Saturday, April 4, 2020

कोविड-19 का उत्पादन, मांग और आपूर्ति पर प्रभाव


ह समय गंभीर है। इस समय को संवाद, संवेदना, धैर्य और अनुशासन से ही जिया और जीता जा सकता है। यह तो अर्थशास्त्री ही बता सकते हैं कि मंदी की ओर जाती अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर आने में कितना समय लगेगा। इसलिए आर्थिक धैर्य से काम लेना हर व्यक्ति के लिए इस समय की बड़ी ज़रूरत है। जैसे वस्तुओं के इस्तेमाल में अनुशासन बरतना। भोजन नष्ट न करना। यह आत्मसात करना कि हमारे ही जैसे हज़ारों गरीब बच्चे, बड़े, बूढ़े और महिलाएं अपनी कम भोजन कर रहे हैं या फिर भूखे रह रहे हैं। हमारी संवेदना ही हमें कोविड-19 और इससे पैदा हुई आर्थिक संकट से उबरने में मदद करेगी। लेकिन आर्थिक मोर्चे पर सरकार को अभिनव प्रयास करने होंगे।


दुनिया के सैंकड़ों देश इन दिनों कोविड-19 के संक्रमण का सामना कर रहे हैं। चीन, अमेरिका, इटली, फ्रांस, स्पेन और जर्मनी आदि देशों में इस महामारी के कारण हज़ारों लोगों को जान गंवानी पड़ी है। कई देशों को जीवन और मृत्यु के बीच लाॅकडाउन की सीमा रेखा खींचनी पड़ी है। भारत भी इस संक्रमण के साए में है। ये अलग बात है कि यहां पर संक्रमण अमेरिका और यूरोपीय देशों की तरह नहीं फैला है। लेकिन संक्रमित मरीज़ों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। सरकार के बार-बार अपील करने और प्रशासन की सक्रियता का असर दिख भी रहा है। कुछ संवेदनहीन और लापरवाह लोगों को छोड़कर बाकी सभी लोग घरों में हैं। दुनियाभर के डाॅक्टर, नर्स प्रशासनिक और सामाजिक सेवा से जुड़े व्यक्ति युद्ध स्तर पर काम कर रहे हैं। सब्जी वाले, किराना स्टोर वाले, दूध वाले और रसोई ईंधन वाले भी अपनी जान जोखि़म में डाल कर दूसरे के घरों तक आवश्यक वस्तुएं पहुंचा रहे हैं। एक तरह से पूरी मानवता परीक्षा के कठिन दौर से गुज़र रही है। देखना यह है कि इस परीक्षा में सफलता कब प्राप्त होती है। चीन की बात करें, तो वहां पर संक्रमण कम होने की ख़बरें हैं। लेकिन दुनिया के शेष देशों से कोई सुखद समाचार नहीं आ रहा है। विशेषज्ञों की राय है कि अमेरिका और यूरोपीय देशों को अपनी लापरवाही का खामियाज़ा चुकाना पड़ रहा है। ऐसी आशंकाएं भी व्यक्त की जा रही हैं कि भारत जैसे देश को भी लापरवाही की कीमत चुकानी पड़ सकती है। बहरहाल, हर संकट समाधान ले कर आता है। हालांकि कोविड-19 लाइलाज है। फिर भी सोशल डिस्टैन्सिंग, बार-बार हाथ धुलना, मास्क लगाना, चेहरे पर बार-बार हाथ न ले जाना, मुंह में, नांक में हाथ न डालना आदि सुरक्षा उपायों में ही फिलहाल इस संकट का समाधान छुपा है। कम से कम कोविड-19 संक्रमण की दवा की खोज होने तक या इस संक्रमण के स्वतः समाप्त होने तक इन उपायों को अपनाए रखना होगा।

हामारी के समय में जब घरों में बंद रहना पड़ता है, तो जीवन बहुत मुश्किल और नीरस हो जाता है। लेकिन मानव सभ्यता के इतिहास में शायद ही कोई संकट ऐसा आया हो जब एक दूसरे की मदद के लिए लोग आगे न आए हों। यहां तक कि जन सेवा में लोगों की जान भी चली जाती है। कोविड-19 संक्रमण से लोगों की जान बचाने की कवायद में लगे सैंकड़ों डाॅक्टरों की मौत हो चुकी है। संकट का समय मनुष्य के मानव स्वाभाव की परीक्षा का भी समय होता है। इन दिनों भारत के विभिन्न राज्यों में बहुत से लोग यथा स्थिति में रहने को विवश हैं। सरकारों के साथ-साथ सामाजिक संस्थाएं गरीबों, भूखों और बेसहारा लोगों की मदद कर रहे हैं। यह ज़रूरी भी है। क्योंकि हर गरीब कहीं न कहीं उत्पादन की प्रक्रिया में एक किसान, मज़दूर और सेवा प्रदाता के रूप सकल घरेलू उत्पाद में अपना योगदान देता है। लेकिन इनके जीवन में स्थायित्व नहीं होता है। जो लोग आर्थिक रूप से समृद्ध हैं, वो हर परिस्थिति का सामना कर लेते हैं। लेकिन रोज कमाने-खाने वाले गरीब किसानों और मज़दूरों के लिए कोई भी आपात स्थिति कठिनाइयों भरी होती है। बहुत से घरों में चूल्हे नहीं जल पाते हैं। इन्हें कई-कई वक्त भूखे रहना पड़ता है।

न मज़दूरों का ज़िक्र ज़रूरी है, जो घर से दूर दिल्ली, मुम्बई, भिवन्डी, कोलकता, हैदराबाद, सूरत, अहमदाबाद, लुधियाना, रूद्रपुर, मेरठ, मुज़फ्फरनगर, गाज़ियाबाद, आगरा, पानीपत, फरीदाबाद, गुड़गांव, आदि शहरों में रहते हैं। मज़दूरों का अपने घर-परिवार और गांव-कस्बे से दूर बड़े-बड़े शहरों में स्थित बड़े-बड़े कल-कारखानों में काम करना दो बातें उजागर करता है। पहला यह कि मज़दूर अपने परिवार से दूर रह कर जो आजीविका अर्जित करता है, वही आजीविका गांव-कस्बे में रहकर अर्जित करना संभव नहीं होता है। क्योंकि गांव की अर्थव्यवस्था औद्योगिक नगरों से छोटी और कमज़ोर होती है।

ज़ाहिर है मज़दूरों की आर्थिक आवश्यकताएं पलायन का मुख्य कारणों में है। जिसका ज़िक्र अक्सर होता रहता है। मज़दूरों के पलायन का दूसरा पहलू यह है कि मज़दूर सिर्फ अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बड़े शहरों की ओर पलायन नहीं करते हैं। दर असल उनकी स्थिति उत्पादन की प्रक्रिया में मूल ईकाई की तरह होती है। बात खेती-किसानी की हो, उद्योग-धंधों की हो या कल-कारखानों की। हर जगह मज़दूर श्रम का योगदान करते हैं। जिसके बदले में उन्हें पारिश्रमिक मिलता है। कुछ काम हैं, जिसके बंद होने से नियोक्ता और उपभोक्ता पर तत्काल कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ता है। लेकिन मज़दूर का हित तुरंत प्रभावित होता है। बहुत से काम ऐसे हैं, जिसमें नियोजित मज़दूर यदि काम बन्द कर दें, तो उत्पादन, मांग और पूर्ति में असंतुलन जल्द ही ज़ाहिर होने लगते हैं। किसान के उदाहरण से उत्पादन, मांग और पूर्ति के आपसी संबंध को समझा जा सकता है। यदि किसी कारणवश किसान अन्न उत्पादन की प्रक्रिया से अलग हो जाएं, तो दुनिया के समक्ष खाद्यान्न संकट पैदा हो सकता है। इसी तरह यदि कल-कारखानों में मज़दूर काम करना बंद कर दें, तो उपभोक्ताओं के समक्ष आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति बाधित हो सकती है। वस्तुओं की मांग और आपूर्ति में संतुलन उत्पादन की प्रक्रिया के सुचारू रूप से गतिमान रहने पर बना रहता है। उत्पादन की प्रक्रिया इसमें शामिल व्यक्तियों पर निर्भर करता है।

चूंकि इस समय देश 21 दिनों के लाॅकडाउन की आपात परिस्थिति से गुज़र रहा है। इसलिए यह विचार करना ज़रूरी है कि इस दौरान खाद्यान्न और अन्य मूलभूत ज़रूरी वस्तुओं के उत्पादन, मांग और आपूर्ति की क्या स्थिति है। किसी भी आपात परिस्थिति में उपलब्ध संसाधनों का सही नियोजन सुनिश्चित करना शासन-प्रशासन के लिए बड़ी चुनौती होती है। जैसा कि इस समय देखा जा सकता है। सरकार ने खाद्य पदार्थों का गैर ज़रूरी भण्डारण न करने का निर्देश दिया है। सरकारी सस्ते गल्ले के वितरण केन्द्रों (राशन की दुकानों) पर पात्र गृहस्ती के कार्ड धारकों को समय से खाद्यान्न वितरण सुनिश्चित करने के लिए भी विशेष निर्देश जारी किए गए हैं। रसोई ईंधन (एलपीजी) की होम डिलिवरी पहले से कहीं बेहतर नज़र आ रही है। शासन-प्रशासन जिस प्रतिबद्धता से लाूकडाउन में जन सुविधाओं को सुचारू बनाए रखने की कोशिशों को अंजाम दे रही है, आपात परिस्थिति में गरीबों के लिए बड़ी राहत है। यह तभी तक संभव है, जब तक सरकार के पास इन वस्तुओं का पर्याप्त भण्डार उपलब्ध रहेगा। बात करते हैं उन लोगों की जो मध्य या उच्च वर्ग में आते हैं। इन लोगों के पास अपनी क्रय शक्ति है। जिसके अनुसार इस वर्ग के लोग ज़रूरी खाद्य पदार्थ खरीद सकते हैं। लेकिन यदि लाॅकडाउन को आगे बढ़ाना पड़ा तो इस वर्ग के लोगों के पास मज़बूत क्रय शक्ति होने के बाद भी इनके खाद्याान्न से वंचित रहने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। क्योंकि आपूर्ति बाधित होने का मतलब है कोई वस्तु एक स्थान से दूसरे स्थान तक नहीं पहुंचना। यद्यपि जरूरी सेवाओं की पहुंच को सुगम बनाने के प्रयास युद्ध स्तर पर चल रहे हैं। फिर भी भविष्य आने वाले समय में यह चिन्ता का एक बड़ा विषय होगा। इस पर विचार करने की आवश्यकता है। ऐसा इसलिए भी संभव है, क्योंकि आपात परिस्थिति में उत्पादन की कई बड़ी इकाइयों में उत्पादन ठप्प पड़ गया है।

हालांकि किसानों के समक्ष वो समस्या नहीं है, जो खाद्य सामग्री के विनिर्माण उद्योग के समक्ष है। साग-सब्जी की आपूर्ति सुचारू रूप से चल रही है और आगे भी जारी रहेगी। लेकिन जो द्वितीयक उत्पाद हैं। जिसे हम पैक्ड आइटम हैं के रूप में बाज़ार से खरीदते हैं, उनका उत्पादन और आपूर्ति अवश्य बाधित होगी। इससे भी बड़ी चुनौती होगी आम जन की सोच से लड़ना। जब भी आपात परिस्थितियां पैदा होती हैं, अधिशेष भण्डारण एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आती है। इसकी वजह से आपूर्ति प्रभावित होती है और कीमतें भी आसमान छूने लगती हैं। पिछले कुछ वर्षाें प्याज और टमाटर का अनुभव कुछ ऐसा ही रहा है। मनुष्य के सोच और स्वभाव में सिर्फ भण्डारण ही नहीं है बल्कि विषम परिस्थितियों में ‘मेरा भला, तो जग भला’ की प्रवृत्ति है। यह प्रवृत्ति दो रूपों में अभिव्यक्त होती है। एक तरफ विक्रेता अधिक लाभ कमाने के लिए आवश्यक वस्तुओं का भण्डारण करता है। तो दूसरी ओर उपभोक्ताओं में मज़बूत क्रय शक्ति वाले लोग एक ही बार में पूरा बाज़ार खरीद लेने के लिए लालायित रहते हैं। यदि लोगों तक मांग और आपूर्ति की सही जानकारी नहीं पहुंचती है, तो लाॅकडाउन के बाद इस तरह की परिस्थिति पैदा हो सकती हैं। यह काम इसलिए भी कठिन प्रतीत होता है क्योंकि अभी बहुत से लोग ऐसे हैं, जो माननीय प्रधानमंत्री जी के हाथ जोड़कर विनय करने पर भी घर में रहने का संयम और अनुशासन नहीं दिखा रहे हैं। ये वही लोग हैं जो एक कड़ी तोड़ कर पूरा माला बिखेर देते हैं। यदि समय रहते स्थानीय स्तर पर मांग और आपूर्ति की वस्तु स्थिति का पता लगा लिया जाए, तो आने वाले समय में व्यक्ति और बाज़ार की क्रियाओं में किसी हंगामी परिस्थिति के पैदा होने से बचा जा सकता है।

ह समय गंभीर है। इस समय को संवाद, संवेदना, धैर्य और अनुशासन से ही जिया और जीता जा सकता है। यह तो अर्थशास्त्री ही बता सकते हैं कि मंदी की ओर जाती अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर आने में कितना समय लगेगा। इसलिए आर्थिक धैर्य से काम लेना हर व्यक्ति के लिए इस समय की बड़ी ज़रूरत है। जैसे वस्तुओं के इस्तेमाल में अनुशासन बरतना। भोजन नष्ट न करना। यह आत्मसात करना कि हमारे ही जैसे हज़ारों गरीब बच्चे, बड़े, बूढ़े और महिलाएं अपनी कम भोजन कर रहे हैं या फिर भूखे रह रहे हैं। हमारी संवेदना ही हमें कोविड-19 और इससे पैदा हुई आर्थिक संकट से उबरने में मदद करेगी। लेकिन आर्थिक मोर्चे पर सरकार को अभिनव प्रयास करने होंगे।
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