Tuesday, June 18, 2019

बच्चे, तकनीक और किताबें

"इस समय के बच्चों की तुलना उन पंक्षियों से करना बेमानी नहीं है, जो चारों ओर से शिकारी के जाल में फंसे हुए हों और जिनके समक्ष उड़ान भरने की चुनौती हो।"
दिन के लगभग ढाई बजे हैं। सुरेश माली के दरवाजे़ पर कुछ बच्चे मतदान संबंधी चर्चा कर रहे होते हैं। सुरेश माली के बड़े बेटे रमेश के चेहरे पर प्रसन्नता की लकीरें किसी खुशी का इज़हार कर रही थीं। उसने बताया “चाचा आज पहली बार वोट किया है।” पता चला कि सुरेश माली का बड़ा बेटा 23 साल का हो चुका है, और इस उम्र में उसने पहली बार वोट किया। वो बहुत उत्साहित होता है। उसने इसी साल पटना में रहकर एसी एण्ड रेफ्रीजरेशन में आई. टी. आई. की पढ़ाई की है। 23 मई को गाजियाबाद स्थित भारत इलेक्ट्राॅनिक्स लिमिटेड में अप्रैन्टिस के लिए इंटरविव है। अभी हम बात कर रहे होते हैं कि उसके घर के अन्दर, जो उसके माता-पिता की फूल-माला की दुकान भी है, से उसके भाई संजय की आवाज़ आती है कि “मैं जब 18 साल का हो जाउंगा तो ................... सरकार बनाउंगा।” निश्चित तौर पर अगले चुनाव यानि पांच साल के बाद संजय 18 की उम्र पूरी कर मतदाता की भूमिका में होगा। लेकिन मैं देर रात तक उसकी कही बात से बेचैन रहा। शायद इस बेचैनी का कारण मेरा लेखक और चिंतक होना और इससे बढ़कर अपने आस-पास के माहौल से संवेदित होना है। मैं सोचता रहा कि जिस उम्र में संजय जैसे बच्चों को अपने बड़े भाई रमेश की तरह पढ़ाई की बातें सोचनी चाहिए और उनकी अभिव्यक्तियों में कापी-कलम और किताब की बातें होनी चाहिएं, उस समय में ऐसे बच्चे सरकार बनाने के विचार से उद्वेलित हैं। रात के करीब 10 बजे होंगे, रमेश से फेसबुक लाइब पर बात करते हुए मैंने उससे इस बाबत भी बात की कि बहुत से बच्चे ऐसे हैं जिनका प्राइम टाइम यानि उनका जो पढ़ाई का समय है, उस समय में वो पढ़ाई से इतर अन्य गतिविधियों में लिप्त रहते हैं। रमेश ने बताया कि “हां... आजकल बच्चे एन्ड्रायड फोन के आदी हैं। रात के 4 बजे तक गेम खेलते हैं। यह ठीक नहीं है।” रमेश जिसने आज पहली बार वोट दिया था से मैंने कहा कि आप मोबाइल और तकनीक के क्षेत्र में प्रगति और आम लोगों तक इसकी पहुंच को रिजेक्ट कर रहे हैं। रमेश बिना किसी लाग लपेट के कहते हैं कि पढ़ाई की उम्र वाले बच्चों के लिए नयी तकनीक, मोबाइल फोन और एप्लीकेशन नुकसान पहुंचा रहा है। मैंने कहा कि तकनीक और मोबाइल को विकास का प्रतीमान बताया जा रहा है और आप इस आइडिया को रिजेक्ट कर रहे हैं। रमेश एक बार में कहते हैं कि यदि पढ़ने वाले बच्चों की पूरी रात मोबाइल गेम में कटेगी तो उनका दिन निश्चित तौर पर खराब होगा। रमेश से बातचीत के बाद उसे पहली बार मतदान में हिस्सा लेने के लिए बधाई देता हूं और उसके उज्जल भविष्य के लिए उसे शुभकामना देने के बाद अपने घोंसले में लौट आता हूं।

मेश से बातचीत के बाद यह अंदाज़ा भी होता है कि बच्चों का एक-एक मिनट वास्तव में न सिर्फ उनके और उनके परिवार के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि समाज और देश के लिए भी महत्वपूर्ण है। वो लोग जो तकनीकी क्रान्ति और इस क्रान्ति जनित यंत्रों के अबाध प्रसार में विकास की रूपरेखा देखते हैं, उन्हें उम्र की विविधता का ध्यान रखने की ज़रूरत है। नीतिगत स्तर पर इस युक्ति को अपनाने की ज़रूरत है कि कौन सी तकनीक और तकनीकी यंत्र बच्चे, बड़े, बूढ़े और महिलाओं के लिए उपयुक्त हैं। तकनीक का प्रसार आयु आधारित विविधता, पारिवारिक और सामाजिक विविधता को कैसे प्रभावित करता है, इस पर यथा संभव ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है। 

सा इसलिए भी कहना पड़ रहा है कि प्रायः ऐसा देखा जा रहा है कि जिन बच्चों के पास नयी तकनीक युक्त एन्ड्रायड फोन हैं, वो बच्चे ऐसे फोन के दुरूपयोग और दुष्परिणामों से सावधान नहीं है। सतीश जो मेरे पड़ोस के जयपाल भइया का लड़का है इस समय 12वीं का छात्र है। 17वीं लोक सभा के चुनाव नतीजों के आने से ठीक दो दिन पहले 21 मई की दोपहर जब मैं नवापुरा स्थित डाॅ॰ सिद्दीकी की क्लिनिक में त्रिवेणी जायसवाल से बात कर रहा होता हूं, उसी समय गाज़ीपुर के तारिक भाई का फोन आता है। मैं फोन रिसिव करता, इससे पहले ही डिस्कनेक्ट हो जाता है। ठीक इसी समय सतीश के फेसबुक फ्रेण्ड रिक्वेस्ट पर नज़र पड़ती है। सतीश के फेसबुक फ्रेन्ड रिक्वेस्ट एक्सेप्ट करते समय उसके फेसबुक वाल पर एक पोस्ट देखा। नमो अगेन के साथ कविता कुछ पंिक्तयां “गद्दार नहीं खु़द्दार चाहिए!!/कमजार नहीं दमदार चाहिये!!/तुम्हें मुबारक हो वंशवादी शहज़ादे/हमें हमारा चैकीदार चाहिये!!” लिखी हुई थीं। त्रिवेनी जायसवाल से बच्चों की पढ़ाई और उनके करियर पर बात के दौरान सतीश के इस पोस्ट पर भी देर तक बातें हुईं।
इत्तेफाक से उस पोस्ट पर भी नज़र पड़ी, जिसमें 12वीं की परीक्षा पास करने वाले अख़्तर ने अपने फेसबुक वाल पर लिखा था कि “......पी. वालों ........एम. गायब करवा के भी कुछ नहीं उखाड़ पाओगे। डेडिकेटेड टू भक्त लोग।” दो किशोरों की ऐसी अभिव्यक्तियां किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की बेचनी का सबब हो सकती हैं। यह अंदाजा भी होता है कि मौजूदा दौर में किशोरावास्था के बच्चों के परिवेश से किस तरह काॅपी-कलम और किताब इत्यादि गायब हैं या गायब कर दी गयी हैं। माथे पर बल पड़ना स्वाभाविक है। क्योंकि ऐसा कैसे संभव हुआ कि शारीरिक, सामाजिक और बौद्धिक आवश्यकताओं की पूर्ति की संभावनाएं क्षीण पड़ गयी हैं। सवाल लाज़मी है कि क्या 17-18 वर्ष के दो किशोरों की ऐसी अभिव्यक्तियां उनकी अवस्था के अनुरूप उचित हैं? यदि शिक्षा मनोविज्ञान की शब्दावली में कहें तो बच्चों को आत्म अभिव्यक्ति के लिए अवसर ज़रूरी है। लोकतंत्र की पाठशाला में भी “अभिव्यक्ति की आज़ादी” एक महत्वपूर्ण बिन्दु है। लेकिन सवाल यह है कि जिन बच्चों को अपनी कक्षा के विषय और टाॅपिक्स को समझने में समय लगाना चाहिए और जिन बच्चों में आत्म अभिव्यक्ति के माध्यम से सर्जनात्मक क्षमताओं का विकास होना चाहिए, वो बच्चे सरकार बनाने और सरकार बचाने में समय लगा रहे हैं। बल्कि यह कहना अधिक प्रासंगिक है कि शैक्षिक अभिव्यक्तियों के बजाय राजनीतिक अभिव्यक्तियों में अपना समय गवां रहे हैं। उन्हें यह भी पता है कि उनकी ऐसी अभिव्यक्तियां उनकी कक्षा और किसी विषय से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित नहीं है। और न ही ऐसी अभिव्यक्तियों पर उन्हें ग्रेड या माक्र्स मिलने हैं। इन बातों का आशय यह नहीं है कि जो किशोर बच्चे किसी प्रभाव से ऐसा सोच रहे हैं, उन्हें अभिव्यक्ति के अवसर से रोका जाए। लेकिन ऐसे बच्चों की पारिवारिक और सामाजिक पृष्ठभूमि देखकर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति, जो नयी पीढ़ी के बेहतरी के सपने देखता है, इसके लिए कोशिशें करता है, की पीड़ा और बेचैनी का बढ़ जाना स्वाभाविक है। सतीश और अख़्तर का उदाहरण आइना दिखाने के लिए काफी है कि किशोरों की ऐसी अभिव्यक्तियां कदाचित उचित नहीं हैं।
तीश और अख़्तर जैसे बच्चे अपने परिवारों की उम्मीदें हैं। इन्हीं पर निर्भर है कि वो पढ़-लिख कर अपने परिवारों को विषम परिस्थितियों से उबारेंगे। अक्सर समाचारों में पढ़ने-सुनने को मिलता है कि किसी पान बेचने वाले, चाय बेचने वाले या रिक्शा/टेम्पो चलाने वाले का बेटा/बटी आई.ए.एस. बन गया। इन बच्चों को इन्हीं कड़ियों का हिस्सा बनना होगा। यह सच है कि अभिव्यक्ति बच्चों की क्षमताओं का परिचायक है। लेकिन उचित समय पर उचित मार्गदर्शन के अभाव में बच्चों का शैक्षिक के बजाय अन्य प्रकार की अभिव्यक्तियों के लिए प्रेरित होना उनके और समाज दोनों के लिए हानिप्रद है। समय और स्थान के अनुरूप होने वाली अभिव्यक्तियां श्रेयस्कर और फलदायी होती हैं। इसलिए किशोरावस्था के बच्चों को शैक्षिक और सह-शैक्षिक अभिव्यक्तियों के लिए पे्ररित करना ज़रूरी है। वरना अपरिपक्वता और अतिउत्साह मन और शरीर को दिशाहीन बना देता है। ऐसे में बच्चे सामाजीकरण की उस प्रक्रिया से भी अलग-थलग रह जाते हैं, जिसमें उन्हें आयु, वर्ग और लिंग आधारित विविधता का ज्ञान होता है, परिपक्वता आती है और सच-झूठ, अच्छे-बुरे की समझ विकसित होती है। समझ का विकसित होना बेहद ज़रूरी है। क्योंकि समझ और सूझबूझ से ही व्यक्ति में “सुंदर” की बेहतरीन कल्पना को समझने और उसे साकार करने की क्षमता विकसित होती है। 

बेशक तकनीक और यंत्रों ने मानव जीवन में आसानियां पैदा की हैं। लेकिन मौजूदा दौर में जिस तरह का रोबोटिक डेवलपमेन्ट हो रहा है, उसके नकारात्मक प्रभावों से “बच्चा” नामक बायोलाॅजिकल जीव सुरक्षित नहीं है। रोबोटिक डेवलपमेन्ट और तकनीक आधारित गतिविधियां बाज़ार की ज़रूरत भी है। वो बाज़ार जहां व्यक्ति नागरिक नहीं उपभोक्ता है और जहां बच्चा छात्र/छात्रा नहीं बल्कि आदर्श उपभोक्ता है। बाज़ार की यह ज़रूरत बाल उपभोक्ताओं के मन के तारों में चिन्गारियां पैदा कर रही हैं और उन्हें रोबोट की तरह व्यवहार करना सिखा रही हैं। ऐसा रोबोट जो एक रिमोट से संचालित होता है। विचित्र बात है कि बाज़ार विविध रूपों और माध्यमों से बच्चों से संबंध बनाए हुए है। बच्चों के मन बहलाने वाले टाॅफी-चाॅकलेट, बिस्कुट और अन्य पोषक पदार्थों से लेकर उनकी शिक्षण सामग्री जैसे पेन्सिल, रबर, काॅपी-कलम और किताब आदि पर जी.एस.टी. लागू है। ऐसे बाज़ारमय परस्थितियों में तकनीक की मार अलग है। इन्हीं परिस्थितियों में “देश का भविष्य पल रहा है।” इस समय के बच्चों की तुलना उन पंक्षियों से करना बेमानी नहीं है, जो चारों ओर से शिकारी के जाल में फंसे हुए हों और जिनके समक्ष उड़ान भरने की चुनौती हो। 

ह समझने की ज़रूरत है और हमारे-आप जैसे लोगों का नैतिक दायित्व भी है कि हम बाज़ार की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए बच्चों विशेषकर किशोरावस्था के बच्चों को अपने ही मां-बाप और परिवार में विद्रोही बन जाने की परिस्थितियां पैदा करने वाले कामों में सहयोगी न बनें। कहा जाता है कि बच्चे देश का भविष्य हैं। तो मैं कहना चाहता हूं कि बच्चों को मोबाइल के लिए प्रेरित करके, उन्हें बायोलाॅजिकल से रोबोटिक न बनाया जाए। देश के भविष्य से खिलवाड़ करना किसी भी तरह उचित नहीं है। अच्छा होता कि बच्चों को किताबों से दोस्ती के लिए प्रेरित किया जाए। क्योंकि एक बेहतर कल का रास्ता किताबों की दुनिया से होकर निकलता है।

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नोट- वास्तविक घटना पर आधारित। सभी पात्रों के नाम बदल दिए गए हैं।

Wednesday, May 22, 2019

कौन जीत रहा है...! कौन हार रहा है...!

कील साहब के साथ एक खास बात है, जिसका ऐतराफ करना वो नहीं भूलते। वो जहां भी बैठते हैं, उन्हें नींद
आने लगती है। मुन्सफी मुहम्मदाबाद हो या तहसील मुहम्मदाबाद या फिर सदर रोड स्थित डाॅ॰ फतह मुहम्मद की क्लिनिक, हर जगह बैठते ही वो नींद की आगोश में चले जाते हैं। यद्यपि देश-दुनिया की चर्चाओं में वो स्वयं अपनी बात कहते समय ठीक रहते हैं। लेकिन जैसे ही उनकी बात समाप्त होती है, उनकी आंखें बन्द होने लगती हैं। उनके आस-पास होने वाली चर्चाएं जारी रहती हैं। लेकिन वो चर्चाओं से बेख़बर होते हैं। जब आंख खुलती है, तो बताना नहीं भूलते कि उन्हें बैठते ही सोने और सपने देखने की आदत है। आज 17वीं लोकसभा सामान्य निर्वाचन-2019 के लिए मतदान हो रहा है। दोपहर के 2 बजकर 20 मिनट हुए हैं। आज वकील साहब बैठे नहीं हैं, बल्कि क्लिनिक दक्षिण दिशा की दीवार से लगी तख़्त पर लेटे हुए हैं। लेटने का मौका उन्हें इसलिए मिला कि आज वो दोपहर के समय आए और शाम की चर्चा में शामिल होने वाले सदस्य मौजूद नहीं होते हैं। मैं और अब्बा क्लिनिक में पहुंचते हैं। वकील साहब को आवाज़ देते हैं। वकील साहब हिलते-डुलते हैं। हमें लगता है कि वो नींद से बेदार हो रहे हैं। मैंने उन्हें इस मुद्रा में कभी लेटे हुए नहीं देखा था। सर पर हरे रंग का गमछा कुछ इस तरह लगा रखा था जैसे वो अभी धूप से बचने की कोशिश कर रहे हैं। अंदाज़ा हुआ कि वो धूप में चलकर आए हैं। क्लिनिक में किसी को न पाकर लेट कर आराम कर रहे हैं। उनकी आंख खुलती है, वो उठकर बैठने की कोशिश करते हैं। मैं उन्हें लेटे रहने का आग्रह करता हूं।
उनकी अनुमति लेकर अपनी मोबाइल से इस मुद्रा में उनकी एक फोटो खींचता हूं। अब्बा मज़ाक करते हैं, “फोटो कहीं सोशल मीडिया में शेयर नहीं करना, वरना लोग पुछार के लिए आने लगेंगे।” वकील साहब मुस्कराते हुए उठकर बैठ जाते हैं। कहते हैं सपना देख रहा था। “कौन जीत रहा है...! कौन हार रहा है...!”, अब्बा चुटकी लेते हैं। वकील साहब की मुस्कराहट हंसी में बदल जाती है। हम सब हंसने लगते हैं। हा... हा... हा... हा... की आवाज़ फिज़ा में घुल जाती है।

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Thursday, January 10, 2019

आरक्षण की मूल भावना को समझना होगा

......बुनियादी स्तर पर आरक्षण के मूल मंतव्य को समझना होगा। अधिक शिक्षित और सम्मानित लोगों की जिम्मेदारी भी अधिक होती है। एक बेहतर और प्रगतिशील समाज के निर्माण में ऐसे लोगों की भूमिका भी अधिक होती है। ऐसे लोगों को इस सच्चाई से रूबरू होना होगा कि देश से प्रतिभा पलायन का कारण आरक्षण नहीं है। बी.पी.ओ. के माध्यम से भारत की युवा प्रतिभाओं का खून चूसने का काम आरक्षण की व्यवस्था नहीं कर रही है और न ही युवा भारतीयों के सपनों को काल सेन्टरों के केबिनों तक सीमित करने का काम ही आरक्षण कर रहा है। वास्तविकता यह है कि ........
Published in Shilpkar Times, New Delhi, Issue: 16-31 July 2011


विविधता और विभिन्नता प्रधान हमारे देश में सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना अभी भी व्यवस्थापिका और न्यायपालिका की प्रमुख चुनौतियों में से एक है। राजधानी के तीन प्रमुख विश्वविद्यालयों में इन दिनों सामाजिक न्याय की मुहिम चल रही है। जामिया में माइनारिटी स्टेटस और मुस्लिम रिजर्वेशन, डी॰यू॰ और जे॰एन॰यू॰ में प्रवेश और नियुक्ति में ओ॰बी॰सी॰ आरक्षण का ध्यान न रखा जाना बहस का मुद्दा बना हुआ है। जाहिर है बुनियादी सवाल संवैधानिक उपबंधों के उल्लंघन का है। लेकिन आरक्षण का जिक्र होते ही जाति आधारित भेदभाव और मेरिट-डिमेरिट जैसे मुद्दे बहस के केन्द्र में आ जाते हैं। आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में तर्कों के तीर चलने लगते हैं। बाजारपरस्त एज आफ ग्लोबल कम्पटीशन के हिमायती भी इस बहस में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। कहते नहीं थकते कि प्रतिस्पर्धा का आधार योग्यता, मेरिट और दक्षता है न कि जाति। लेकिन बुद्धिजीवियों का एक खेमा यह कहता है कि सवाल दक्षता, योग्यता और मेरिट का नहीं बल्कि अवसर का है। सन् 2005-06 में जब यूपीए सरकार ने निजी क्षेत्र में अनुसूचित जाति/जनजाति आरक्षण का शगूफा छोड़ा था तब भी और इससे पहले जब मण्डल आयोग की सिफारिशें लागू हुईं थीं तब भी छात्रों का एक बड़ा हिस्सा विरोध में आंदोलित हो उठा था। जामिया का मामला माइनारिटी स्टेटस से जुड़ा है। इसलिए इस पर अलग से बात की जाएगी। फिलहाल बात करते हैं आरक्षण की नीति, आरक्षण की राजनीति और आरक्षण की मूल भावना की।
मामला पब्लिक सेक्टर का हो या प्राइवेट सेक्टर का पहले तो विरोधी के तेवर विरोध तक सीमित थे लेकिन जे॰एन॰यू॰ और डी॰यू॰ के मामलों में यह तेवर कानून की और संवैधानिक उपबंधों में निहित सामाजिक मर्यादा की भावना के उल्लंघन और मर्माहत करने का है। कम से कम प्रगतिशील विचारों के पोषक लोगों और संस्थाओं से तो यह अपेक्षा की ही जानी चाहिए कि अवसरों से वंचित लोगों को मुख्य धारा में शामिल करने के मुहिम का हिस्सा बनें न कि छद्म प्रगतिशील आदर्शों के व्याख्याता। बात उन लोगों की भी जो यह समझते हैं कि रिजर्वेशन के कारण उनका हक मारा जा रहा है। दरअसल रिजर्वेशन की मूल भावना सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ापन है। ये बात अलग है कि ‘द पाॅलिसी आॅफ रिजर्वेशन’ ‘द पाॅलिटिक्स आॅफ रिजर्वेशन’ में बदल गयी। जबकि शैक्षिक-सामाजिक पिछड़ेपन का सवाल पीछे छूटता गया। लेकिन यह सब अचानक नहीं हुआ है। इस होने में भी काफी वक्त लगा है। अच्छी बात यह है कि तमाम विकृतियों और दिशाहीनता के बाद भी सामाजिक न्याय के लिए लोग पहले से कहीं अधिक संख्या में आवाज उठा रहे हैं। भीड़तंत्र में ही सही लोकतंात्रिक आवाजें उठाई जा रही हैं। ये बात अलग है कि कारपोरेट मीडिया के लिए कौन से सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विषय पाॅपुलर न्यूज स्टोरी हैं या नहीं। यही वजह है कि फारबिसगंज की हालया फायरिंग पर मीडिया कवरेज में देर हो जाती है।
शिक्षा हेतु बुनियादी सुविधाओं को हर व्यक्ति तक पहुंचाया जाना चाहिए। सर्व शिक्षा अभियान के तहत वजीफा, ड्रेस, किताबें और मध्यान्ह भोजन को इस तरह की सुविधा में शामिल किया जा सकता है। लेकिन उस सामाजिक बुराई को कैसे समाप्त किया जाए जिसके कारण मिड डे मिल बनाने वाली दलित और पिछड़ी जाति की महिलाओं द्वारा बनाए गए खाना को अबोध बालकों ने खाने से इंकार कर दिया हो। क्या यह इनक्रेडिबल इंडिया के लिए मुंह चिढ़ाने जैसी घटना नहीं है।
मुद्दा सामाजिक सम्मान का है। जो लोग बार-बार प्रतिभा की दुहाई देकर आरक्षण का विरोध करते हैं, जिनमें खुद पिछड़ों की भी अच्छी-खासी तादाद है, को जानकारी होनी चाहिए कि 90 के दशक में जब ओ॰बी॰सी॰ आरक्षण लागू हुआ था, उस समय विरोध करने वालों में एक समूह ऐसा भी था जिसने विरोध भी किया और फर्जी प्रमाण पत्र बनवाकर कहीं एडमिशन में लाभ उठाया तो कहीं नौकरियों में। ये बात अलग है कि सबूत नहीं है और न ही स्ट्रींग आपरेशन की कोई फुटेज। आम धारणा है कि हर व्यक्ति में प्रतिभा एक समान नहीं होती है। यह ईश्वर प्रदत्त गुण है जो कुछ विशेष लोगों में होता है और इसीलिए आरक्षण या किसी भी पाॅजीटिव डिस्क्रिमीनेशन जैसे उपाय से प्रतिभा का अनादर या इसे हतोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए। यह एक स्थापित तर्क है जिससे किसी भी व्यक्ति की सहमति स्वाभाविक है। लेकिन साइंस और टेक्नोलाजी के मौजूदा दौर में जब व्यक्ति हर चीज की परत दर परत जांच-पड़ताल करने के बाद किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुंच रहा है, तो लेहाजा प्रतिभा से संबंधित संस्थागत धारणा की पड़ताल भी होनी चाहिए। इस क्रम में जब हम इतिहास का अवलोकन करते हैं तो यही पाते हैं कि समाजिक स्तरीकरण के लिहाज से भारत में जो विषंगतियां व्याप्त हैं वो ईश्वर प्रदत्त नहीं बल्कि सामजिक विकास के क्रम में एक ऐतिहासिक घटना से अनुप्राणित हैं। जब प्राचीन काल में लोहे के प्रयोग से समाज के एक तबके का वर्चस्व अन्य तबकों पर स्थापित हो गया तब इस तबके के लोग हर उस काम काम को अंजाम देने लगे जिससे सामाजिक असमानता की खाई बढ़ती गयी। इस तबके को समय-समय पर पुरोहित वर्ग वैधता का प्रमाण पत्र देकर सदा ही इनके और अपने हितों का पोषण करता रहा। इस तरह इन दोनों वर्गों की मिली भगत ने वर्ण व्यवस्था को जन-जन के मन में, व्यवहार में, संस्कार में, यहां तक कि उनकी आत्मा में कुछ इस तरह स्थापित किया कि दलित-पिछड़ा तबका सामाजिक रूप से भद्र जनों की सेवा को ईश्वरीय आज्ञा और अपना धर्म समझता रहा। इन सच्चाइयों को अगर और करीब से महसूस करना है तो वैदिक और गुप्त कालीन ऐतिहासिक ग्रंथों को पढ़ना होगा। कालीदास के एक ग्रंथ में तो भाषा के अनुसार सामाजिक स्तरीकरण का उल्लेख हुआ है। जहां संभ्रांत लोग संस्कृत और नीचे के लोग अपभ्रंश बोलते हैं।
हरहाल तुर्कों और मुगलों के शासन काल में भारत में इस्लाम के प्रचार-प्रसार के लिए नई संभावनाएं बनीं। इस्लाम ने यहां भी अपने मूल तत्व ‘‘एकता ओर समानता’’ का बिगुल फूंका। प्रभाव स्वरूप बड़े पैमाने पर दबे कुचले और पिछड़े लोगों ने भेदभावमूलक ब्राम्हणवादी व्यवस्था को त्यागकर इस्लाम स्वीकार कर लिया। ज्ञात हो कि छठीं शताब्दी ई॰पू॰ महात्मा बुद्ध और महावीर जैन ने भी समतामूलक समाज के निर्माण और विकास के लिए अथक प्रयास किए थे। बहरहाल, तुर्कों और मुगलों के दौर में सामाजिक सम्मान की आस में जिन पिछड़ों ने धर्म परिवर्तन किया उन्हें धार्मिक समानता तो मिली, लेकिन इतिहास और वर्तमान दोनों ही गवाह हैं कि वो लोग आज भी सामाजिक समानता और सम्मान से कोसों दूर हैं।
गौरतलब है कि आजादी के बाद राष्ट्रपति के अध्यादेश द्वारा अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए आरक्षण का संवैधानिक उपबंध किया गया। लेकिन संविधान का अनुच्छेद 341 में संशोधन न होना धर्म आधारित भेदभाव को मूक सहमति देने जैसा है। अनुच्छेद 341 के अनुसार कोई भी दलित वर्ग का व्यक्ति यदि धर्म परिवर्तन करके मुस्लिम या ईसाई बन जाता है तो वह आरक्षण का लाभ नहीं प्राप्त कर सकता। मुमकिन है संविधान निर्माताओं ने इस्लाम के ‘‘समानता और एकता’’ की मूल भावना को मद्देनजर रखते हुए अनुच्छेद 341 के उपबंध को स्वीकृती दी हो। लेकिन आजादी के 63 साल बाद भी यह नहीं माना जा सकता कि जिन लोगों ने हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध या जैन धर्म अपना लिया हो उनकी सामाजिक सिथति या उनके प्रति उच्च जातियों के लोगों का सामाजिक व्यवहार जैसे का तैसा है। जिसके आधार पर ये लोग आज भी आरक्षण के अधिकारी हैं। दूसरी तरफ यह भी विश्वास से परे है कि जो लोग इस्लाम या ईसाई धर्म अपना लिए हों उन्हें अचानक ही सामाजिक समानता का दर्जा मिल गया हो और उन्हें आरक्षण के योग्य नहीं समझा जाए।
जाहिर है प्रतिभा एक तरह का मैन मेड स्थापित संस्थागत धारणा है। कोई भी प्रगतिशील समाज मानव निर्मित सामाजिक भेदभाव पर आधारित परंपरा, सिद्धांत, व्यवहार और मूल्य को अधिक समय तक बर्दाश्त नहीं कर सकता है। जहां तक प्रतिभा की दुहाई देने वालों की बात है तो उनको बुनियादी स्तर पर आरक्षण के मूल मंतव्य को समझना होगा। अधिक शिक्षित और सम्मानित लोगों की जिम्मेदारी भी अधिक होती है। एक बेहतर और प्रगतिशील समाज के निर्माण में ऐसे लोगों की भूमिका भी अधिक होती है। ऐसे लोगों को इस सच्चाई से रूबरू होना होगा कि देश से प्रतिभा पलायन का कारण आरक्षण नहीं है। बी.पी.ओ. के माध्यम से भारत की युवा प्रतिभाओं का खून चूसने का काम आरक्षण की व्यवस्था नहीं कर रही है और न ही युवा भारतीयों के सपनों को काल सेन्टरों के केबिनों तक सीमित करने का काम ही आरक्षण कर रहा है। वास्तविकता यह है कि नई आर्थिक व्यवस्था ने पिछले लगभग बीस बरसों में हमारे देश में विकास के पहिए को उस दिशा में घुमा दिया है जहां जीवन का अर्थ बनावटीपन के सिवा कुछ नहीं। नई आर्थिक नीति ने हमारे रगों में उपभोक्तावादी चरित्र और सुविधाभोगी मानसिकता का संचार किया है।
ज हममें से हर कोई नई माॅडल की गाड़ी, फ्रीज, मोबाइल और बर्गर, पिज्जा व कोला का भोग करना चाहता है। हम अपनी आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं को अपनी क्षमता के अनुरूप तय नहीं कर रहे हैं बल्कि मल्टीनेशनल्स तय कर रही हैं। ऐसे में पूंजी आधारित सामाजिक असमानता का ग्राफ दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। फलस्वरूप एक तरफ प्रतिभा पलायन और उनके शोषण की प्रवृत्ति नित नए तेवरों में बढ़ रही है तो दूसरी तरफ निजीकरण की बयार से सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए बचा खुचा अवसर भी समाप्त होता जा रहा है। यही वजह है कि 2005-06 में आरक्षण की सियासत करने वालों ने निजी क्षेत्र की नौकरियों और उच्च शिक्षा में आरक्षण का शगूफा छोड़ा था। सवाल यह है कि पहले से उपलब्ध आरक्षण की व्यवस्था को हम सही रूप में लागू नहीं करा पा रहे हैं तो इस क्षेत्र में नई व्यवस्था को कहां तक लागू किया जा सकेगा।