Wednesday, May 15, 2013

समीक्षा - महिलाओं के अधिकार और मुस्लिम समाज

रीब डेढ़ साल पहले एक्शनएड, लखनऊ और सेन्टर फार हारमोनी एण्ड पीस, वाराणसी के सौजन्य से डा॰ असग़र अली इंजीनियर की किताब Rights of Women and Muslim Society के हिन्दी अनुवाद “महिलाओं के अधिकार और मुस्लिम समाज को पढ़ने का अवसर मिला था। इस दौरान मैंने हिन्दी अनुवाद का संपादन भी किया और एक संक्षिप्त समीक्षा भी लिखी जो प्रकाशित नहीं हो सकी थी। हिन्दी-उर्दू मीडिया/सोशल मीडिया के दोस्त चाहें तो यह समीक्षा अपने यहां प्रकाशित कर सकते हैं।

मौजूदा दौर में मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों पर जो लेखक, बुद्धिजीवी, समाज विज्ञानी और पत्रकार अपनी लेखनी के माध्यम से समाज में जागरूकता और चेतना फैलाने का काम कर रहे हैं उनमें एक महत्वपूर्ण नाम डा॰ असग़र अली इंजीनियर का है। डा॰ इंजीनियर सेन्टर फार स्टडी आफ सोसाइटी एण्ड सेक्युलरिज्म के माध्यम से अपने विचार समाज तक पहुंचाते रहे हैं। अब तक डा॰ इंजीनियर द्वारा लिखी और संपादित 65 से अधिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। किताबों की इस कड़ी में Rights of Women and Muslim Society (महिलाओं के अधिकार और मुस्लिम समाज) इस दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है कि यह किताब हमें ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के बारे में न सिर्फ जानकारी देती है बल्कि जागरूक और सचेत भी करती है। इस पुस्तक में डा॰ इंजीनियर ने मुस्लिम समाज के परिप्रेक्ष्य में महिलाओं के अधिकारों पर विस्तार से प्रकाश डाला है। इस पुस्तक में इस्लाम के अविर्भाव से पहले और बाद के अरबी समाज में महिलाओं की स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने के साथ-साथ कुरान की आयतों को संदर्भित करके महिलाओं के अधिकारों के बारे जानकारी दी गयी है। इस किताब के माध्यम से इस्लाम और मुसलमान के फर्क को भी स्पष्ट करने की कोशिश की गयी है। यह बताने की कोशिश की गयी है कि किन ऐतिहासिक और सांस्कृतिक कारणों के चलते मुस्लिम महिलाओं के बारे तरह-तरह के धारणाएं स्थापित हुईं और उन्हें सामाजिक वैधता प्रदान की गयी।
डा॰ इंजीनियर का मानना है कि इस्लामिक देश महिला-पुरूष समानता के प्रति रूढि़वादी हैं। लैंगिक न्याय सुनिश्चित करने में इस्लामी दुनिया काफी पीछे है। उनके अनुसार कुरान में महिलाओं को पुरूषों के बराबर अधिकार का उल्लेख है, लेकिन उलेमा वर्ग के फतवों के कारण लैंगिक न्याय सुनिश्चित नहीं हो पा रहा है। डा॰ इंजीनियर ने इस किताब के माध्यम से बताने की कोशिश की है कि महिलाओं के प्रति मुस्लिम समाज का भेदभाव परक व्यवहार के लिए कुरान नहीं बल्कि शरीयत/हदीस (इस्लामी कानून) के रूप में इसकी अलग-अलग व्याख्याएं जिम्मेदार हैं। हिजाब (परदा), श्रृंगार, बीबी को मारना-पीटना, महिलाओं को अर्धसाक्षी मानना, उत्तराधिकार में उनका हिस्सा, शादी, तलाक और हलाला आदि मुस्लिम महिलाओं से संबंधित निजी कानूनों पर यह किताब एक तार्किक बहस प्रस्तुत करता है।
विभिन्न मुद्दों पर विचार संप्रेषण में लेखक ने उदारवादी नज़रया अपनाया है। लेखक ने विवादित मुद्दों से खुद को अलग रखते हुए कुरान में उल्लिखित महिला अधिकारों की ओर ध्यान दिलाने की कोशिश की है। लेखक ने शादी और तलाक जैसे मामलों में कुरान की व्याख्या में सामंती और पुरूष सत्तात्मक सोच को प्रभावी कारण माना है। उनके अनुसार अहदिसों के ज़रिए महिला अधिकारों को कर्तव्य आधारित कर दिया गया है। इसी संदर्भ में डा॰ इंजीनियर अशरफ थानवी (बहिश्ति जे़वर के लेखक/संपादक) के विचारों का विरोध करते भी दिखते हैं।
किताब के अन्तिम भाग में लेखक ने समकालीन मुस्लिम दुनिया में महिलाओं की शैक्षिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थिति का तुलनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। किताब के इस अध्याय में मिश्र व अन्य मुस्लिम देशों में पश्चिमी साम्राज्यवादी ताकतों के हस्तक्षेप और महिला सशक्तीकरण की राह में उदारवादी मुस्लिम नेतृत्व की बात की गयी है। किताब के इस हिस्से में मुस्लिम दुनिया में महिलाओं के शैक्षिक व आर्थिक पिछड़ापन के साथ रूढ़ीवादी मौलवियों और सामंती जमींदारों के बीच गठबंधन को जिम्मेदार बताया गया है। समकालीन वैश्विक चुनौतियों के संदर्भ में सऊदी अरब, खाड़ी और अफगानिस्तान में महिलाओं की दयनीय स्थिति के कारणों में अमेरिकी प्रभुत्व और मुल्ला वर्ग की भूमिका को महत्वपूर्ण बताया गया है। इस क्रम में लेखक ने मोरक्को और ट्यूनिशिया को उन देशों की श्रेणी में रखा है जहां किसी हद तक महिलाओं को मौलिक अधिकार की प्राप्ति हुई है। लेकिन कुवैत में महिला अधिकारों की बहाली का मुख्य कारण इराक के विरूद्ध संघर्ष में एकजुटता कायम करना बताया है। दुनिया के विभिन्न मुस्लिम देशों में हो रहे बदलावों के बीच लेखक आशा व्यक्त करते हैं कि महिलाएं आवाज़ उठा रही हैं और उनके हालात बदल रहे हैं।
हरहाल, यह किताब पूर्व इस्लामी समाज-संस्कृति और इस्लाम के अविर्भाव के बाद की सामाजिक-सांस्कृतिक उतार-चढ़ाव के अध्ययन की अपील करता है। लेखक का मंतव्य है कि इस किताब से कुरान की व्याख्याओं पर सही राय कायम करके महिला अधिकारों और बराबरी की मूल भावना को समझा जाए। ताकि मुस्लिम महिलाओं के बारे में पहले से स्थापित मिथक, पूर्वाग्रह और दुराग्रह को समाप्त किया जा सके। लेखक धर्मनिरपेक्ष कानूनों के प्रवर्तन को दीर्घकालीक कार्य बताते हुए बीच का रास्ता अपनाते हुए शरीयत कानूनों को संहिताबद्ध करने की बात पर बल देते हैं, ताकि शादी, तलाक, उत्तराधिकार, तलाक के मामले में बच्चों की अभिरक्षा, विवाह की स्थिरता व तलाक के बाद भरण-पोषण को विधिक रूप प्रदान किया जा सके।
शा है यह किताब आने वाले समय में मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों पर होने वाली बहस को नई दिशा प्रदान करेगा।