। लेकिन मानव सभ्यता के इतिहास में शायद ही कोई संकट ऐसा आया हो जब एक दूसरे की मदद के लिए लोग आगे न आए हों। यहां तक कि जन सेवा में लोगों की जान भी चली जाती है। कोविड-19 संक्रमण से लोगों की जान बचाने की कवायद में लगे सैंकड़ों डाॅक्टरों की मौत हो चुकी है। संकट का समय मनुष्य के मानव स्वाभाव की परीक्षा का भी समय होता है। इन दिनों भारत के विभिन्न राज्यों में बहुत से लोग यथा स्थिति में रहने को विवश हैं। सरकारों के साथ-साथ सामाजिक संस्थाएं गरीबों, भूखों और बेसहारा लोगों की मदद कर रहे हैं। यह ज़रूरी भी है। क्योंकि हर गरीब कहीं न कहीं उत्पादन की प्रक्रिया में एक किसान, मज़दूर और सेवा प्रदाता के रूप सकल घरेलू उत्पाद में अपना योगदान देता है। लेकिन इनके जीवन में स्थायित्व नहीं होता है। जो लोग आर्थिक रूप से समृद्ध हैं, वो हर परिस्थिति का सामना कर लेते हैं। लेकिन रोज कमाने-खाने वाले गरीब किसानों और मज़दूरों के लिए कोई भी आपात स्थिति कठिनाइयों भरी होती है। बहुत से घरों में चूल्हे नहीं जल पाते हैं। इन्हें कई-कई वक्त भूखे रहना पड़ता है।

न मज़दूरों का ज़िक्र ज़रूरी है, जो घर से दूर दिल्ली, मुम्बई, भिवन्डी, कोलकता, हैदराबाद, सूरत, अहमदाबाद, लुधियाना, रूद्रपुर, मेरठ, मुज़फ्फरनगर, गाज़ियाबाद, आगरा, पानीपत, फरीदाबाद, गुड़गांव, आदि शहरों में रहते हैं। मज़दूरों का अपने घर-परिवार और गांव-कस्बे से दूर बड़े-बड़े शहरों में स्थित बड़े-बड़े कल-कारखानों में काम करना दो बातें उजागर करता है। पहला यह कि मज़दूर अपने परिवार से दूर रह कर जो आजीविका अर्जित करता है, वही आजीविका गांव-कस्बे में रहकर अर्जित करना संभव नहीं होता है। क्योंकि गांव की अर्थव्यवस्था औद्योगिक नगरों से छोटी और कमज़ोर होती है।

ज़ाहिर है मज़दूरों की आर्थिक आवश्यकताएं पलायन का मुख्य कारणों में है। जिसका ज़िक्र अक्सर होता रहता है। मज़दूरों के पलायन का दूसरा पहलू यह है कि मज़दूर सिर्फ अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बड़े शहरों की ओर पलायन नहीं करते हैं। दर असल उनकी स्थिति उत्पादन की प्रक्रिया में मूल ईकाई की तरह होती है। बात खेती-किसानी की हो, उद्योग-धंधों की हो या कल-कारखानों की। हर जगह मज़दूर श्रम का योगदान करते हैं। जिसके बदले में उन्हें पारिश्रमिक मिलता है। कुछ काम हैं, जिसके बंद होने से नियोक्ता और उपभोक्ता पर तत्काल कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ता है। लेकिन मज़दूर का हित तुरंत प्रभावित होता है। बहुत से काम ऐसे हैं, जिसमें नियोजित मज़दूर यदि काम बन्द कर दें, तो उत्पादन, मांग और पूर्ति में असंतुलन जल्द ही ज़ाहिर होने लगते हैं। किसान के उदाहरण से उत्पादन, मांग और पूर्ति के आपसी संबंध को समझा जा सकता है। यदि किसी कारणवश किसान अन्न उत्पादन की प्रक्रिया से अलग हो जाएं, तो दुनिया के समक्ष खाद्यान्न संकट पैदा हो सकता है। इसी तरह यदि कल-कारखानों में मज़दूर काम करना बंद कर दें, तो उपभोक्ताओं के समक्ष आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति बाधित हो सकती है। वस्तुओं की मांग और आपूर्ति में संतुलन उत्पादन की प्रक्रिया के सुचारू रूप से गतिमान रहने पर बना रहता है। उत्पादन की प्रक्रिया इसमें शामिल व्यक्तियों पर निर्भर करता है।

चूंकि इस समय देश 21 दिनों के लाॅकडाउन की आपात परिस्थिति से गुज़र रहा है। इसलिए यह विचार करना ज़रूरी है कि इस दौरान खाद्यान्न और अन्य मूलभूत ज़रूरी वस्तुओं के उत्पादन, मांग और आपूर्ति की क्या स्थिति है। किसी भी आपात परिस्थिति में उपलब्ध संसाधनों का सही नियोजन सुनिश्चित करना शासन-प्रशासन के लिए बड़ी चुनौती होती है। जैसा कि इस समय देखा जा सकता है। सरकार ने खाद्य पदार्थों का गैर ज़रूरी भण्डारण न करने का निर्देश दिया है। सरकारी सस्ते गल्ले के वितरण केन्द्रों (राशन की दुकानों) पर पात्र गृहस्ती के कार्ड धारकों को समय से खाद्यान्न वितरण सुनिश्चित करने के लिए भी विशेष निर्देश जारी किए गए हैं। रसोई ईंधन (एलपीजी) की होम डिलिवरी पहले से कहीं बेहतर नज़र आ रही है। शासन-प्रशासन जिस प्रतिबद्धता से लाूकडाउन में जन सुविधाओं को सुचारू बनाए रखने की कोशिशों को अंजाम दे रही है, आपात परिस्थिति में गरीबों के लिए बड़ी राहत है। यह तभी तक संभव है, जब तक सरकार के पास इन वस्तुओं का पर्याप्त भण्डार उपलब्ध रहेगा। बात करते हैं उन लोगों की जो मध्य या उच्च वर्ग में आते हैं। इन लोगों के पास अपनी क्रय शक्ति है। जिसके अनुसार इस वर्ग के लोग ज़रूरी खाद्य पदार्थ खरीद सकते हैं। लेकिन यदि लाॅकडाउन को आगे बढ़ाना पड़ा तो इस वर्ग के लोगों के पास मज़बूत क्रय शक्ति होने के बाद भी इनके खाद्याान्न से वंचित रहने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। क्योंकि आपूर्ति बाधित होने का मतलब है कोई वस्तु एक स्थान से दूसरे स्थान तक नहीं पहुंचना। यद्यपि जरूरी सेवाओं की पहुंच को सुगम बनाने के प्रयास युद्ध स्तर पर चल रहे हैं। फिर भी भविष्य आने वाले समय में यह चिन्ता का एक बड़ा विषय होगा। इस पर विचार करने की आवश्यकता है। ऐसा इसलिए भी संभव है, क्योंकि आपात परिस्थिति में उत्पादन की कई बड़ी इकाइयों में उत्पादन ठप्प पड़ गया है।

हालांकि किसानों के समक्ष वो समस्या नहीं है, जो खाद्य सामग्री के विनिर्माण उद्योग के समक्ष है। साग-सब्जी की आपूर्ति सुचारू रूप से चल रही है और आगे भी जारी रहेगी। लेकिन जो द्वितीयक उत्पाद हैं। जिसे हम पैक्ड आइटम हैं के रूप में बाज़ार से खरीदते हैं, उनका उत्पादन और आपूर्ति अवश्य बाधित होगी। इससे भी बड़ी चुनौती होगी आम जन की सोच से लड़ना। जब भी आपात परिस्थितियां पैदा होती हैं, अधिशेष भण्डारण एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आती है। इसकी वजह से आपूर्ति प्रभावित होती है और कीमतें भी आसमान छूने लगती हैं। पिछले कुछ वर्षाें प्याज और टमाटर का अनुभव कुछ ऐसा ही रहा है। मनुष्य के सोच और स्वभाव में सिर्फ भण्डारण ही नहीं है बल्कि विषम परिस्थितियों में ‘मेरा भला, तो जग भला’ की प्रवृत्ति है। यह प्रवृत्ति दो रूपों में अभिव्यक्त होती है। एक तरफ विक्रेता अधिक लाभ कमाने के लिए आवश्यक वस्तुओं का भण्डारण करता है। तो दूसरी ओर उपभोक्ताओं में मज़बूत क्रय शक्ति वाले लोग एक ही बार में पूरा बाज़ार खरीद लेने के लिए लालायित रहते हैं। यदि लोगों तक मांग और आपूर्ति की सही जानकारी नहीं पहुंचती है, तो लाॅकडाउन के बाद इस तरह की परिस्थिति पैदा हो सकती हैं। यह काम इसलिए भी कठिन प्रतीत होता है क्योंकि अभी बहुत से लोग ऐसे हैं, जो माननीय प्रधानमंत्री जी के हाथ जोड़कर विनय करने पर भी घर में रहने का संयम और अनुशासन नहीं दिखा रहे हैं। ये वही लोग हैं जो एक कड़ी तोड़ कर पूरा माला बिखेर देते हैं। यदि समय रहते स्थानीय स्तर पर मांग और आपूर्ति की वस्तु स्थिति का पता लगा लिया जाए, तो आने वाले समय में व्यक्ति और बाज़ार की क्रियाओं में किसी हंगामी परिस्थिति के पैदा होने से बचा जा सकता है।

ह समय गंभीर है। इस समय को संवाद, संवेदना, धैर्य और अनुशासन से ही जिया और जीता जा सकता है। यह तो अर्थशास्त्री ही बता सकते हैं कि मंदी की ओर जाती अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर आने में कितना समय लगेगा। इसलिए आर्थिक धैर्य से काम लेना हर व्यक्ति के लिए इस समय की बड़ी ज़रूरत है। जैसे वस्तुओं के इस्तेमाल में अनुशासन बरतना। भोजन नष्ट न करना। यह आत्मसात करना कि हमारे ही जैसे हज़ारों गरीब बच्चे, बड़े, बूढ़े और महिलाएं अपनी कम भोजन कर रहे हैं या फिर भूखे रह रहे हैं। हमारी संवेदना ही हमें कोविड-19 और इससे पैदा हुई आर्थिक संकट से उबरने में मदद करेगी। लेकिन आर्थिक मोर्चे पर सरकार को अभिनव प्रयास करने होंगे।
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Monday, March 30, 2020

डर का मनोविज्ञान और कोविड-19


अच्छा तो यह है कि हम डरे हुए लोग वर्तमान स्थिति के साथ बेहतर सामंजस्य बनाने की कोशिश करें। गीत, कविता, किस्से-कहांनियां सुनें और सुनाएं। हंसे और हंसाएं। जीवन अमूल्य है। घर से बाहर जाकर या घर में रहकर बीमार होना विकल्प नहीं है। अपनी ऊर्जा साकारात्मक सोच के साथ रचनात्मक कार्यों में लगाना ही उचित है। सुख और दुःख जीवन के दो पहलू हैं। मानव सभ्यता ने विकास का लम्बा सफर इसी धूप-छांव में तय किया है।



र, भय, ख़ौफ़ का भाव मानव ही नहीं अपितु जानवरों में भी होता है। मनुष्य के दो भाव जन्मना होते हैं। एक भाव सुखद होता है तो दूसरा दुःखद होता है। डर का भाव दुःखद होता है। जिसमें मनुष्य को किसी तरह की हानि पहुंचने की संभावना होती है। ऐसी संभावना निजी और सामजिक जीवन की परिस्थितियों में उतार-चढ़ाव से बनती है। कहा जा सकता है कि मानवीय भावना के विकास में मनुष्य का परिवेश और परिस्थितियों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। मनुष्य अपने परिवेश और परिस्थिति में रहकर ही भावनात्मक परिपक्वता प्राप्त करता है। चूंकि विकास की प्रक्रिया निरन्तर जारी रहती है। इसलिए समय और परिस्थितियां बदलती हैं तो मनुष्य की भावनाओं में भी बदलाव परिलक्षित होता है। उदाहरण के लिए कोई बच्चा कमरे में अकेले होता है तो उसे डर का अनुभव होता है। किसी बच्चे को अकेले घर से बाहर जाने डर लगता है। कोई बच्चा समूह में खेलने से डरता है। डर के बहुत से कारण गिनाए जा सकते हैं। लेकिन बाल विकास की विभिन्न अवस्थाओं में भावनात्क संतुलन और सामंजस्य के लिए माता-पिता, शिक्षक और एक समय के बाद बच्चा खुद भी प्रयास करते हैं। यही कारण है कि जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है, उसके मन में डर का भाव कम होता जाता है। यदि बच्चे अपने घर और समाज के परिवेश से अलग रहते हैं, तो ऐसे बच्चों के भावनात्मक विकास में संतुलन का अभाव होता है। इसके कारण ऐसे बच्चे वयस्क होने के बाद भी डरते रहते हैं। लेकिन कुछ बच्चे परिस्थितियों के कारण बिल्कुल नहीं डरते हैं। बांसफोर समुदाय के बच्चों को चाकू और गंडासे से बांस काटने में डर नहीं लगता है। किसान के बच्चों को खेत में नंगे पांव जाने में डर नहीं लगता है। किसी महिला या हलवाई को चूल्हे पर रखे तेल के गरम कड़ाहे से जलने का डर नहीं होता है। ऐसा परिस्थितियों के कारण ही संभव हो पाता है।

स समय पूरी दुनिया के लोग डरे हुए हैं। कोविड-19 के संक्रमण के फैलाव के परिणामों की कल्पना ही डर का बड़ा कारण है। लोग घरों में रहने के लिए विवश हैं। परिस्थितियां कुछ ऐसी बन पड़ी हैं कि जन सामान्य ‘घर में रहना, सोशल डिस्टैन्सिंग और हाथ धुलते रहना’ आदि उपायों से जीवन और मौत के बीच विभाजक रेखा खींच रहा है। लेकिन इन्हीं परिस्थितियों में बहुत से ऐसे लोग हैं, जो हेल्थ सर्विसेज, पुलिस प्रशासन और सामाजिक संस्थाओं से प्रतिबद्ध होकर न सिर्फ मरीजों बल्कि असामान्य परिस्थितियों में पलायन कर रहे मज़दूरों, गरीबों और भूखों की मदद कर रहे हैं। 

लेक्ट्राॅनिक, प्रिन्ट और सोशल मीडिया में कोविड-19 से संक्रमण की ख़बरें किसी मैच के स्कोर बोर्ड की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है। टीवी और मोबाइल तकिया-बिछौना का हिस्सा बन चुका है। मैसेज आते ही फारवर्ड का बटन दब जाना आम बात है। हर कोई दूर होकर भी अपने प्रिय जनों को अद्यतन सूचनाओं से अपडेट रखने के प्रयास में है। कहना होगा कि बच्चा, जवान और बूढ़े लगभग सभी कोविड-19 की चिन्ताओं के साथ सो और जाग रहे हैं। इनकी दिनचर्या में इस संक्रमण के भय ने मजबूत स्थान बना लिया है। दर असल देश और दुनिया की परिस्थितियां कुछ ऐसी हैं कि हर किसी को डर के अनुभव से होकर गुज़रना पड़ रहा है। कोविड-19 का डर भयावह इसलिए भी है, क्योंकि इससे बचने के लिए अभी तक कोई वैक्सीन तैयार करने में सफलता नहीं प्राप्त हो सकी है।

ज मनुष्य घर में रहने वाली परिस्थितियों में फंसा हुआ है। डर का भाव कई बार मनुष्य के लिए लाभप्रद सिद्ध होता है। क्योंकि डर का भाव संयम और अनुशासन बनाने में सहायक होता है। जिसकी आवश्यकता इस कठिन परिस्थिति में सबसे अधिक है। फिर भी लोगों की भीड़ गैर-ज़रूरी तौर पर विभिन्न घरों के बाहर और मुहल्लों में बाल पंचायत, किशोर पंचायत और युवा पंचायत के रूप में देखी जा रही है। पुलिस प्रशासन शासनादेश के अन्तर्गत इन्हें माइक से बार-बार निदेश दे रही है, लेकिन इन पंचायतों में शामिल व्यक्तियों को डर का एहसास नहीं है। क्योंकि उनके व्यक्तित्व के भावनात्मक विकास में डर के भाव का संतुलित विकास नहीं हुआ है। वहीं बहुत से व्यक्ति ऐसे हैं जो सिर्फ डरे हुए नहीं हैं बल्कि उनके अन्दर डर का एक मनोविज्ञान तैयार हो चुका है। ऐसे व्यक्ति घर के बाथरूम और छत पर जाने में भी डर रहे हैं। डर का यह मनोविज्ञान भी ठीक नहीं कहा जा सकता है। जिसके लिए टीवी के डरावने स्कोर बोर्ड वाले समाचार और सोशल मीडिया में शोधहीन और अप्रमाणित स्रोतों से भेजे जाने वाले मेसेज जिम्मेदार हैं।

क्त प्रसंग व्यक्ति, परिवार और समाज में व्याप्त भय के विभिन्न रूपों को प्रदर्शित करता है।  संकट की इस घड़ी में संयम और अनुशासन का व्यवहार ही उचित है। डर का भाव मनुष्य के व्यक्तित्व का स्थाई तत्व है। यह जीवन से मुत्यु तक बना रहता है। लेकिन विकास की विभिन्न अवस्थाओं में विभिन्न परिस्थियों में मनुष्य के भाव नए अनुभवों से होकर गुज़रते हैं। निश्चित तौर पर आज देश और दुनिया के तमाम लोग डरे हुए हैं। लेकिन “भयभीत न होना और अत्यधिक भयभीत होना” दोनों ही भावों से हमें दूर रहने की आवश्यकता है। अति निडरता में सावधानी हटने पर संक्रमण का खतरा है, तो वहीं दूसरी तरफ अत्यधिक भयभीत होना व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं होता है। अच्छा तो यह है कि हम डरे हुए लोग वर्तमान स्थिति के साथ बेहतर सामंजस्य बनाने की कोशिश करें। गीत, कविता, किस्से-कहांनियां सुनें और सुनाएं। हंसे और हंसाएं। जीवन अमूल्य है। घर से बाहर जाकर या घर में रहकर बीमार होना विकल्प नहीं है। अपनी ऊर्जा साकारात्मक सोच के साथ रचनात्मक कार्यों में लगाना ही उचित है। सुख और दुःख जीवन के दो पहलू हैं। मानव सभ्यता ने विकास का लम्बा सफर इसी धूप-छांव में तय किया है।
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Friday, March 27, 2020

परीक्षा की स्थापित परिपाटी और मूल्यांकन का महत्व

पूर्णांक-प्राप्तांक तो कभी ग्रेडिंग और कभी दोनों का समावेश मौजूदा दौर की मूल्यांकन प्रणाली का हिस्सा है। प्रचलित परिपाटी के अनुरूप ही एन्ड सेम एक्जाम या अर्ध-वार्षिक और वार्षिक परीक्षाओं के आयोजन के बाद बच्चों को अगली कक्षा में प्रवेश दिया जाता है। यदि औपचारिक शिक्षा की बात करें तो बच्चों को अगले कक्षा में प्रवेश से पहले परीक्षा का आयोजन अवश्य होना चाहिए। लेकिन आपदा और महामारी की आपात परिस्थितियों में वैकल्पिक मूल्यांकन का तरीका अपनाने से इंकार नहीं किया जा सकता है।


सीखना ऐसी क्रिया है जो जीवन पर्यन्त चलती है। जन्म से ही बच्चा हर पल कुछ न कुछ सीखता रहता है। व्यक्ति, परिवार, समाज, स्कूल, स्थान और वस्तु आदि किसी बच्चे के जीवन में एक नए अध्याय की तरह होते हैं। बच्चे के परिवेश में मौजूद हर छोटी बड़ी चीज और घटनाएं उसके अनुभव संसार को समृद्ध बनाती हैं। बाल विकास की विभिन्न अवस्थाओं में मूल्यांकन एक महत्वपूर्ण सोपान होता है। मूल्यांकन से हमें किसी व्यक्ति की विभिन्न क्षमता विकास का पता चलता है। मूल्यांकन कार्य को सफलता पूर्वक संपन्न करने के लिए परीक्षा का आयोजन किया जाता है। मूल्यांकन से किसी व्यक्ति, समाज, संस्था अथवा वस्तु आदि की उपयोगिता और महत्व का अंदाज़ा होता है।  मूल्यांकन की कई विधियां प्रचलन में हैं। मूल्यांकन करते समय कई बातें ध्यान रखनी होती हैं। जैसे, मूल्यांकन किसका होना है? व्यक्ति का, समाज का, संस्था का या किसी वस्तु का। यदि किसी बच्चे का मूल्यांकन होना है तो यह जानना आवश्यक होता है कि बच्चे की आयु कितनी है? बच्चा किस कक्षा का विद्यार्थी है? यह भी ध्यान रखना होता है कि बच्चे का शैक्षिक मूल्यांकन करना है या उसकी शिक्षा में सहायक पक्षों का मूल्यांकन करना है या फिर इन दोनों का। मूल्यांकन में शिक्षा शास्त्र की स्थापित परिपाटी के अन्तर्गत मानकों की अनदेखी होने पर परिणाम संतोषजनक नहीं आते हैं। इस आलेख के माध्यम से मूल्यांकन के उन अनछुए पहलुओं को समझने की कोशिश करेंगे है, जो हमारे आस-पास के वातावरण में मौजूद होते हैं, लेकिन उन पर आम तौर पर हमारा ध्यान नहीं जाता है। इसे औपचारिक और अनौपचारिक दो भागों में वर्गीकृत करके समझा जा सकता है।
 
पचारिक और अनौपचारिक का भेद स्कूल और घर के संदर्भ में समझा जा सकता है। स्कूल का परिवेश नितान्त औपचारिक होता है। स्कूल में हर काम के लिए समय निश्चित और निर्धारित होता है। दूसरी तरफ बच्चे के घर का परिवेश होता है, जो अनौपचारिक होता है और जिसमें उसके माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्य शामिल होते हैं। घर पर जागने-सोने, ब्रश करने, नहाने, बे्रक फाॅस्ट, लन्च और डिनर आदि कार्यों का समय लगभग निश्चित होता है। अलग-अलग परिवारों में बच्चों के स्व-अध्ययन का समय भी निश्चित हो सकता है। लेकिन सीखने-सिखाने की स्कूल जैसी प्रक्रिया के लिए घर पर समय निश्चित और निर्धारित नहीं होता है। बच्चे को यह नहीं पता होता है कि उसे कब किसी व्यक्ति को नमस्ते-सलाम का संस्कार सीखना है और न ही यह पता होता है कि उसे कब उठना-बैठना, भोजन करना और पानी पीना आदि संस्कार सीखना है। घर पर सीखने की प्रक्रिया निरन्तर जारी रहती है। लगभग हर घर में बड़ें सदस्य बच्चों पर अपनी दृष्टि लगातार बनाए रखते हैं। जिसे हम ध्यान रखना कहते हैं। घर के बड़े सदस्य बच्चों को बार-बार छोटी-छोटी सीख देते रहते हैं। बच्चे अपने घर के बड़े सदस्यों को जिन कार्यों को, जिस तरह से करते हुए देखते हैं, उनका अनुसरण करने की कोशिश करते हैं। इस तरह से घर पर सीखने की प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है। इसका स्वरूप अनौपचारिक होता है। घर और समाज में किसी बच्चे का मूल्यांकन भी नितान्त अनौपचारिक होता है। घर पर सीखना और क्षमता विकास का अवसर स्कूल की अपेक्षा अधिक होता है। क्योंकि बच्चा अधिक समय घर और समाज में व्यतीत करता है।

ज़ाहिर है सीखने-सिखाने की गतिविधियां अपने औपचारिक और अनौपचारिक दोनों ही रूपों में अनवरत जारी रहती हैं। जिसका सतत मूल्यांकन भी होता रहता है। मूल्यांकन इसलिए कि रूचि, तत्परता, और क्षमता विकास का आंकलन किया जा सके। यह आंकलन ही हमें रास्ता दिखाता है कि किसी बच्चे की कौन सी क्षमता संतोष जनक ढंग से विकसित हुई है और किस पक्ष के क्षमता विकास हेतु कार्य करना है। स्कूल में इसके लिए टेस्ट और परीक्षाओं का आयोजन किया जाता है। जबकि घर पर कोई औपचारिक टेस्ट या परीक्षा का आयोजन नहीं होता है। घर पर बच्चे को दी जाने वाली सीख प्रायोगिक यानि प्रैक्टिकल होती है। इसमें कुछ परिणाम तुरंत आते हैं तो कुछ दीर्घकाल में प्रकट होते हैं। परिणाम में सुधार के लिए माता-पिता अपने बच्चे को एक ही कार्य को अच्छी तरह करने की सीख बार-बार देते हैं। लेकिन कभी टेस्ट और परीक्षा नहीं लेते हैं। बिना टेस्ट और परीक्षा के ही अपने बच्चों की क्षमताओं का आंकलन कर लेते हैं।

ब सवाल यह है कि जब घर और स्कूल, दोनों ही स्थानों पर बच्चे की रूचि, तत्परता और क्षमता विकास के बारे माता-पिता और शिक्षक भली-भांति परिचित होते हैं तो फिर उन्हें शैक्षिक मूल्यांकन की आवश्यकता क्यों पड़ती है? कोई ऐसी परिपाटी क्यों नहीं है, जिसमें बिना मूल्यांकन बिना लिखित टेस्ट और परीक्षा के हो।

मूल्यांकन को लेकर जो बातें आम हैं वो पास-फेल तक सीमित हैं। जबकि सच यह है कि मूल्यांकन एक निरंतर चलते वाली प्रक्रिया है। जिसे हम शिक्षण व्यवस्था के अंतर्गत जारी अंक पत्र या रिपोर्ट कार्ड की सीमा तक समझते हैं। जब हम अपने आस-पास मौजूद बहुत से व्यक्तियों और संस्थाओं के बारे में गंभीरता से विचार करते हैं, तो हमें अंदाज़ा होता है कि बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्होंने किसी कार्य विशेष में कभी स्कूल की पढ़ाई नहीं की लेकिन वो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपने कौशल और निपुणता का परिचय दे रहे हैं। मुरादाबाद के पीतल उद्योग या बनारस के लूम उद्योग में काम करने वाले व्यक्तियों का उदारण देखा जा सकता है। इन उद्योगों में बड़े पैमाने पर बच्चे और महिलाएं भी शामिल हैं। इससे भी महत्वपूर्ण उदाहरण किसानों का है, जो जिनके पास एग्रीकल्चर साइंस में कोई औपचारिक डिग्री या डिप्लोमा नहीं होती है। लेकिन खेती के देशज और परंपरागत तौर-तरीकों से अन्न उपजाकर देश और दुनिया की खाद्यान्न आपूर्ति में बड़ा योगदान करते हैं। यदि वो काम बन्द कर दें तो पीतल के बरतनों और बनारसी साड़ियों की चमक फीकी पड़ जाए और मनुष्य के सामने पेट भरने का संकट उत्पन्न हो जाए।

क्त के संदर्भ में ही मूल्यांकन की औपचारिकता को जानने और समझने की ज़रूरत है। यह समझ किसी परिस्थिति विशेष जैसे बाढ़, सूखा, भूकम्प, आंधी-तूफान, ठण्ड और महामारी आदि असाधारण परिस्थितियों में औपचारिक मूल्यांकन की समस्या का समाधान निकाल सकती है। हम जानते हैं कि हमारे यहां मूल्यांकन की कई परिपाटी प्रचलन में हैं। समय-समय पर इनमें बदलाव भी होता है। पूर्णांक-प्राप्तांक तो कभी ग्रेडिंग और कभी दोनों का समावेश मौजूदा दौर की मूल्यांकन प्रणाली का हिस्सा है। प्रचलित परिपाटी के अनुरूप ही एन्ड सेम एक्जाम या अर्ध-वार्षिक और वार्षिक परीक्षाओं के आयोजन के बाद बच्चों को अगली कक्षा में प्रवेश दिया जाता है। यदि औपचारिक शिक्षा की बात करें तो बच्चों को अगले कक्षा में प्रवेश से पहले परीक्षा का आयोजन अवश्य होना चाहिए। लेकिन आपदा और महामारी की आपात परिस्थितियों में वैकल्पिक मूल्यांकन का तरीका अपनाने से इंकार नहीं किया जा सकता है। 

मूल्यांकन का मौजूदा संदर्भः

म इस बात से मुंह नहीं मोड़ सकते कि इस समय देश और दुनिया एक ऐसी स्थिति में फंसे हुए हैं जहां किसी भी व्यक्ति को औपचारिक और अनौपचारिक दोनों ऐतबार से किसी भी सार्वजनिक स्थान पर इकट्ठा नहीं होने दिया जा सकता है। संक्रमण से सुरक्षित रहने के लिए जब सोशल डिस्टैन्सिंग, समय-समय पर हाथ धुलना, मास्क का इस्तेमाल करना आदि सावधानियां ही कारगर उपाय हों, तब तो और भी सचेत रहने की जरूरत होती है। ऐसी स्थिति में बच्चा पूरी तरह घर और समाज के अनौपचारिक परिवेश में होता है। उनका औपचारिक तौर पर लिखित परीक्षा लेकर शैक्षिक मूल्यांकन वास्तव में अव्यावहारिक होगा। क्योंकि बच्चों की स्वास्थ्य सुरक्षा सुनिश्चित करना परीक्षा और मूल्यांकन से अधिक आवश्यक है। यदि स्वास्थ्य और जीवन सुरक्षित रहेगा तो पढ़ने-पढ़ाने, लिखित टेस्ट और परीक्षा आधारित मूल्यांकन के अनेकों अवसर आएंगें। उत्तर प्रदेश सरकार के कक्षा एक से आठ तक के बच्चों को बिना मूल्यांकन अगली कक्षा में प्रोन्नति के आदेश को इसी पृष्ठभूमि में देखने की ज़रूरत है। जनता कफ्र्यू और लाॅकडाउन का निर्णय भी स्वास्थ्य सुरक्षा की इसी गंभीरता को उजागर करते हैं।

मेडिकल साइन्स में अब तक के रिसर्च से पता चलता है कि कोविड-19 एक ऐसी बीमारी है, जिसके इलाज की दवा अभी तक नहीं बनी है। चीन, इटली और फ्रांस आदि देशों में हुई जन-धन की क्षति को देखते हुए भारत जैसे देश में इस बीमारी के फैलने की कल्पना भयावह और विचलित कर देने वाली है। यद्यपि इस बीमारी के संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए भारत सरकार ने समय रहते पहल किया है। माननीय प्रधानमंत्री जी ने हाथ जोड़कर विनम्र निवेदन किया कि सभी लोग अपने-अपने घरों में रहे। फिर भी बहुत से व्यक्ति ऐसे हैं, जो संकट की इस घड़ी में अनुशासनहीनता का प्रदर्शन कर रहे हैं। ऐसे लोगों को समझना होगा कि किसी एक कड़ी के टूटने से मोतियों का पूरा माला बिखर जाता है। बेहतर है कि हम स्वास्थ्य को अपने दैनिक और सामाजिक जीवन में उच्च प्राथमिकता दें। फिलहाल मेडिकल साइन्सेज के विशेषज्ञों द्वारा बताई गयी सावधानियों का पालन करके ही सुरक्षित रहा जा सकता है। इस आलेख के माध्यम से मैं भी आप सभी से विनम्र निवेदन करता हूं कि अपने परिवेश में झांकते रहिए। यदि कोई बाहर है, तो उसे घर के अंदर रहने का संदेश प्रेषित करें। यदि कोई दूसरे प्रदेश या उन स्थानों से घर लौटा है तो उन्हें आवश्यक तौर पर घर के अंदर रहने के लिए कहिए। कहीं ऐसा न हो की एक की लापरवाही का परिणाम हज़ारों मासूम लोगों को भुगतना पड़े। हमें याद रखना चाहिए कि हमें मनुष्य निर्मित व्यवस्था में प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करना है। प्रकृति मनुष्यों की तरह निष्ठुर नहीं है। सूर्य, वायु, प्रकाश और जल देने में प्रकृति किसी मनुष्य के साथ भेदभाव नहीं करती है। लाॅकडाउन की परिस्थितियों को इसी व्यापक अर्थों में समझने और “हेल्प अस टू हेल्प यू“ की भावना के तहत घर के अंदर रहने के अनुशासन का पालन करना है। यदि जीवन सुरक्षित रहेगा तो प्रकृति की धूप-छांव में मनुष्य निर्मित सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में हर बात के लिए अनेकों अवसर मिलेंगे। बच्चों के मूल्यांकन के ही नहीं बल्कि जीवन में नाना प्रकार के उत्सव और विनोद के क्षणों को साझा करने के अवसरों की संभावना बनी रहेगी।
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आपात परिस्थितियों में कैसे करें मूल्यांकन?

शिक्षक को यह बात हमेशा याद रखना चाहिए कि उन्हें न तो बच्चों के ज्ञान की परीक्षा लेनी होती है और न ही अपनी योग्यता का प्रमाण देना होता है। सीखना-सिखाना दो ध्रुवीय प्रक्रिया है जिसके केन्द्र में बच्चा होता है। हमें उस बच्चे के लिए निरन्तर अवसर सृजित करने की ओर अग्रसर रहना होता है न कि पास-फेल की प्रक्रियों को सम्पन्न कराने तक सीमित रहना होता है।


जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हमें प्रतिस्पर्धा, प्रतियोगिता और परीक्षा जैसे शब्दों से दो-चार होना पड़ता है। ये शब्द हमें पास-फेल के रूप रूप में बहुत कुछ दे जाते हैं। किसी का जीवन पटरी पर सरपट दौड़ने लगता है तो किसी की ज़िन्दगी पटरी से उतर जाती है। फिर भी मनुष्य निर्मित व्यवस्था में हर व्यक्ति के जीवन में प्रतिस्पर्धा, प्रतियोगिता और परीक्षा की घड़ियां आती हैं। इस समय पूरी दुनिया में कोविड-19 नामक संक्रामक बीमारी ने आपात परिस्थितियां पैदा कर दी है। चीन, इटली और फ्रांस में संक्रमण की अनिंत्रित मामलों का संज्ञान लेते हुए भारत में केन्द्र और राज्य सरकारों को आपात कदम उठाने पड़े। यदि उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहां सरकार ने 13 मार्च को ही इसे महामारी घोषित करते हुए 14 मार्च से 22 मार्च तक कक्षा 1 से 8 तक के स्कूलों को बंद करने का आदेश जारी किया था। संक्रमण की भयावहता और स्वास्थ्य सुरक्षा को दृष्टिगत हुए यह समय 2 अप्रैल तक बढ़ाया दिया गया। इस बीच कक्षा 1 से 8 तक के बच्चों को बिना परीक्षा ही अगली कक्षा में प्रोन्नति प्रदान करने का भी आदेश जारी किया। इसके पीछे कोविड-19 के संक्रमण से बच्चों को बचाना ही प्रमुख उद्देश्य रहा है।

क्त परिस्थिति में दो बाते चिन्ता का विषय बनी हुई हैं। पहली यह कि वित्तीय वर्ष की ही तरह शैक्षिक सत्र का समय भी 1 मार्च से 31 मार्च तक होता है। लिहाजा 31 मार्च तक स्कूलों को परीक्षाएं आयोजित कर मूल्यांकन कार्य करके बच्चों को प्रगति पत्र वितरित करना होता है। इसके बाद ही कोई बच्चा अगली कक्षा में प्रान्नति के लिए अर्ह् होता है। लेकिन महामारी की आपात परिस्थितियों में छुट्टियां लगातार बढ़ानी पड़ीं हैं। पहले से चल रही परीक्षाओं को रोकना पड़ा। जिन स्कूलों में परीक्षाएं शुरू नहीं हुई थीं, उन्हें पहले टाला गया और अन्ततः निरस्त कर दिया गया। इस क्रम में 22 मार्च को जनता कफ्र्यू भी लगाना पड़ा। माननीय प्रधानमंत्री को देशवासियों से घरों में सुरक्षित बने रहने की अपील करनी पड़ी। यहां तक कि 25 अप्रैल से पूरे देश को लाॅकडाउन कर दिया। अपील किया गया कि सिर्फ आपात आवश्यकता के लिए ही बाहर निकलें। घर के अंदर बने रहने का हर संभव प्रयास करें। फिर भी बहुत से लोग घर के बाहर मुक्त रूप से निरूद्देश्य घूमने से परहेज नहीं कर रहे हैं। जिसकी चिन्ता माननीय प्रधानमंत्री जी ने ट्वीटर और 24 अप्रैल को शाम 8 बजे के अपने संबोधन में व्यक्त की। उन्होंने हाथ जोड़कर विनती की कि यदि अगले 21 दिनों तक हम अपने-अपने घरों में रह लें, तो कोविड-21 के भयावह दुष्परिणामों से लोगों को बचाया जा सकता है। इस लेख के माध्यम से मैं भी अपील करता हूं कि हममें से हर व्यक्ति नैतिक रूप से कोविड-19 के संक्रमण को फैलने से रोकने संबंधी सुझावों का अक्षरशः पालन सुनिश्चित करे। इस अपील के साथ मैं उन लोगों की समस्या पर ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूं, जो माता-पिता और शिक्षक के तौर पर अपने बच्चों की परीक्षा और मूल्यांकन को लेकर चिन्तित हैं। यह चिन्ता स्वाभाविक भी है कि क्या बिना परीक्षा किसी बच्चे को अगली कक्षा में प्रोन्नत करना उचित है? ऐसे माता-पिता और शिक्षकों की चिन्ता अपनी जगह उचित है लेकिन उन्हें यह समझना होगा कि महामारी  की परिस्थितियां असाधारण होती है। खासकर तब जब कोविड-19 जैसी संक्रामक महामारी को डाॅक्टरों, दवाइयों और उपलब्ध स्वास्थ्य सुविधाओं के दम पर टाला नहीं जा सकता है। कोविड-19 ऐसी ही बीमारी है, जो महामारी का रूप धारण कर चुकी है। ऐसे में परीक्षा और मूल्यांकन से अधिक आवश्यक यह हो जाता है कि जिसके लिए परीक्षा का आयोजन किया जाता है और जिसका मूल्यांकन करना होता है, उसके स्वास्थ्य सुरक्षा के उपाय सोचे जाएं और समय रहते उचित कदम उठाएं जाएं। स्कूलों और अन्य सार्वजनिक महत्व के स्थानों पर बच्चों को जाने से रोकना ऐसा ही कदम है। इस पर सवाल उठाना बेमानी है।

निश्चित तौर पर उन लोगों के सामने अपने बच्चों के मूल्यांकन और परीक्षा परिणामों की समस्या होगी, जो बच्चों के लिए औपचारिक परिवेश निर्माण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। महामारी की परिस्थिति में सरकार द्वारा बिना परीक्षा बच्चों को उत्तीर्ण करने के निर्णय ने शिक्षकों के समक्ष यह चुनौती पैदा कर दी है कि वो अमूक छात्र/छात्रा को उत्तीर्ण करने की कवायद के हिस्से में क्या-क्या करें। कहना होगा कि इसका समाधान सतत मूल्यांकन प्रणाली में छुपा है। सतत मूल्यांकन क्या है, इसे कैसे समझा जा सकता है और इसे एक अंक पत्र पर कैसे अभिव्यक्त किया जा सकता है आदि के प्रशिक्षण से शायद की कोई शिक्षक वंचित होंगे। क्योंकि किसी भी शिक्षक को प्रशिक्षण के दौरान मूल्यांकन के विभिन्न पक्षों के बारे में भली-भांति सीखने का अवसर मिलता है। इसलिए परेशान होने या किसी आदेश का इंतेजार करने से बेहतर है कि शिक्षण कार्य में शामिल शिक्षक अपने विद्यार्थियों को सिखाई हुई बातों यानि विषयवार विभिन्न बिन्दुओं का मनन करें कि कब कौन सा टाॅपिक बच्चों को पढ़ाया था? किन बच्चों ने टाॅपिक के बारे में अवधाराणरात्मक समझ विकसित करने में कितनी गंभीरता का परिचय दिया था? शिक्षक स्कूल में बच्चों को पढ़ाते समय के क्षणों को याद करें। बच्चों के चेहरे उनकी आंखों के सामने आएंगे। बच्चों का व्यवहार, आचरण और शिष्टाचार स्पष्ट याद आने लगेगा। विषय विशेष में अलग-अलग बच्चों का लिखित और मौखिक प्रदर्शन भी याद आएगा। बच्चों के नाम क्रम से लिखकर प्रत्येक नाम पर विचार करें। निश्चित तौर पर एक पूरे शैक्षिक सत्र ही नहीं बल्कि पिछले कई वर्षों से बच्चों के साथ सीखने-सिखाने के ढ़ेर सारे क्षणों की याद ताज़ा हो उठेगी। फिर यह भी याद आएगा कि अमूक छात्र/छात्रा का विषय विशेष में क्या स्थिति रही है। इस तरह से मूल्यांकन का कार्य सम्पन्न किया जा सकता है।

ज देश और दुनिया के समक्ष जीवन बचाने का जो संकट पैदा हुआ है, उसमें सतत मूल्यांकन की प्रणाली को व्यावहारिक तौर पर अपना कर मूल्यांकन की समस्या का समाधान किया जा सकता है। यदि इसके विस्तार में जाएं तो यह मानना होगा कि अर्द्ध-वार्षिक और वार्षिक लिखित परीक्षा की स्थापित परिपाटी के प्रतिकूल मूल्यांकन की इस प्रणाली को व्यापक स्तर पर कम से कम कक्षा 8 तक के शिक्षण कार्य में अपनाना जा सकता है। लेकिन यह तभी संभव है जब हर शिक्षक पक्षपात, भेदभाव, वैयक्ति द्वेष और घृणा आदि भावों से स्वयं को दूर रखने के लिए स्वयं से ही वचनवद्ध हो।

हुत सारे शिक्षकों के लिए सतत मूल्यांकन का कार्य बोझिल हो सकता है। यह तभी होता है जब हम किन्हीं अपरिहार्य कारणों से अपने विषय और बिंदु पर केन्द्रित नहीं होते। यह समझना ज़रूरी है कि सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में विषय बिन्दु पर केन्द्रित होने और केन्द्रित न होने के क्या मायने हैं। सीखने-सिखाने की गतिविधियां दो ध्रुवों के बीच बच्चों को केन्द्र में रखकर किया जाता है। बच्चा जिस केन्द्र में होता है उसके एक ध्रुव पर माता-पिता और अभिभावक होते हैं। वहीं दूसरे ध्रुव पर स्कूल और वहां शिक्षण कार्य में शामिल अध्यापक/अध्यापिका होते हैं। दोनों के काम बंटे हुए होने के बाद भी दोनों को केन्द्र में स्थित बच्चे के लिए अपनी दिनचर्या तय करनी होती है और समर्पित भाव से प्रयास करना पड़ता है। क्योंकि केन्द्र में स्थित बच्चा ठीक अवस्था में होगा तो घर-परिवार, देश और समाज को स्थायित्व मिलेगा। 

केन्द्र में स्थित बच्चे की कल्पना में भविष्य के एक सभ्य नागरिक, समाज सेवी, राजनीति कर्मी, डाॅक्टर, इंजीनीयर, वकील, प्रोफेशनल, किसान और मज़दूर आदि सभी शामिल होते हैं। ये सारे पहचान एक दूसरे के पूरक होते हैं। इनमें परस्पर सहजीविता की कल्पना निहीत होती है। यदि ऐसा नहीं होता तो केन्द्र में स्थित बच्चे के लिए माता-पिता और शिक्षकों को प्रयास ही नहीं करना पड़ता। बच्चे को न तो स्कूल के औपचारिक परिवेश में अच्छे मूल्यों और गुणात्मक सीख की आवश्यकता होती और न ही घर और समाज के अनौपचारिक परिवेश में माता-पिता को अपने बच्चों को परंपरा और संस्कार सिखाने की जिम्मेदारी निभानी पड़ती। मानव जीवन के इस सच को परीक्षा और मूल्यांकन की स्थापित प्रणाली से जोड़कर देखें तो अंदाज़ा होता है कि माता-पिता व्यक्तिगत और अनौपचारिक तौर पर अपने बच्चों का सतत मूल्यांकन करते रहते हैं। यही वजह है कि वो हर दिन, हर क्षण अपने बच्चों के समक्ष जीवन के उत्तम आचार, विचार और व्यवहार के साथ-साथ श्रेष्ठ अनुशासन, आचरण और शिष्टाचार आदि के आदर्श प्रस्तुत करते रहते हैं। ताकि बच्चे के व्यक्तित्व में ये बातें मूल्य के रूप में स्थापित और विकसित हो सकें।

ब बात करते हैं दूसरे ध्रुव की जहां शिक्षक होते हैं। शिक्षक केन्द्र में स्थित बच्चे के लिए औपचारिक प्रयास करते हैं। स्कूल के औपचारिक परिवेश में बच्चे को अनुशासन और शिष्टाचार के साथ-साथ निर्धारित पाठ्यक्रम को समयबद्ध तरीके से पढ़ाना-सिखाना शिक्षक का दायित्व होता है। शिक्षक के ऊपर यह जिम्मेदारी होती है कि वो बच्चों में विभिन्न विषयों से संबंधित विभिन्न बिन्दुओं की समझ बनाने में उसी समर्पण भाव का परिचय दे जैसा कि घर के अनौपचारिक परिवेश में माता-पिता और अभिभावक संस्कार की सीख देते समय दिखाते हैं। स्कूली शिक्षा में ऐसा करना ही शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सुखद समझा जाता है। यदि मौजूदा दौर में स्कूली शिक्षा की बात करें तो लगभग सभी स्कूल और शिक्षक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए समर्पित नज़र आते हैं। मूल्यांकन की सतत प्रक्रिया को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। उक्त बातों का ध्यान करके कोई भी शिक्षक अपने विद्यार्थियों की प्रगति रिपोर्ट तैयार कर सकता है।

दि किसी शिक्षक के समक्ष फिर भी संशय की स्थिति हो कि ऐसी स्थिति में क्या करें जब उन्हें दो-तीन घण्टे की परीक्षा की प्रचलित परिपाटी के बिना ही बच्चों को पास करना है, तो उसे यह समझ लेना चाहिए कि अब तक वो जिन बच्चों का मूल्यांकन परीक्षा की स्थापित परिपाटी से करते रहे हैं, अब उन्हीं बच्चों के सामने अपना मूल्यांकन प्रस्तुत करना है। जो शिक्षक पूरे शैक्षिक सत्र भर केन्द्र में स्थित बच्चे के लिए समर्पित भाव से प्रयास करते हैं, उनके लिए किसी बच्चे का मूल्यांकन कोई बड़ी बात नहीं होती। यह भी सत्य है कि जब कोई शिक्षक विद्यार्थियों का मूल्यांकन करता है, तो इस प्रक्रिया में उस शिक्षक का खु़द का मूल्यांकन भी स्वतः होता रहता है। इसलिए ज़रूरी है कि चैतन्य होकर शिक्षा शास्त्र के सिद्धांतों को दृष्टिगत रखते हुए शिक्षक बिना औपचारिक परीक्षा के विद्यार्थियों का शैक्षिक मूल्यांकन कर प्रगति पत्र तैयार करें। इस काम को बिना किसी असहजता से किया जा सकता है। क्योंकि शिक्षक को अपने विद्यार्थियों के साथ स्कूल के औपचारिक परिवेश में एक या एक से अधिक शैक्षिक सत्र व्यतीत करने का अवसर मिलता है। शिक्षक को यह बात हमेशा याद रखना चाहिए कि उन्हें न तो बच्चों के ज्ञान की परीक्षा लेनी होती है और न ही अपनी योग्यता का प्रमाण देना होता है। सीखना-सिखाना दो धु्रवीय प्रक्रिया है जिसके केन्द्र में बच्चा होता है। हमें उस बच्चे के लिए निरन्तर अवसर सृजित करने की ओर अग्रसर रहना होता है न कि पास-फेल की प्रक्रियों को सम्पन्न कराने तक सीमित रहना होता है।

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