Thursday, December 19, 2013

आहत लोगों तक राहत की क़वायद

"दंगा पीडि़तों के लिए राज्य सरकार की ओर से उठाए जाने वाले कदम क़ाबिले तारीफ़ हैं। विशेषकर मृतक आश्रितों को अविलम्ब नौकरी और बेघर होने वालों का एकमुश्त आर्थिक सहायता। लेकिन दंगों के इल्ज़ाम की पीड़ा झेल रही सपा सरकार के ये काम बेमानी प्रतीत होते हैं। शाकिर भाई जैसे लोग बताते हैं कि जिन लोगों को मुआवजा मिला उन्हें जिला प्रशासन की तरफ से यह निदेश भी मिला है कि वो बेघरों की तरह न रहें। लेहाज़ा मुआवजा प्राप्त करने वाले बेघरों को अपना टेन्टनुमा घर राहत शिविरों से हटाकर किसी स्थानीय व्यक्ति के घर में ले जाना पड़ा है।"

पिछले कुछ दिनों से उत्तर प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में शान्ति और सौहार्द्रय स्थापना की कवायद ज़ोरों पर
है। विशेषकर बुद्धिजीवी, सामाजसेवी और नागरिक संगठन फिल्म शो, नुक्कड़ नाटक, धरना-जुलूस से लेकर बौद्धिक परिचार्चाओं के आयोजन में व्यस्त हैं। इन तैयारियों के पीछे संदर्भ पिछले लगभग बीस माह में प्रदेश भर में होने वाली सांप्रदायिक हिंसा और दंगा है। ज़ाहिर है ऐसे संदर्भ में सभी समाज सेवियों, संस्थाओं और नागरिक संगठनों के साथ-साथ सरकारी मोहकमों आदि का मक़सद एक ही हो सकता है,, शान्ति और सौहार्द्रय के लिए लोगों को संवेदित और संगठित करना। ऐसे कार्यक्रमों और आयोजनों का महत्व तब और अधिक बढ़ जाता है जब 6 दिसम्बर की तिथि नज़दीक हो। ज्ञात हो कि पिछले इक्कीस बरसों से यह तिथि हर साल समकालीन इतिहास की एक बड़ी घटना के ज़ख़्मों को ताज़ा करती रही है। हालांकि आधुनिक भारत के इतिहास में 6 दिसम्बर बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस की तिथि भी है। लेकिन हर साल यह तिथि बाबरी मस्जिद और राम जन्म भूमि विवाद से जुड़ी घटनाओं के चलते चर्चा-परिचर्चा का केन्द्र बिन्दु होती है। इस तिथि को अयोध्या और फैज़ाबाद से लेकर राजधानी दिल्ली तक एक से बढ़कर एक कार्यक्रमों का आयोजन और इन आयोजनों में धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में जनमत बनाने की अपील का होना इस बात का संकेतक है कि अभी भी धर्मनिरपेक्षता और पंथनिरपेक्षता के संवैधानिक लक्ष्य 66 वर्ष के लम्बे लोकतांत्रिक अनुभव के बाद भी अधूरे हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो गुजरात, असम और उत्तर प्रदेश आदि राज्य एक के बाद एक सांप्रदायिक दंगों के प्रयोगशाला नहीं बनते। यही वजह है कि सांप्रदायिकता का सवाल रोजी-रोटी और आजीविका के सवालों पर भारी पड़ने लगता है। परिणाम स्वरूप व्यक्ति का धार्मिक पहचान उसके नागरिक पहचान पर प्रमुखता प्राप्त कर लेता है।

ज्ञात हो कि मुज़फ़्फ़रनगर और शामली के विभिन्न गांवों में होने वाले दंगा की वजह से पिछले दिनों हज़ारों लोगों को अपना घर छोड़कर राहत शिविरों में शरण लेनी पड़ी थी। जो ग्रामीण बेघर हुए हैं, वो मूलतः मज़दूर हैं जो जाट समुदाय की खेतों पर काम करके या ईंट भट्टों पर काम करके अपने परिवार की आजीविका चलाते थे। बहुत से परिवारों में फेरी करके आजीविका अर्जित करने वाले व्यक्ति तो पंजाब, कश्मीर, हिमांचल, राजस्थान से लेकर दक्षिण भारत के केरल तक जाया करते थे। लेकिन जबसे दंगा हुआ है तबसे ये लोग राहत शिविरों में रह रहे हैं। दंगा पीडि़तों के लिए राज्य सरकार की ओर से उठाए जाने वाले कदम क़ाबिले तारीफ़ हैं। विशेषकर मृतक आश्रितों को अविलम्ब नौकरी और बेघर होने वालों का एकमुश्त आर्थिक सहायता। लेकिन दंगों के इल्ज़ाम की पीड़ा झेल रही सपा सरकार के ये काम बेमानी प्रतीत होते हैं। शाकिर भाई जैसे लोग बताते हैं कि जिन लोगों को मुआवजा मिला उन्हें जिला प्रशासन की तरफ से यह निदेश भी मिला है कि वो बेघरों की तरह न रहें। लेहाज़ा मुआवजा प्राप्त करने वाले बेघरों को अपना टेन्टनुमा घर राहत शिविरों से हटाकर किसी स्थानीय व्यक्ति के घर में ले जाना पड़ा है। लेकिन हारून भाई उन लोगों में हैं जिनके
परिवार का नाम 1800 लाभार्थियों की लिस्ट में दर्ज होने से रह गया है। ज्ञात हो 27 अक्टूबर को प्रदेश सरकार ने मुआवजा की घोषणा की थी। जिनमें कुल 1800 लाभार्थियों को चिन्हित करके 5-5 लाख प्रति परिवार का मुआवजा दिया जाना तय किया गया था। हारून भाई जैसे तमाम लोग हैं जो आम तौर पर दूसरे राज्यों में जाकर कपड़ों की फेरी करके अपने परिवार की आजीविका चलाते हैं। लेकिन जबसे दंगा हुआ है, तबसे वो राहत शिविरों में अपने-अपने परिवारों के साथ सरकारी मदद की बांट जोह रहे हैं। ऐसे में सवाल लाज़मी है कि हारून जैसे हजारों परिवारों की मदद किस प्रकार संभव हो सकेगी?

हरहाल, जिन लोगों को मुआवजा मिल चुका है, उनके लिए सबसे बड़ा संकट यह है कि इतने कम समय में वो कैसे और कहां ज़मीन लें। बिल्डरों के प्रचार-प्रसार और दंगा पीडि़तों की बातों का संज्ञान लिया जाए तो मुआवजे की घोषणा के बाद मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में ज़मीन की क़ीमतों में लगभग दोगुने से तीगुने की वृद्धि हुई है। शाहपुर में ही शमशान स्थल के ठीक बगल में जो प्लाॅटिंग पहले हज़ार-बारह सौ रूपए प्रति गज के हिसाब से की गयी थी, राज्य सरकार द्वारा मुआवजा की घोषणा के बाद 3100 रूपए प्रति गज से भी अधिक हो गयी। ऐसे में मुआवजा प्राप्त करने वाले परिवारों पर चैतरफा दबाव बना हुआ है कि आखिर वो करें तो क्या करें? एक तरफ सरकारी अमला मुआवजा के बदले कैम्प वाली जगह से हटने के लिए प्रेरित कर रहा है तो वहीं दूसरी तरफ अचानक से ज़मीन की बढ़ी हुई कीमत ने इन्हें सोचने पर मजबूर किया है कि यदि वो मुआवजे में प्राप्त पैसे का नियोजन ज़मीन ख़रीदने में कर देंगे,
तो ख़रीदी गयी ज़मीन पर मकान बनाने के लिए पैसों का इन्तेज़ाम कहां से होगा। इससे इतर पीडि़त लाभार्थी जिस मनोवैज्ञानिक उहापोह की स्थिति में हैं, उससे इस बात की भी संभावना है कि मुआवजा की रक़म इधर-उधर के कामों में खर्च न हो जाए। अगर ऐसा हुआ तो ऐसे पीडि़त परिवारों के ज़ख़्मों पर मरहम लगाना और भी दुभर हो जाएगा। शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका जैसे मानव विकास के तीन प्रमुख सूचकांकों पर दंगा पीडि़त अगामी कई दशकों तक लगातार लुढ़कते जाएंगे। ठीक उसी तरह जैसे आज़ादी के बाद अब तक लुढ़कते रहे हैं। जिसका उल्लेख सच्चर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में विस्तार पूर्वक किया है।

से में राज्य सरकार की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। हालांकि 5-5 लाख की एकमुश्त आर्थिक सहायता तत्काल राहत प्रदान करने वाला कदम प्रतीत होता है। लेकिन इस तरह की लक्षित आर्थिक सहायता में स्थायित्व के पुट का न होना चिन्ता की बात है। अच्छा होता कि सरकार की ओर से विभिन्न गांवों से पलायन करके राहत शिविरों में रहने वाले लोगों के नुकसान की भरपायी करते हुए ऐसे पीडि़तों की आजीविका सुनिश्चित करने के लिए इन्हें कृषि योग्य भूमि आवंटित की जाती। इसके साथ-साथ दंगे में शामिल दोषियों की गिरफ़्तारी और फाॅस्ट टैªक अदालतों की व्यवस्था करके सजा भी ज़रूरी है। इसके समानान्तर दोनों समुदायों के बीच बातचीत शुरू कराना भी राज्य सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारियों में शामिल होना चाहिए। तभी दंगा पीडि़तों के ज़ख्मों पर सही अर्थों में मरहम लगाया जा सकेगा और तभी जाकर मुज़फ़्फ़रनगर अपने पुराने रंग में लौट सकेगा। उस रंग में, जिसमें मुज़फ्फ़रनगर को मुहब्बतनगर के नाम से भी जाना-पुकारा जाता है।

कैनविज टाइम्स, 6 दिसम्बर 2013