Wednesday, September 27, 2017

बुनियादी शिक्षा में सुरक्षा के सरोकार: व्यक्ति, समाज और सरकार


शिक्षक दिवस के ठीक दो दिन बाद 8 सितम्बर 2017 अन्तर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस की सुबह हरियाणा के गुरूग्राम स्थित एक प्रतिष्ठित निजी स्कूल में कक्षा दो में पढ़ने वाले एक बच्चे की हत्या हुई। खबरों में यौन अपराध को हत्या का कारण बताया गया। आरोपी बस कन्डक्टर को गिरफ्तार कर लिया गया। अभिभावकों ने बड़ी संख्या में स्कूल के सामने विरोध-प्रदर्शन और तोड़फोड़ करके अपने गुस्से का इजहार किया। स्कूल की प्रिन्सिपल को सस्पेन्ड कर दिया गया और मांग करने वालों ने स्कूल को अविलम्ब बन्द करने की मांग की। विरोध-प्रदर्शन कर रहे अभिभावकों को यह कहते हुए भी सुना गया कि “स्कूल वाले फीस अधिक लेते हैं और बस वालों से उनकी सेटिंग है।” इन सबके बीच शासन प्रशासन अपना काम तो कर ही रहा है। जो सबसे महत्वपूर्ण है, वो यह कि जांच करके एक रिपोर्ट प्रस्तुत करना। जांच में घटना का विवरण, कारण और अन्य जानकारियां हो सकती हैं। फिर भी मुझ जैसे लेखक को महसूस होता है कि इस घटना के प्रकाश में सिर्फ निजी स्कूलों की ही नहीं बल्कि शासन-प्रशासन की भूमिका के साथ-साथ व्यक्ति और समाज की महत्वाकांक्षा की जांच भी हानी चाहिए। क्योंकि इस घटना ने एक तरफ जहां हमें हमारी शिक्षण व्यस्था के दोष से अवगत कराया है, वहीं दूसरी तरफ इस घटना ने शिक्षण व्यवस्था के प्रति व्यक्ति और समाज के दृष्टिकोण और दायित्व को भी उजागर किया है कि आखिर हमारा समाज अपने बच्चों की शिक्षा के लिए किस प्रकार का शिक्षण व्यवस्था तैयार कर रहा है? सवाल यह भी है कि क्या हमारा समाज निजी महत्वाकांक्षाओं वाली व्यवस्था के अधीन खुद को समर्पित कर चुका है या सामूहिक प्रतिनिधित्व वाली लोकतांत्रिक संस्थाओं में नयी संभावनाओं के बीज भी बोना चाहता है।

कोई भी स्कूल अपने समाज की सीमाओं से परे नहीं हो सकता है। इस आलोक में प्रथम दृष्टिया कहा जा सकता है कि स्कूल प्रबन्धन की लापरवाही के कारण ही बच्चे की जान गयी होगी। स्कूल प्रबन्धन और बाल शिक्षा के सिद्धान्तों के अनुरूप स्कूल प्रबन्धन को इस जिम्मेदारी से मुक्त नहीं किया जा सकता कि वो बच्चे के पारिवारिक पृष्ठभूमि से लेकर उसके समाज और स्कूल के आस-पास के वातावरण आदि का संज्ञान ले और तत्संबन्धी विवरण रखे। ऐसा करने से किसी भी स्कूल प्रबन्धन के पास इस तरह की घटना को टालने की संभावना अधिक होती है। अगर बाल शिक्षा में गाइडेन्स की भाषा में कहा जाए तो स्कूल प्रबन्धन द्वारा इकट्ठा की गयी इस तरह की जानकारी चेक बॉक्स का काम करती है। चूंकि हरियाणा के गुरूग्राम के जिस स्कूल में बच्चे की हत्या की घटना घटी है, वो स्कूल नामी-गिरामी है, इसलिए ऐसे स्कूलों के प्रबन्ध कर्ताओं से ऐसी लापरवाही की उम्मीद नहीं की जा सकती है। वैसे भी निजी स्कूल वाले या कोई भी निजी प्रतिष्ठान अपने स्टॉफ से कम समय और कम पारिश्रमिक में अधिक काम लेने के लिए बदनाम रहे हैं। सरकार भी इस मंतव्य से सहमत है। दिलचस्प यह भी है कि जबसे निजीकरण की बयार चली है तब से कामकाज के इस तरीके को कारपोरेट के साथ-साथ सरकारें भी बढ़ावा दे रही हैं। बहरहाल, ऐसा प्रतीत होता है कि बस चालक स्कूल का स्टॉफ नहीं था और उसकी किसी अध्यापक या अध्यापिका की भांति टीचिंग-लर्निंग का हिस्सा मानकर ट्रेनिंग नहीं की गयी हो। ज्ञात हो सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में बच्चों को माता-पिता और अध्यापक-अध्यापिका के केन्द्र में रखकर शैक्षिक क्रिया-कलाप सम्पन्न होता है। ज़रूरी है कि स्कूल बस (चालक और खलासी के साथ) को संचालित करने वाले व्यक्ति/संस्था को भी माता-पिता और अध्यापक-अध्यापिका की तरह एक छोर पर रखा जाए। सरकारों को इस बिन्दु पर शोधपरक समझदारी विकसित कर इस दिशा में कानून भी बनाने की जरूरत है। ताकि स्कूल जाते हुए बच्चों के परिवेश में जो भी चीजें, व्यक्ति या बातें हों, उन्हें उनकी शिक्षा को प्रभावित करने वाले साकारात्मक अथवा नाकारात्मक कारक के रूप में मान्यता मिल सके। जब ऐसी मान्यता मिल जाएगी तो बस चालक हो या खलासी या सड़क और बाजार, हर व्यक्ति के अन्दर और हर एक स्थान पर बच्चों को एक ऑब्जेक्ट के रूप में देखने का नजरया विकसित होगा। एक ऐसा ऑब्जेक्ट जिसके बारे में कहा जाता है कि बच्चे देश के भविष्य हैं। न जाने कितने गीत और कविताएं इन पर लिखे और गाए गए है। उदाहरण के तौर पर “इनमें मेरे आने वाले जमाने की तस्वीर है.....“, “बच्चे मन के सच्चे.....”, “आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं.....”, “मुझे दुश्मन के बच्चों को पढ़ाना है.....” वगैरह-वगैरह। ऐसे आदर्श सामाजिक परिस्थिति में कोई भी बच्चा “सेक्सुअल एब्यूज“ यानि यौन शोषण या वायलेन्स (हिंसा) का शिकार नहीं होगा।

जाहिर है हम स्कूल से जुड़े विभिन्न व्यक्तियों, कर्मचारियों और संस्थाओं को सीखने-सिखाने के विषय पर निरंतर संवेदीकरण करते रहें तो मुमकिन है कि बच्चों को विभिन्न कारणों से हिंसा का शिकार बनने से बचाया जा सकता है। लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि आजादी के बाद से अब तक हमने शिक्षा के क्षेत्र में जो प्रयोग किए गए हैं, उनका प्रभाव क्या पड़ा? खासकर 1991 में जब आर्थिक सुधारों से अनुप्राणित निजीकरण की शुरूआत हुई। निस्संदेह आर्थिक सुधारों ने बुनियादी शिक्षा को निजीकरण के रास्ते पर आगे बढ़ाया है। इसे प्रगति के रूप भी देखा जा सकता है और बुनियादी शिक्षा के पतन के तौर पर भी परिभाषित किया जा सकता है। प्रगति इसलिए क्योंकि बुनियादी शिक्षा में नित नए प्रयोग हुए और माण्टेसरी एवं किण्डरगार्टेन की शिक्षण प्रणाली का विस्तार हुआ। लेकिन दूसरी तरफ इन नए प्रयोगों की आड़ में सरकारों ने बुनियादी शिक्षा में पूंजी की भूमिका को प्रमुखता से स्थापित किया। पूंजी की भूमिका को बढ़ाने का सवाल शिक्षा के बाजारीकरण के सवाल से जुड़ा हुआ है। यह सवाल हमें इस दिशा में विचार करने का अवसर देता है कि एक के बाद एक हमारी सरकारें बुनियादी शिक्षा के तंत्र पर समाज के विविध समुदायों की निर्भरता को कम करने संबंधी नीतियां बनाती रही हैं। शिक्षा का निजीकरण (बाजारीकरण) सरकार के कामकाज के इसी रवैये की अभिव्यक्ति है। कहा जा सकता है कि निजीकरण की नीती में आत्मनिर्भरता का पुट है। यह नीती गुणवत्ता और सेवा की प्रतिबद्धता से ओत-प्रोत है। लेहाजा देश भर में निजी स्कूलों का बड़ा नेटवर्क देखा जा सकता है। जिनके होर्डिंग्स पर क्वालिटी एजूकेशन के एक से एक वादे लिखे रहते हैं। इनके पाठ्यक्रम में महंगी किताबें होती हैं, महंगे अध्यापक/अध्यापिका हो सकते हैं, पूंजी प्रायोजित संभ्रान्त संस्कृति का प्रदर्शन हो सकता है, लेकिन समाजिक सरोकारों का मूल्य, परंपरा और संस्कार के रूप में सर्वथा अभाव रहता है। ऐसी स्थिति पूंजी प्रायोजित शिक्षण संस्थाओं और मानवीय संवेदनाओं के बीच की खाई को बढ़ाने वाली होती है। ऐसे में अमानवीय कुमनोवृत्तियों को समय रहते चिन्हित करना संभव नहीं होता। यदि हरियाणा वाली घटना की बात करें तो इस संभावना से इंकार मुश्किल है कि पूंजी की प्रधानता ने ही स्कूल प्रबन्धन को बस चालक के मन की बात को पढ़ने से वंचित रखा। यह घटना हमें यह सीख भी देती है कि किसी भी स्कूल में वाहन चालक के लिए न्यूनतम शैक्षिक और सामाजिक अर्ह्ता का निर्धारण वक्त की जरूरत है। जिस तरह से रेल के परिचालन के लिए ड्राइवरों के स्वास्थ्य की जांच वगैरह का नियम है, उसी तरह से स्कूल वाहनों के परिचालकों का समय-समय पर सामान्य स्वास्थ्य और मनोवैज्ञानिक परीक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए।

अक्सर ऐसी खबरें भी आती हैं कि ड्राइवर की गलती या लापरवाही से स्कूली वाहन पलट गया, बच्चे घायल हो गए या मर गए। ऐसे मामलों में अभिभावकों का गुस्सा भी देखने में आता है। तोड़फोड़ से लेकर आगजनी सबकुछ पलभर में कर देते हैं। गौरतलब है कि जो अभिभावक अपने बच्चे को अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए नामी-गिरामी स्कूलों में भेजता है। वही अभिभावक अपने बच्चे के साथ कुछ अप्रिय होने पर हिंसक और क्रूर क्यों हो जाता है? यही रवैया निजी नर्सिंग होम या निजी अस्पतालों या निजी प्रैक्टिशनरों के साथ देखा गया है। जब तक गुणवत्ता और सेवा मिलता रहता है, तब तक तो अभिभावक स्कूलों की ओर और तीमारदार अस्पताल की ओर नजर नहीं करते। लेकिन जैसे ही कुछ उन्नीस-बीस होता है, अभिभावक और तीमारदार अपनी नागरिक जिम्मेदारियों को भूलकर हिंसक हो उठते हैं। शायद इसलिए कि अभिभावक और तीमारदार के रूप में हमारी महत्वाकांक्षा उस शिखर पर पहुंच चुकी है, जहां से हमें अपनी वैयक्तिक इच्छाओं के अलावा किसी और के दुःख-दर्द की पीड़ा महसूस नहीं होती है। शायद इन्हीं कारणों और परिस्थितियों के चलते हम अपने बच्चों के लिए पूंजी प्रायोजित स्कूलों को चुनते हैं। जहां मैं, मेरा का बोध ज्यादा होता है और सामाजिक संवेदना का अभाव होता है। दूसरी बात यह कि यदि पूंजी प्रायोजित स्कूल या अस्पताल फीस अधिक ले रहे हैं और उन्हें बच्चों और मरीजों की चिन्ता नहीं है तो हम अपने बच्चों का दाखिला सरकारी स्कूलों में क्यों नहीं कराते? या सरकार पर दबाव क्यों नहीं बनाते कि शिक्षा की पूरी जिम्मेदारी सरकार खुद उठाए।

कुछ लोग यह सुझाव दे रहे हैं कि विद्यालयों में सीसीटीवी कैमरे अनिवार्य कर देने चाहिएं। एडवोकेट जैनेश कश्यप का विचार है कि स्कूल में सीसीटीवी कैमरों को संचालित करने के लिए अलग से एक ऑपरेटर की नियुक्ति करनी चाहिए, जो नित्य प्रतिदिन इसे देखा और जांचा करे। दिनेश चन्द्र राय इण्टर कॉलेज मुहम्मदाबाद में अंग्रेजी के प्रवक्ता रहे हैं। उनकी जिज्ञासा “यह व्यवस्था कौन करेगा?“ का जवाब देते हुए एडवोकेट जैनेश कश्यप अपने फेसबुक वाल पर लिखते हैं कि “यह व्यवस्था विद्यालय प्रशासन को करनी चाहिए। उनके ऊपर अभिभावकों व जिला प्रशासन का दबाव होना चाहिए।”  एडवोकेट जैनेश कश्यप और दिनेश चन्द्र राय की बातों से जाहिर होता है कि अगर स्कूल प्रबन्धन सीसीटीवी कैमरा का बन्दोबस्त करले और इसके लिए एक ऑपरेटर रख ले तो बच्चों के साथ होने वाली आपराधिक घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकी जा सकती है। तकनीक के इस्तेमाल से हमारे जीवन में आसानिया पैदा हुई हैं। चूंकि बात एक यौन अपराध के आइने में एक बच्चे की नृशंस हत्या के संदर्भ में हो रही है, तो हमें देखना पड़ रहा है कि तकनीक ने मानव मन को उसकी नैसर्गिक दोष युक्त सोच से मुक्त करने में क्या भूमिका निभाया? इस सवाल पर गौर करने से ऐसा प्रतीत होता है कि हम तकनीक के क्षेत्र में, तकनीक के इस्तेमाल से कामयाबी की तमाम सीढ़ियां चढ़ने के बाद भी मानव मन में साकारात्मक सामाजिक सोच युक्त संवेगों की प्रबल धारा प्रवाहित करने में असफल रहे हैं। इस आलोक में यह सवाल लाजमी है कि किसी स्कूल या प्रतिष्ठान में स्थापित सीसीटीवी कैमरा जैसे किसी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण या यंत्र को ऑपरेट करने वाले की अर्ह्ता (सामाजिक और मनोवैज्ञानिक) की जांच कौन करेगा? ऐसे ऑपरेटरों के लिए न्यूनतम योग्यता का निर्धारण कौन करेगा और इनके लिए जो भी पाठ्यक्रम बनाया जाएगा, उसकी पढ़ाई की फीस कितनी होगी? किन संस्थानों को ऐसी शार्ट टर्म या लान्ग टर्म कोर्स कराने के लिए भारत या प्रदेश सरकारों की ओर से अधिसूचित किया जाएगा? इन सवालों के बीच इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि स्कूलों में कैमरा नहीं होना चाहिए। बिल्कुल होना चाहिए, लेकिन क्या यह उचित होगा कि हम अपने ही समाज के लोगों के साथ अविश्वास के संबंधों को मजबूत करें। क्या ऐसा करना लिंग आधारित विविधता और निजता को बनाए रखने की दृष्टि से उचित होगा? क्योंकि किसी भी बुराई के पीछे बहुत से कारक होते हैं। इनमें सबसे प्रमुख हमारा समाज और समाज में रहने वाले विभिन्न सामाजिक समूहों की सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक, सास्कृतिक परिस्थितियां और गतिविधियां शामिल होती हैं। उदाहरण स्वरूप कई बार माता-पिता हैरान होते हैं कि उनका बच्चा गाली कहां से सीखता है। जब कि न तो उनके स्कूल में गालियां सिखाने की कोई क्लास होती है और न ही घर का कोई सदस्य गाली देता या देती है। यह भी सत्य और तथ्य है कि ज्यादातर गालियां महिला केन्द्रित होती हैं। यानि हम अपने बच्चों से कुछ अच्छा करने की उम्मीद एक ऐसे सामाजिक परिवेश में करते हैं, जहां मर्दानापन यानि पितृसत्तात्मक सोच से अनुप्राणित गालियां और अन्य गतिविधियां होती हैं। जिसका सीधा संबंध शक्ति के दो ध्रुवों से होता है। जो धु्रव अपने आप में मजबूत होता है, वो कमजोर के साथ अन्याय, भेदभाव, अपमान, अनादर, हिंसा और क्रूरता जैसे व्यवहार करता है। अनुभव बताता है कि बच्चे अपने सामाजिक परिवेश में ही गालियां सीखते हैं। जैसे मुहल्ले में खेलकूद के समय, घर से बाहर कहीं आते-जाते समय। गालियां देता कौन है? हमारे-आप जैसे लोग ही गालियां देते हैं। दूसरी तरफ बलवान का बल कहीं न कहीं उसके सामाजिक ढ़ांचे के स्वरूप और उसकी परंपरागत प्रवृत्तियों से अक्षुण्य रहता है। इस उदाहरण का संदर्भ इसलिए भी देना पड़ा है कि हम अकेले कुछ तय नहीं कर सकते हैं। विशेषकर ऐसे समाज में जहां पितृसत्ता और अलोकतांत्रिक मूल्य अभी बहुत मजबूत है। इसीलिए ऐसा मुमकिन है कि जो सीसीटीवी कैमरा स्कूल के कर्मचारियों की निगरानी करने के मकसद से लगा हो, क्या पता उसका उपयोग ऑपरेटर अपने कुंठित भावनाओं को तृप्त करने के लिए करने लगे। इस घटना में ड्राइवर को एक ऐसे ही ऑपरेटर के तौर पर देखा जाए तो अंदाजा होता है कि सीसीटीवी सुरक्षा के साथ-साथ अपने नाकारात्मक प्रभावों में ऐसी हिंसक घटनाओं को जन्म दे सकता है। इसलिए जरूरी है कि पहले हम और हमारा समाज संवेदनशील बने। शिक्षा का दृष्टिकोण विकसित करे। किसी भी सामाजिक-शैक्षिक कार्य में अपनी सहभागिता सुनिश्चित करे। वैसे भी स्कूल-कॉलेज को चन्द कैमरों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। बल्कि इसके लिए संवेदनशील, समझदार और जिम्मेदार स्कूल प्रबन्धन के साथ-साथ परिपक्व और प्रशिक्षित मानव मन की जरूरत होती है। तब जाकर कहीं बचपन को संवारने और निखाने की साधना पूरी होती है।

जामिया मिल्लिया इस्लामिया में प्रवक्ता मेरी एक मित्र कंचन जो इस समय यूरोप के बूडापेस्ट में हैं, इस घटना को कर्मचारियों और अन्य स्टॉफ के लिए अलग से टॉयलेट होने और न होने से जोड़कर देखती हैं। वो अपने फेसबुक वाल पर लिखती हैं कि “आम तौर पर जैसे रेजिडेंशियल कॉलोनी में काम करने के लिए आने वाली घरेलू नौकरानियों के लिए कॉलोनी में कोई टॉयलेट नहीं होते और वे किसी घर में चुपके से चली जाती हैं या सभ्य लोगों की रिहाईश के किसी किनारे निपट लेती हैं। ऐसे ही स्कूल में बस ड्राइवर, कंडक्टर, कर्मचारियों के लिए भी बच्चों से अलग कोई अलग टॉयलेट की व्यवस्था नहीं करने की मानसिकता खतरे पैदा करते हैं।... कितना शर्मनाक है लगता है कि हम अपने बच्चों को इन्सानों से डरना सिखाते हैं!!” 

इस संदर्भ में बताना जरूरी मालूम होता है कि जब मैं कहानियों पर शोध प्रबन्ध लिख रहा था, उस समय इकबाल मजीद की कहानी “पेशाब घर आगे है!” पढ़ी थी। कहानी में एक व्यक्ति को पेशाब के दबाव से होकर गुजरना पड़ता है। शहर की भीड़ में सबकुछ है, लेकिन न तो टॉयलेट है और न ही पेशाब के दबाव से उत्पन्न पीड़ा झेल रहे व्यक्ति को किसी दुकानदार की अनुमति है कि उसके दुकान के साइड में या पीछे पेशाब किया जा सके। इकबाल मजीद के कहानी “पेशाब घर आगे है!” का संदर्भ बहुत वृहद हो सकता है। यहां मित्र कंचन और संवेदनशील लेखिका ने इस दिशा में कुछ ऐसा लिखा, जिसको नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है। क्योंकि हमारा समाज भी कहीं न कहीं ऐसे दबाव में है, जिससे मुक्ति के लिए कोई रास्ता देना नहीं चाहता। हमें अपने स्वार्थ की पूर्ति करने की लालसा है लेकिन कोई जन सुविधाओं के बारे में गंभीर नहीं है। जो लोग गंभीर हैं, उन्हें भी पूंजी आधारित निवेश और मुनाफा की फिक्र ज्यादा है। फलस्वरूप कमजोर पहचान वालों पर चैतरफा खतरा बढ़ा है। ऐसे में कंचन की टिप्पणी “कितना शर्मनाक है, लगता है कि हम अपने बच्चों को इन्सानों से डरना सिखाते हैं!!” बुनियादी शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वालों की सोई हुई संवेदना को कुरेदने वाली है। इनमें स्कूल प्रबन्धन से लेकर, स्कूल के टीचिंग स्टॉफ, नॉन टीचिंग स्टाफ, किताब बेचने वाले और अभिभावक के रूप में किताब खरीदने वाले सभी शामिल हैं।

वास्तव में पेशाब और शौच शहरों और गांवों दोनों ही जगहों पर एक बड़ी समस्या है। गांव में जहां लोग खुले में शौच करने के अभ्यस्त हैं, उन्हें विभिन्न स्वास्थ्य, संस्कार और स्वच्छता जैसे कारणों के चलते घर के अन्दर शौच करने का अभियान चलाया जा रहा है। फिर भी शाम ढ़लते ही गांव से लगे सड़कों और पगडंडियों के किनारे महिलाओं-पुरूषों की बड़ी संख्या में मौजूदगी चिन्ता का विषय है। उसमें भी कुछ स्वयं सेवक टॉर्च दिखाकर कैमरा से फोटो खींच लें या फिर किसी की बहन-बेटी के साथ अभद्र व्यवहार करें, तो हम-आप जैसे लोग कुछ करने में असमर्थ होते हैं। क्योंकि यहां भी डर और खौफ निजता के सवाल पर भारी पड़ता है। यह तो आउटडोर का मामला है। यदि “क्राइम इन इण्डिया” का संदर्भ लें तो ज्यादातर आपराधिक घटनाएं इनडोर यानि घर-मकान के अंदर होती हैं। ऐसी घटनाओं को अंजाम भी वही लोग देते हैं, जिनका संबंध बहुत करीब का होता या फिर जो परिचित और विश्वासी होते हैं। जाहिर है हम और हमारे समाज की सांसे तकनीक के सहारे नहीं चल सकती हैं। तकनीक का इस्तेमाल पीड़ित को राहत पहुंचाने के लिए करना ठीक है। तकनीक का इस्तेमाल किसी आम इंसान विशेषकर महिला, बच्चा, गरीब, पिछड़ा, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक वगैरह कमजोर पहचान वाले व्यक्तियों को हिंसा और यातना देने के लिए करना ठीक नहीं है। तकनीक के इस्तेमाल की पहली शर्त पूंजी है। पूंजी मजबूत लोगों के पास है या मजबूत लोगों का पूंजी पर नियंत्रण है। ऐसे में अगर सीसीटीवी कैमरे जैसे यंत्रों से स्कूल और समाज के संभ्रान्त वर्ग को ही सुरक्षा प्रदान किया जा सकता है। एक और मित्र महेन्द्र सिंह के फेसबुक वाल के माध्यम से गाजियाबाद स्थिति इन्दिरापुरम के एक स्कूल प्रबन्धन की बच्चों की सुरक्षा संबंधी चिन्ता का संज्ञान हुआ है। महेन्द्र सिंह जी ने अपने वाल पर स्कूल द्वारा भेजी गयी चिट्ठी पर लगाया है और स्कूल प्रबन्धन के संवेदनशील होने की बात कही है। 

जाहिर है इस पूरे प्रकरण में बच्चों की सुरक्षा ही चिन्ता का विषय है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि गुरूग्राम का मामला एक स्कूल का मामला नहीं, बल्कि पूरे देश का मामला है। इस संदर्भ में सभी राज्य सरकारों को नोटिस भी जारी की गयी है। सुप्रीम कोर्ट का यह कदम सराहनीय है। लेकिन गौर करने का विषय यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के बयान और राज्य सरकारों को नोटिस जारी कर देने भर से बच्चों के साथ होने वाली आपराधिक घटनाओं पर लगाम लगाया जा सकता है? मौजूदा दौर में जिस तरह से सरकारों ने शिक्षा के क्षेत्र में पूंजी निवेश को बढ़ावा दिया है, उससे शिक्षा के न सिर्फ दो मॉडल, निजी और सरकारी दिखाई देते हैं, बल्कि विकास का निजी मॉडल देश के बहुसंख्यक परिवारों के बच्चों के लिए निराशा पैदा करने वाला रहा है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट और सरकारों को इस दिशा में भी विचार करने की आवश्यकता है कि हमारे तंत्र में ऐसा क्या है कि निजी मॉडल में कुछ होता है तो उसकी गूंज सत्ता के गलियारों से लेकर सुप्रीम कोर्ट हर जगह सुनाई देती है। वहीं दूसरी तरफ किसी पांच साल की बेटी का बलात्कार होने पर भी सत्ता के पुराधाओं और सुप्रीम कोर्ट के कान पर जूं तक नहीं रेंगती है। ऐसा प्रतीत होता है कि हमारी सरकारों और संविधान द्वारा स्थापित लोकतांत्रिक संस्थाएं जैसे स्कूल-कॉलेज और अस्पताल आदि को पतन के रास्ते पर जानबूझ कर ढ़केला जा रहा है। यदि ऐसा नहीं होता तो सरकार शिक्षा पर बजट बढ़ाने और सरकारी स्कूलों के प्रसार की दिशा में काम करती, न कि अपने ही देश के बच्चों को पूंजीपतियों के रहमों करम पर छाड़ने के लिए सरकारी स्कूलों को हतोत्साहित करने वाले कानून बनाती। यदि वास्तव में सरकार और सुप्रीम कोर्ट को लगता है कि जो बच्चे यौन हिंसा या बलात्कार जैसे किसी घटना का शिकार बन रहे हैं तो कार्यपालिका और न्यापालिका को शिक्षा शास्त्र के सिद्धान्तों को मद्दे नजर रखते हुए शिक्षा और समाज को एक समन्वित इकाई के तौर पर मान्यता देना चाहिए। जिसमें इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया जाना चाहिए कि हर बच्चा देश के लिए महत्वपूर्ण है और बच्चों की शिक्षा सिर्फ मां-बाप और अध्यापक-अध्यापिका की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि उस समाज की भी जवाबदेही है जहां बच्चा आने-जाने, खेलने-कूदने जैसे विविध गतिविधियां करता है। जिन अभिभावकों को अपने बच्चों के साथ हिंसात्मक आपराधिक घटनाओं की पीड़ा झेलनी पड़ रही है, उन्हें निजी स्कूलों के खिलाफ सरकारी सरकारी स्कूलों की बेहतरी के लिए आवाज उठानी चाहिए। ऐसे लोगों की आवाज में समाज के शिक्षित और जागरूक लोगों की आवाज भी मिलनी चाहिए। समाज के बेस्ट प्रैक्टिसेज को प्रचारित और प्रसारित करना समाज में आगे बढ़ चुके लोगों का नैतिक और सामाजिक दायित्व होना चाहिए। यदि “कॉरपोरेट सोशल रिस्पान्सिबिलिटी” मुमकिन है तो यह भी मुमकिन है कि “पीपल्स एजूकेशनल रिस्पॉन्सिबिलिटी” जैसी किसी युक्ति को लागू किया जाए। तब जाकर समाज में शिक्षा की दृष्टि पैदा होगी और बच्चों का बचपन सही मायनों में संवारा जा सकेगा। वरना टेक्नोक्रेसी का उफान और कमजार हो रहे लोकतांत्रिक मूल्य न सिर्फ बुनियादी शिक्षा के लिए खतरे पैदा करने वाले हैं, बल्कि मानव मन की विकृतियों को दिनों दिन बढ़ाने वाले हैं, जो संविधान में उल्लिखित लोकतांत्रिक आदर्शों के अनुरूप समाज के दीर्घकालिक हित में नहीं है।



Thursday, June 15, 2017

दोहरी शिक्षा व्यवस्था और आहत अभिभावक


निजी विद्यालयों द्वारा मनमाना फीस लेना अभिभावकों पर भारी पड़ रहा है। पिछले लगभग एक दशक में देश के विभिन्न क्षेत्रों विशेषकर यू.पी., बिहार और दिल्ली जैसे राज्यों में बढ़ती फीस के खिलाफ अभिभावकों में अच्छा-खासा रोष देखा गया है। खास बात यह है कि यह रोष किसी मौसमी बीमारी की तरह प्रवेश के समय ही देखा गया है। जिस तरह से गर्मी शुरू होते ही पारा चढ़ने लगता है, उसी तरह मार्च का महीना करीब आते ही फीस वृद्धि की खबरें अखबारों की सुर्खियां बनने लगती हैं। फीस वृद्धि से संबन्धित खबरों में निजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावकों की पीड़ा इस तरह से बयान होती है जैसे नयी बीमारी के बाद कोई व्यक्ति खून उगल रहा हो। कहना नहीं है कि निजी विद्यालयों में फीस के साथ-साथ किताबों और समय-समय पर भुगतान की जाने वाली अन्य शुल्क का बोझ भी अभिभावकों की जेब पर भारी पड़ रहा है। यही कारण है कि निजी विद्यालयों में अपने बच्चों का भविष्य संवारने का सपना सजोने वाले मां-बाप नयी व्यवस्था के चरित्र से कराह रहे हैं। गौर तलब है कि निजी स्कूलों में फीस वुद्धि के मुद्दे का समय-समय पर सरकारों ने भी संज्ञान लिया है और अपनी तरफ से उचित कदम उठाने का आश्वासन दिया है। निजी विद्यालयों में फीस की अधिक दर संज्ञान लिया जाना और तत्संबंधी उपचार पर विचार करना अच्छी पहल है। लेकिन कुछ सवाल हैं, जिन पर विचार ज़रूरी है। पहला यह कि जो लोग फीस वृद्धि से त्रस्त हैं वे समाज के किस वर्ग से संबंध रखते हैं? दूसरा यह कि क्या वास्तव में फीस वृद्धि स्कूल जाने वाले बच्चों की बहुसंख्यक आबादी और अभिभावकों का मुद्दा है? तीसरा यह कि यदि फीस वृद्धि बहुसंख्यक बाल आबादी और ऐसे बच्चों के माँ-बाप के लिए मुद्दा है तो ऐसे अभिभावक मनमानी फीस वसूलने वाले निजी स्कूलों का परित्याग कर अपने बच्चों को परिषदीय या निकाय द्वारा संचालित स्कूलों में दाखिला क्यों नहीं कराते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि फीस वृद्धि का मामला चन्द लोगों का मामला हो और इसे आम जनता की समस्या बनाकर पेश किया जा रहा हो। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह समस्या उस वर्ग विशेष का है, जो नौकरी पेशा है, या व्यापारी है, या शिक्षा के प्रति किसी हद तक जागरूक है। दो टूक शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि यह समस्या उस वर्ग की है, जो उपभोक्तावाद को बढ़ाने में पूंजीपतियों के साथ खड़ा है लेकिन नागरिक अधिकारों का उल्लंघन होने पर पूंजीवाद का वैचारिक और
सैद्धांतिक विरोध नहीं करता। बल्कि अपने हित को सबके हित से जोड़कर फीस वृद्धि जैसी समस्या को सामूहिक समस्या के रूप में व्याख्यायित करता है। जबकि स्कूल शिक्षा के बारे में कम से कम उत्तर प्रदेश के संदर्भ में
एन.सी.ई.आर.टी. के आठवें अखिल भारतीय शैक्षिक सर्वेक्षण के अनुसार सरकारी, निकाय द्वारा संचालित,
सहायता प्राप्त निजी और गैर सहायता प्राप्त निजी प्राथमि स्कूलों का अनुपात क्रमशः 76, 4, 2, 18 प्रतिशत है। अर्थात उत्तर प्रदेश में सरकारी प्राथमिक और निजी प्राथमिक स्कूलों का अनुपात 80 और 20 प्रतिशत है।

ये आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में अभी भी बाल आबादी का बड़ा हिस्सा प्राथमिक शिक्षा के लिए सरकारी विद्यालयों पर निर्भर है। पिछले दो दशकों में ये भी हुआ है कि मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग के साथ-साथ गरीब और अभावग्रस्त जीवन व्यतीत करने वाले लोगों का एक बड़ा हिस्सा सरकारी स्कूलों से विमुख हुआ है। फिर भी सरकारी स्कूलों का आस्तित्व गरीब, पिछड़े, दलित, महिला और पसमांदा समाज के लोगों के लिए डूबते को तिनके का सहारा से कम नहीं। बावजूद इसके इस आलेख के माध्यम से सरकारी स्कूलों से विमुखता की वास्तविकता को जानने की कोशिश की जा रही है। क्योंकि सरकारी स्कूलों से मोह भंग होने के पक्ष में जो सबसे बड़ी दलील दी जाती है वो ‘गुणवत्ता’ है। ज़रूरी है कि गुणवत्ता को भी समझा जाए। क्योंकि “गुणवत्ता“ का संबंध फीस वृद्धि से है। बल्कि यह कहा जाना चाहिए कि “गुणवत्ता“ नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पिटारे से निकला ऐसा जिन्न है, जो जीवन के हर क्षेत्र में हमारा पीछा कर रहा है। देश की अर्थ व्यवस्था में ढ़ांचागत बदलाव को परिलक्षित करने वाले इस जिन्न से बुनियादी शिक्षा का ढ़ांचा भी अछूता नहीं रहा है। इसे अंग्रेजी में “क्वालिटी“ कहते हैं। इसके साथ “सर्विस“ का होना भी लाजमी है। आर्थिक सुधारों से अनुप्राणीत हर काम में इन दो तत्वों का होना अपरिहार्य है। लिहाजा शिक्षा के क्षेत्र में भी इन दो तत्वों की तलाश शुरू हुई। आर्थिक सुधारों को प्रचारित और प्रसारित करने में तीसरा तत्व “प्रतिस्पर्धा“ का रहा है। शायद बुनियादी शिक्षा के क्षेत्र में इन तीन मिथकों को स्थापित करना जरूरी था और इसीलिए क्वालिटी, सर्विस और कम्पटीटीवनेस को बढ़ावा देने वाले स्कूलों की नई प्रथा शुरू हुई। इन्हें पब्लिक और काॅनवेन्ट स्कूलों की परिपाटी के रूप में भी देखा जा सकता है। जब ये स्कूल अपने शुरूआती दौर में थे उस समय अखबारों की सुर्खियों में “गली-गली कुकुरमुत्ता की तरह ..... पब्लिक स्कूल” खबर प्रकाशित होती थी। दो-ढ़ाई दशक गुजरने के बाद अब अखबारों की सुर्खियों में “निजी स्कूलों की मनमानी से ........ अभिभावक परेशान“ या “अभिभावकों ने किया प्रदर्शन....“ आदि खबरें प्रकाशित होती हैं। इसे एक शिफ्ट के रूप में देखे जाने की जरूरत है। पिछले लगभग पच्चीस वर्षाें में समाचार की सुर्खियों में इस तरह के बदलाव से अंदाजा होता है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था एक बड़े बदलाव से गुजर चुकी है। बदलाव की हज़ारों अनकही कहानियां हैं। कुछ एक का संदर्भ लेने पर चित्र और स्पष्ट हो जाता है कि जो सरकारी स्कूल बुनियादी शिक्षा की रीढ़ की हड्डी हुआ करते थे, आज वही स्कूल खिचड़ी, वजीफा और किताबों, शिक्षा मित्रों की बहाली, शिक्षकों का स्थानान्तरण, छुट्टियां वगैरह से पहचाने जा रहे हैं।
 संदर्भ के तौर पर बाबूजी के बारे लिखना ज़रूरी हो जाता है। “हमारे पड़ोस के विजय बाबूजी अपने ज़माने के ग्रेजुएट की योग्यता रखते हुए ही भारतीय रेल को न भूलने वाली सेवाएं दीं। बाबूजी हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन रिटायरमेन्ट के बाद उन्होंने जिन बच्चों को अपने बरामदे में बैठाकर अंग्रजी पढ़ाई वो बच्चे उन्हें आज भी याद करते हैं। बाबूजी से अंग्रेजी पढ़ने वाले बच्चों को तो मालूम भी नहीं है कि बाबूजी की शैक्षिक योग्यता क्या थी? या बाबूजी किस सर्विस में थे? या तमाम उम्र रेलगाड़ी में हिचकोले खाने वाले बाबूजी को अंग्रेजी ग्रामर से कब दिलचस्पी हुई, उन्होंने कैसे पढ़ाई की वगैरह-वगैरह...। ऐसे ही व्यक्तित्व के मालिक थे स्व॰ श्री जगदीश चन्द्र श्रीवास्तव। जिन्होंने नायब तहसीलदार पद से रिटायर होने के बाद मेरे जैसे बहुतों को उर्दू और फारसी की सीख दी। कहते थे कि अपने जीवन में 40000 बच्चों को पढ़ाया है। गौर करने का मोकाम है कि सर्विस पीरियड में पहले के लोग चाहे किसी भी विभाग में हों, सीखने-सिखाने के संदर्भ में पढ़ाई के लिए तत्पर रहते थे। दादा जी, जिनका असल नाम हमीद खाँ था। सदर रोड स्थित डाॅ॰ फतह मुहम्मद के क्लिनिक में हर सुबह-व-शाम बैठकी करने वालों में एक नाम तौकीर अहमद खाँ वकील का है, जिनकी उम्र 84 वर्ष हो चुकी है। तौकीर अहमद खाँ दादा जी को अपना बहनोई समझते हैं। उन्होंने बताया कि दादा जी का परिवार तातारी पठानों से ताल्लुक रखता है। दादा जी के बारे कहा जाता है कि वो अंग्रेज़ों के ज़माने के दारोगा थे। उन्होंने जितने दिन नौकरी की, उससे कहीं अधिक दिनों तक पेन्शन उठाई। गुलाम हिन्दुस्तान में दारोगा रहे दादा जी की क्वालीफिकेशन तौकीर अहमद खाँ वकील के मुताबिक 10वीं पास की थी, लेकिन उर्दू शेर की उनकी समझ और परख ने उन्हें गे्रजुएशन के छात्र/छात्राओं का उस्ताद ज़रूर बना दिया। उस पर तुर्रा ये कि वो फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते थे। उनके मुंह से अंग्रेजी सुनकर ऐसा मालूम होता था कि हमारे बीच कोई अंग्रेज आ बैठा है।“ तौकीर अहमद खाँ वकील की बातों पर यकीन करें तो अंग्रेजी की ही बदौलत दादा जी को पहली बार हवलदार की नौकरी मिली थी। लेकिन अब जबकि हम आधुनिकता की बिसात पर कई कदम आगे निकल आए हैं तो “क्वालिटी, सर्विस और प्रतिस्पर्धा“ की चुनौतियों से प्रतिदिन जूझना पड़ रहा है। बाबूजी और दादाजी के जमाने की शिक्षण पद्धति अब बीते दिनों की बातें मालूम होती हैं। बुनियादी शिक्षा का परिदृश्य कुछ ऐसा है कि कदम-कदम पर पैसे की मांग बढ़ी है। बात फीस की ही नहीं है। काॅपी-किताब और डेªस से लेकर आए दिन विभिन्न प्रकार के प्रोजेक्ट और अन्य गतिविधियों के नाम पर खर्च होने वाले पैसे की भी है। पहले एक किताब से एक के बाद एक कई बच्चे पढ़ाई कर लिया करते थे। लेकिन अब प्रतिवर्ष किताबों का बदल जाना अभिभावकों की जेब पर भारी पड़ रहा है। डेªस का भी मामला कुछ ऐसा ही है। लेकिन यह खर्च 20 प्रतिशत स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावकों के लिए ही समस्या है। बाकी बच्चे तो आज भी परिषदीय या नगर निकाय द्वारा संचालित प्राथमिक विद्यालयों पर निर्भर हैं। ज़ाहिर है बुनियादी शिक्षा में सरकार की भूमिका को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता है। यदि सरकार चाहे तो सरकारी स्कूलों का कवरेज बढ़ाने के लिए उपाय कर सकती है। जैसे प्राथमिक स्तर पर किताबों की कोई एक नीति बनाना। सभी विद्यालयों को इस बात के लिए प्रोत्सहित करना की सरकारी किताबें ही पढ़ाएं। कहीं भी गैर सरकारी किताबें पढ़ाए जाने पर उचित अनुशासनात्मक कार्यवाही करना आदि। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि किताबों की प्रिन्टिंग की जिम्मेदारी सरकार खुद ले और समय पर किताबों की छपाई और स्कूलों तक किताबों को पहुंचाना सुनिश्चित करे। चूंकि हम लोकतंत्र में रह सकते हैं और शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका को सुनिश्चित करना किसी भी कल्याणकारी राज्य में सरकार का दायित्व समझा जाता है। लेहाज सरकार से किताबों की अपेक्षा रखने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए। जिन लोगों को सरकारी किताबों के पृष्ठ गन्दे, पुराने और घटिया किस्म के लगते हैं, वो लोग निश्चित तौर पर संभ्रान्त कहे जाने चाहिए। ये वही लोग हैं जो अपने बच्चों की प्राथमिक शिक्षा के लिए निजी की व्यवस्था चाहते हैं। जिसके लिए कोई भी मूल्य जैसे डोनेशन और फीस की अधिक रकम आदि अदा करने के लिए तैयार रहते हैं। लेकिन फीस वृद्धि की समस्या का समाधान सरकार से चाहते हैं। ऐसे लोग अपने बच्चों को बेशक क्वालिटी, सर्विस और प्रतिस्पर्धा के नाम पर निजी स्कूलों में पढाते हैं। ये लोग अपने बच्चों को बी.एड., इंजीनियरिंग, मेडिकल और किसी अन्य डिसिप्लीन/विषय में स्नातक व परास्नातक स्तर की पढ़ाई के लिए सरकारी काॅलेजों/संस्थानों को प्राथमिकता सूची में ऊपर रखते हैं लेकिन सरकारी प्राइमरी स्कूलों में नहीं पढ़ाने चाहते हैं? सवाल लाज़मी है कि ऐसा क्यों है? यदि अपवाद स्वरूप निम्न मध्यम वर्ग, एवं मजदूर, किसान, गरीब दलित, पिछड़ और पसमांदा परिवारों के चन्द बच्चों को छोड़ दिया जाए तो फीस की बड़ी रकम या फीस वृद्धि वाकई संभ्रान्त वर्ग की समस्या है, जिसे बार-बार सामूहिक समस्या के तौर पर पेश किया जाता है।
सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि सरकारी स्कूलों में अपने मूल मंतव्य से हट गए हैं। कम से कम मेरे लिए यह सवाल परेशानी का सबब ज़रूर है कि जिन परिषदीय और निकाय द्वारा संचालित स्कूलों को खिचड़ी और घटिया डेªस के लिए बदनामी का दंश सहना पड़ता है, वहां शत-प्रतिशत शिक्षित और प्रशिक्षित अध्यापक/अध्यापिका हैं। बावजूद इसके व्यवस्थागत दोष के चलते सरकारी विद्यालय योजनाओं के क्रियान्वयन का प्रयोगशाला बने हुए हैं। ऐसे में निजी विद्यालय गुणवत्तापरक शिक्षण व्यवस्था के चैम्पियन बने हुए हैं। मौजूदा हालात ऐसे हैं कि निजी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाना जुनून बनता जा रहा है। यह भी देखा जा रहा है कि क्वालिटी और सर्विस के नाम पर मध्यम वर्ग के साथ-साथ शिक्षा के प्रति नवजागरूक निम्न मध्यम एवं निम्न वर्ग का भी एक बड़ा हिस्सा अपना सबकुछ लुटाने को आतुर है। चूंकि हम लोकतांत्रिक गणराज्य के नागरिक हैं और हम लोग नागरिकता के अधिकार के साथ-साथ अपने कर्तव्य से बंधे हैं। इस आलोक में किसी निजी स्कूल या उसके कामकाज के तौर-तरीकों का विरोध यहां मकसद नहीं है। लोकतंत्र इस बात की आज़ादी देता है कि लोग अपने पसंद के शिक्षण संस्था चला सकते हैं, अपने बच्चों का अपने पसंद की शिक्षा दे सकते हैं। लेकिन लोकतंत्र में पूंजी नियोजित निजी स्कूलों की श्रृंखला को मजबूत करना सर्वथा अनुचित है। क्योंकि शिक्षा का निजिकरण और बाजारीकरण समाज के अभिवंचित तबकों के लिए वंचना की नयी शुरूआत कर सकती है। दिलचस्प है कि गरीबों को प्राथमिक शिक्षा की वंचना से बचाने के लिए 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के अन्तर्गत निजी स्कूल में 25 प्रतिशत गरीब बच्चों का दाखिला सुनिश्चित करने का उपबंध किया गया है। ऐसा सुनने में आया है कि कई निजी स्कूल अपने यहां दाखिला देने में आनाकानी कर रहे हैं। बहरहाल, अगर बड़े स्कूलों में दाखिला मिल भी जाए तो इन 25 प्रतिशत गरीब बच्चों के लिए संभ्रांत संस्कृति को वहन करने का खर्च उठा पाना मुश्किल होगा। ऐसे में गरीब बच्चों का मनोबल टूटेगा और उनकी स्थिति न इधर की न उधर की रहेगी। क्यों न संभ्रांतों के लिए ही सरकारी प्राथमिक स्कूलों में सीट सुरक्षित कर दिया जाए। एक बार कोर्ट ने ऐसा निदेश दिया भी था कि सरकारी अधिकारी अपने बच्चों का सरकारी स्कूलों में पढ़ाएं। लेकिन लोकतंत्र पसंद और नापसंद करने की आज़ादी देता है। लिहाजा इस आइडिया को छोड़कर ही बात की जानी उचित है। पिछले वर्ष उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से पड़ोस में शिक्षा प्राप्त करने की अवधारणा को लागू करने संबंधी एक शासनादेश जारी किया गया। जिसके अनुसार यदि सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में किसी कक्षा में 30 बच्चों की संख्या पूरी हो जाती है तो इसके बाद के बच्चों का दाखिला नजदीक स्थित निजी स्कूल में कराया जाए। इस तरह के उपाय करके सरकारें अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हुआ मान लेती हैं। ऐसे कानूनी प्रावधान और शासन के आदेश से ज़ाहिर है कि सरकारें शिक्षा के निजीकरण, व्यावसायीकरण और बाजारीकरण के सवाल पर खामोश हैं? सरकार की खामोशी बताती है कि शिक्षा उनके एजेण्डे में प्राथमिकता सूची में बहुत नीचे है। शायद यही वजह है कि सरकारें फीस वृद्धि पर बयान जारी करके वाह-वाही तो बटोरती हंै, लेकिन फीस को नियंत्रित करने या शिक्षा पर बजट बढ़ाने का निर्णय नहीं करती हैं।
कहना पड़ रहा है कि सरकारी और निजी स्कूल प्रबंधन की बहस में प्राथमिक शिक्षण व्यवस्था दुर्दशा का शिकार हुआ है। क्योंकि सरकारी विद्यालयों से पढ़े पिछली पीढ़ी के व्यक्ति ही आज की तारीख में देश के उच्च पदों पर आसीन हैं। ऐसे अधिकारी और राजनेताओं की संख्या कम नहीं है जिन्होंने प्राथमिक शिक्षा सरकारी स्कूलों में प्राप्त किया है। फिर अचानक से सरकारी स्कूल स्तरहीन कैसे हो गए? दर असल यह सब अचानक नहीं हुआ। इसके पीछे दो दशक का समय लगा है। वो समय जिसका एक-एक लम्हा अधिशेष मुनाफा, शार्टकट और उपभोक्तावादी सोच को आगे बढ़ाने में खर्च किया जाता रहा है। इस सोच को पोषण देने और पल्लवित करने में खुद सरकार का योगदान भी रहा है। सर्व शिक्षा अभियान का दम भरने वाली सरकार के पास उपलब्धि के नाम पर नामांकन और नए विद्यालयों की संख्या में वृद्धि के अलावा कुछ और नहीं है। सरकारी स्कूलों से विमुख होते लोगों के कदम को रोकने के उपाय नहीं हैं। हो भी कैसे, सरकार की अपनी जिम्मेदारियों में शिक्षण संस्थाएं महज कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन का प्रयोगशाला बनकर रह गए हैं। गुणवत्ता की बात होती है, तो माॅडल स्कूलों और सीबीएसई बोर्ड की तर्ज पर पढ़ाई की बातें अखबारों की सुर्खियां अवश्य बनती हैं। लेकिन शिक्षकों की कमी पर ध्यान नहीं जाता है। तदर्थ शिक्षकों को स्थायी करना और नयी नियुक्तियां भी समानान्तर जारी रहती हैं, लेकिन विद्यालयों की आवश्यकताओं का सही आंकलन या तो किया नहीं जाता है, या फिर किया भी जाता है, तो समय रहते विद्यालयों की ज़रूरतों को पूरा करना शिक्षा महकमे के कर्मचारियों और अधिकारियों के लिए टेढ़ी खीर होती है। 
फीस वृद्धि पर बहस जारी है। लेकिन सरकार के कंधे पर प्राथमिक शिक्षा खुद बड़ी बोझ बन गयी है। कहना पड़ रहा है कि सरकार ने बुनियादी शिक्षा को कानूनन मौलिक अधिकार बना तो दिया लेकिन शिक्षा पर खर्च होने वाले बजट के सवाल पर सरकार का मौन प्राथमिक शिक्षा के निजीकरण को बढ़ाने वाला है। एक वजह यह भी है कि इन दिनों गांव-कस्बे के लोग मतवाले की तरह प्राइवेट स्कूलों की ओर भाग रहे हैं। बल्कि भगाए जा रहे हैं। सरकार द्वारा अपना गुडविल न बनाकर निजी स्कूलों के कामकाज के तरीकों को अपनाना सरकारी स्कूलों को किसी हद तक खिचड़ी वाले स्कूलों की छवि से बचा तो सकते हैं। लेकिन शिक्षा के निजीकरण के सवाल पर सरकार की चुप्पी निजी स्कूलों में आम लोगों का भरोसा बढ़ाने वाली है। इनमें बड़ी संख्या में वो लोग भी हैं, जो पेशे से मज़दूर है, किसान हैं और मामूली दुकानों के मालिक हैं, जिनकी आजीविका किसी प्रकार चल जाती है। ये वो लोग हैं, जिनके घर का छप्पर हर बारिश में रिसने लगता है।
बहरहाल, इस स्थिति से उबरना भी ज़रूरी है। इसके लिए कई स्तरों पर कोशिश की जाने की ज़रूरत है। पहला यह कि सरकार को शिक्षा पर बजट बढ़ाना होगा। बजट बढ़ने का सीधा अर्थ है कि शिक्षक-छात्र अनुपात ठीक होगा और विद्यालयों का आन्तरिक वातावरण सुधरेगा। बात भवन की हो, पुस्तकों की हो, शिक्षा का स्तर एक बार फिर से सुधर सकता है। और जिन निजी विद्यालयों से प्रतिस्पर्धा करना है उन विद्यालयों की शिक्षण स्तर को बनाए रखा जा सकेगा। आखिर केन्द्रीय विद्यालय, सैनिक विद्यालय, नवोदय विद्यालयों की श्रृंखला सरकार ही तो संचालित करती है। फिर सरकारी स्कूल क्यों नहीं?
इस कार्य में जो बड़ी बाधा है वो है जनमानस का। जो जनमानस निजी विद्यालयों की फीस की बड़ी रकम में कुछ रियायत पर मान जाता है उसको अपना नजरिया बदलना होगा। वो चाहे तो सरकारी विद्यालयों में गठित होने वाले विद्यालय प्रबंधन समिति का हिस्सा बनकर शिक्षण के स्तर में सुधार की संभावनाएं बना सकता है। शार्ट कट और महंगे स्कूलों के रथ पर सवार होकर लक्ष्य तक पहुंचने का सपना छोड़ना होगा। क्योंकि बच्चों को बुनियादी शिक्षा चाहिए, न कि बाज़ार की उपभोक्तावादी संस्कृति। बच्चों को नम्बर एक पे देखने की हसरत त्यागनी होगी। सबसे महंगे स्कूल में पढ़ाने की ख्वाहिश भी छोड़नी होगी। यदि ऐसा होता है तो निश्चित ही शोषक चरित्र वाले निजी विद्यालयों से निजात मिलेगी। और निःशुल्क बच्चों को गुणवत्तापरक शिक्षा मिल सकेगी। बच्चा सरकारी स्कूल में पढ़े या निजी स्कूल में समाज में स्टेटस मेन्टेन करना अभिभावक के लिए कोई चुनौती नहीं होगी।
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Monday, February 20, 2017

गुडिया ले लो... गुडिया की आवाज़ लगाती आशिया उर्फ आशा



"यही है हमारी जिन्दगी..... 
कमाओ-खाओ... बस...!"

"पढ़े-लिखे होते तो अइसे डण्डा ले के गली-गली घूमितें...!"


- आशिया उर्फ आशा



सदर रोड पर डाॅक्टर साहब के दरवाजे पर हर रोज की तरह आज भी माॅर्निंग वाॅक के बाद की टाॅक यानि सुबह की बहस चल रही होती है। सुबह सवेरे होने वाली रोज की तकझक को कुछ लोग टाइम पास भी कहते हैं और कुछ लोग इसे मिनी असेम्बली की उपमा देते हैं। रोज की बहस में शिरकत करने वाले व्यक्ति हाथों में अखबार लिए अखिलेश, मुलायम, शिवपाल, सपा और कौएद के आपसी संबंध, देश और प्रदेश विशेषकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में भविष्य की राजनीति वगैरह मुद्दों को एक दूसरे से समझने और एक दूसरे को समझाने के लिए अपनी-अपनी बातें तार्किक ढ़ंग से रख रहे होते हैं। इतने में “गुड़िया ले लो, गुड़िया ले लो.......” की आवाज़। बहस कर रहे लोग उस ओर देखते हैं। एक लड़की, उम्र कोई 23-24 बरस, गुलाबी रंग के सलवार-समीज में अपने कंधे पर सात-आठ फीट लम्बा एक डण्डा, जिसके दोनों तरफ आखि़री छोर पर लाल, पीले, हरे, नीले वगैरह रंगों के खिलौने टंगे होते हैं, सदर रोड पर तहसील की ओर से आ रही होती है। उसकी आवाज़ में एक उम्मीद का एहसास कि आस-पास के लोग उसे रूकने को कहें और वो उन्हें गुड़िया बेच सके। बावजूद इसके कि मुहल्ले वालों के लिए वो लड़की और उस लड़की के लिए मुहल्ले वाले अजनबी होते हैं। लेकिन यहां तो देश और प्रदेश के राजनीतिक भविष्य पर चर्चाओं का माहौल है। चर्चा कर रहे मुहल्ले वालों को इतनी सुध कहां कि वो सुबह-सुबह अपने लाडलों और लाडलियों के लिए खिलौने के बारे में सोचें। खिलौना बेचने वाली लड़की एक बार फिर “गुड़िया ले लो, गुड़िया ले लो.......” की आवाज़ लगाती है। मैं उस लड़की को अपनी तरफ आने का इशारा करता हूं। गुड़िया बेच लेने की उम्मीद उस लड़की को मेरे पीछे गली में अशरफ भाई के घर तक ले आती है। 
मेरी आवाज़ सुनकर अशरफ भाई की दोनों बेटियां फलक और आरजू़ भी बाहर चबूतरे पर आ जाती हैं। अब मेरी बेटी सहित कुल तीन बच्चियां चबूतरे पर मौजूद होती हैं।


गली में जामा मस्जिद की ओर जाने और उधर से आने वाले राहगीरों का ठिठक कर रूकने और फिर जाने का सिलसिला जारी रहता है। आने-जाने वालों के लिए हमारी बातचीत महज एक इवेन्ट होती है। एक पत्रकार के पूछे जा रहे सवालों के जवाब को देखने और सुनने वाले इवेन्ट। खासकर वो सवाल जिनके जवाब गुड़िया बेचने वाली किसी लड़की के पास आम तौर पर या तो नहीं होते या होते हैं तो दो टूक होते हैं।
गुड़िया बेच रही लड़की के कंधे पर गुड़िया देख उस गाने की याद भी ताज़ा होती है, जिसके बोल हैं “सात समुन्दर पार से........, गुड़ियों के बाज़ार से......... अच्छी सी गुड़िया लाना......... गुड़िया चाहे ना लाना, पापा जल्दी आ जाना......... पापा जल्दी आ जाना”। लेकिन आज सदर रोड पर पापा लोग देश और प्रदेश के सियासी चर्चाओं में व्यस्त हैं। इस बात से बेखबर कि अच्छी सी गुड़िया लेकर एक लड़की खुद फैजाबाद से चलकर उनके नगर में आयी हुई है। लड़की का पहनावा ऐसा है कि वो खुद भी गुड़िया मालूम होती है।

फैजाबाद और ग़ाज़ीपुर स्थित मुहम्मदाबाद कस्बा के बीच की दूरी राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 28 से 226.7 किमी और राष्ट्रीय राजमार्ग 27 एवं 24 से 282.6 किमी और रेल मार्ग से 290 किमी है। लेकिन उस लड़की के लिए यह दूरी कोई मायने नहीं रखती है। कहती है कि “करेंगे नहीं तो खाएंगे क्या?” पेट की आग होती ही कुछ ऐसी है। इंसान कहां से कहां को जाता है। दिल्ली, बंगाल, असम, महाराष्ट्र, गुजरात, आन्ध्र प्रदेश और तमिलनाडू आदि राज्यों को जाने वाली रेलगाड़ियों में ठसाठस भरे हुए लोग भारत के विभिन्न क्षेत्रों से अलग-अलग राज्यों में होने वाले पलायन की तस्वीर पेश करते हैं। कभी रेलवे स्टेशन पर खड़े हो जाएं तो ऐसी तस्वीरें आखों में तैरने लगती हैं। गुड़िया बेच रही लड़की भी तो रोजगार के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान को पलायन करने वाले दस्तकारों की तस्वीर पेश करती है। लेकिन गुड़िया बेच रही इस लड़की की पहचान कोई मायने नहीं रखती। ठीक उसी तरह जैसे कि हमारे घरों की महिलाएं आर्थिक रूप से समाज में एक कामकाजी महिला व्यक्ति की पहचान से बेदखल हैं। यदि उन्हें पहचानने वाले उनके भाई, बाप या पति के रूप में जो पुरूष होते भी हैं, तो वे उन्हें रसोईघर, बाजार या फिर अपने मनोरंजक भावनाओं की हद तक ही पहचानते हैं। दूसरी ओर देश-प्रदेश की तथाकथित मुख्य धारा की मीडिया में जो बहस होती है, उस बहस के केन्द्र में हिजाब और तलाक होता है। लेकिन सदर रोड पर हो रही आज की बहस में न तो हिजाब है, न तलाक है, न महिलाओं की असुरक्षा के प्रश्न हैं और न ही रोजी-रोटी के लिए पलायन करने वाली महिलाओं और बच्चियों की समस्याएं हैं। शायद एक परिवार की सियासी सरगरमियों या सियासत में परिवारवाद की चुनौतियां और प्रदेश में आइंदा होने वाला विधान सभा चुनाव आदि विषय महिला जीवन के विविध पक्षों और दुःख भरी कहानियों पर भारी हैं!

बहरहाल, एक दस्तकार लड़की फैजाबाद से चलकर मुहम्मदाबाद आयी हुई है। जो सुबह से शाम तक गली-गली “गुड़िया ले लो, गुड़िया ले लो......” की आवाज़ लगाकर सिर्फ इतना जोड़ पाती है, जिससे सांसे चलती रहें और जिन्दा रहा जा सके। आम तौर पर दस्तकारों के घरों की लड़कियां घर के अन्दर रहकर ही आजीविका अर्जित करने वाले काम करती हैं। बनारस, मऊ, आजमगढ़, गाजीपुर, फतेहपुर, बाराबंकी और प्रदेश की राजधानी लखनऊ में बड़े पैमाने पर दस्तकारी का काम होता है। जहां महिलाएं घर के अन्दर रह कर ही मेहनत-मज़दूरी करती हैं। आम तौर पर ऐसे परिवारों की महिलाओं को घर से बाहर जाकर काम करने की इजाज़त नहीं होती या फिर घर से बाहर किसी और के घर या कारखाने में जाकर महिलाओं का काम करना सामाजिक बुराई मानी जाती है। एक अहम वजह यह समझ में आती है कि अशिक्षित और गरीब महिलाएं हाशिए की जिन्दगानी पर परदा बनाए रखने के लिए अपने घरों में ही काम करना बेहतर समझती हैं। ऐसे हालात में गुड़िया बेच रही फैजाबाद की इस लड़की के साहस और बहादुरी को स्त्री विमर्श के एक सबल पक्ष के तौर पर भी देखा जा सकता है। 

एक दस्तकार लड़की की कहानी स्त्री विमर्श के उस पक्ष को भी उजागर करती है जहां पर सीखने-सिखाने की लाजवाब कर देने वाली कला और परंपरा ऐतिहासिक रूप से मौजूद है। लेकिन शिक्षा के सर्वथा अभाव के चलते ऐसे दस्तकारों को हाशिए की पहचान के सिवा कुछ नहीं मिलता। इनका जीवन यायावरी में ही कट जाता है। एक से दूसरे गांव और नगर की धूल फांकते ऐसे दस्तकारों को नयी अर्थव्यवस्था ने भी नुकसान पहुंचाया है। दर असल दस्तकारी की बुनियादी ज़रूरत बचपन के वो हाथ होते हैं जिनकी उंगलियां नरम और नाजुक होती हैं। विभिन्न नगरों और गांवों में दस्तकारी से आजीविका अर्जित करने वाले परिवारों की स्थिति देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि हर पल न जाने कितने बच्चों का बचपन उनसे छिन जाता है। यदि उत्तर प्रदेश की बात करें तो पूरब के साड़ी उद्योग से लेकर पश्चिम के पीतल नगरी में बच्चों की मासूमियत यूं ही दस्तकारी की भेंट चढ़ जाया करती है। दस्तकारी वो कला है जिसके बारे में गुड़िया बेच रही लड़की कहती है कि “भइया कोई पेट से सीख कर तो आता नहीं है! सब यहीं सीखते हैं।” न जाने ऐसा क्यों लगता है कि जो बातें उच्च पदस्थ लोग नहीं बता पाते या जो बातें बड़े-बड़े लेखकों की किताबों में नहीं होती हैं, वो सीख गुड़िया बेचने वाली अनपढ़ और गंवार लड़कियां दे जाती हैं। गुड़िया बेच रही लड़की को अपना नाम लिखना नहीं आता है। लिखना तो दूर की बात, सही उच्चारण के साथ अपना नाम बताना भी नहीं आता है। लेकिन गुड़िया बनाने का हुनर वो खूब जानती है। अपना नाम आशा बताने वाली आयशा कहती हैं कि “जो बना नहीं पाएगा उसके लिए तो पूरा दिन भी कम पड़ जाएगा।” आयशा को एक गुड़िया बनाने में लगभग 10 मिनट का समय लगता है। एक बार फिर जोर देकर कहती हैं कि “कोई पेट से सीख के नहीं आता है। बस आदमी में कला होना चाहिए।” शायद आयशा इस बात से वाकिफ नहीं है कि आदमी में जिस कला के होने की बात वो कह गयी, वो दरअसल आती कैसे है? उस कला के होने के पीछे की कुर्बानियों और वंचना का इतिहास और समाजशास्त्र क्या है?

मलावन गांव, फैज़ाबाद की रहने वाली आयशा अपने अब्बा का नाम वाहिद और अम्मा का नाम जरीना बताती हैं। उसके गांव में न तो स्कूल है और ही मदरसा। एक जगह न रहने वालों के कुनबा से संबंध रखने वाली आयशा दिन भर में कितना गुड़िया बेचने के सवाल पर बताती हैं कि “ये तो ऊपर वाला जानता है। कभी पूरे बिक जाते हैं और कभी कई-कई दिन में पूरे बिकते हैं।” आयशा जैसी दस्तकारों की यायावर जिन्दगानी निश्चित तौर पर बेशुमार बच्चों के दिल बहलावे का सबब है। लेकिन खुद अपनी जिन्दगी के बारे में आयशा “यही है हमारी जिन्दगी..... कमाओ-खाओ.... बस...!” से आगे कुछ सोच नहीं पातीं। हालांकि यायावरी के बावजूद आयशा और उसके परिवार वालों के पास राशन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र और आधार कार्ड आदि पहचान पत्र हैं। आयशा से बात करके अंदाजा होता है कि आधार बनाने वाले उन जैसे दस्तकारों के घर तो पहुंच जाते हैं। लेकिन अधिकार दिलाने वाले या योजनाओं का हितलाभ दिलाने वाले कार्ड जैसे मनरेगा जाॅब कार्ड या दस्तकार पहचान पत्र आदि बनाने वालों का कोई अता-पता नहीं होता। यदि होता तो आयशा जैसी दस्तकारों को पलायन और यायावरी नहीं करनी होती। 

दो किस्तों में 11 मिनट 13 सेकेण्ड तक बात हुई। हमारी बातचीत में 2 मिनट 46 सेकेण्ड तक तौकीर खां एडवोकेट साहब भी शामिल होते हैं। वो आशा, आशिया और आसिया का फर्क़ बताते है और मैं एक दस्तकार गुड़िया बेचने वाली लड़की से कुछ देश और प्रदेश की सामान्य जानकारी हासिल करने की कोशिश करता हूं। देश के प्रधानमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कौन हैं?“ के जवाब में आयशा का जवाब होता है “ये सब नहीं जानते हैं भइया।” आयशा के चेहरे पर ऐसी जानकारी या सूचना से अनभिज्ञता का कोई भाव नहीं होता है। वो तो सिर्फ मोती सिंह को जानती हैं। कहती है कि “मोती सिंह मंत्री हैं, सरकार हैं।” शायद उनका आशय “मोदी सरकार” से रहा हो।


तौकीर साहब सूचना का भण्डार हैं। उनके व्यक्तित्व की विलक्षण बात यह है कि 80 बरस की आयु पूरी करने के बाद भी आस-पास जिला-जवार में उनकी याददाश्त का कोई सानी नहीं है। पहली मुलाकात में ही किसी अजनबी से उनकी योग्यता और पेशा पूछना उनकी आदत का अहम तरीन हिस्सा रहा है। आदतन वो गुड़िया बेच रही उस लड़की से भी पूछ बैठते हैं कि कितनी पढ़ी हो? जवाब में “कहा न कि हम पढ़े-लिखे नहीं हैं। पढ़े-लिखे होते तो अइसे डण्डा ले के गली-गली घूमितें...!” कहते हुए उस लड़की ने दोनों हाथ ऊपर उठाया, कुछ इस तरह कि फिज़ा में कुछ अनुत्तरित सवाल घुल के रह गए। लड़की के चेहरे पर थकान महसूस की जा सकती थी और झल्लाहट भी। अगर कोई स्थानीय दुकानदार होता या दस्तकार होता तो शायद हमारी बातों पर झल्ला पड़ता। लेकिन अजनबी शहर का एहसास और अजनबी लोगों के बीच मात्र दस रूपए की गुड़िया बेचना ही जिसकी जिन्दगी हो, भला वो क्यों झल्लाए। आशा जिसकी मुस्लिम पहचान आयशा ज़ाहिर हो चुकी थी, चबूतरे पर खड़ी दोनों बच्चियों फलक और रिम्शा को एक-एक गुड़िया देती है। एक गुड़िया मैं अलग से भी लेता हूँ। कुल मिलाकर दस तियाईं तीस रूपए उस लड़की को अदा करने के बाद बातचीत के लिए उसका शुक्रिया भी अदा करता हूं। फिर मैं अपने और वो अपने रास्ते चल देते हैं। उसके जाने से पहले उसके झोले पर लिखे फोन नंबर को भी उसकी इजाजत से मैंने नोट किया। शायद उस लड़की के हौसले ने मुझे ऐसा करने पर आमादा किया। शायद इसलिए भी कि अजनबी शहर और अनजान नगर में “गुड़िया ले लो....... गुड़िया ले लो.......” की पुकार हर कोई नहीं लगा सकता।

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28 October 2016

Saturday, February 18, 2017

तहज़ीब के शहर में "चाय पिलाएंगे क्या!"


4 साल पहले
कल अब्बा ने टांका (स्टीच) काट दिया। मैं अस्पताल जाने से बच गया। वही अस्पताल जो सरकारी है, बड़ी है और जहां की व्यवस्था एक हद तक संतोषजनक होने के साथ-साथ दिलचस्प भी हैं। संतोषजनक इसलिए क्योंकि यहां ओपीडी काउन्टर पर बनारस के बीएचयू या दिल्ली के एम्स व सफदरजंग जैसी भीड़ नहीं होती। इसका मतलब यह भी नहीं कि यहां मरीज़ आते-जाते ही नहीं हैं। मतलब यह भी नहीं है कि तहज़ीब के इस शहर में स्वास्थ्य सुविधाओं का मोकम्मल तौर पर निजीकरण हो चुका है। बहुत से लोग राजधानी स्थित आरएमएल अस्पताल की संतोषजनक व्यवस्था का श्रेय प्रदेश के वर्तमान स्वास्थ्य मंत्री को देते हैं। बहरहाल, 11 फरवरी को 10 बजे तक आॅपरेशन पूरा हो चुका था। लेकिन पहली बार मुझे पता चला कि अस्पताल के बाहर और अन्दर की चमकती दीवारों और फ़्लोर के बीच कुछ ऐसा था जो स्वास्थ्य व्यवस्था की चमक को कम करने वाला था। कुछ ऐसा जिससे निजीकरण की आहट सुनी और महसूस की जा सकती थी। आॅपरेशन के बाद ही पता चला कि आॅपरेशन के बाद मरीज़ को आॅपरेशन थिएटर के बाहर बेड पर उस वक्त तक पड़ा रहना होता है, जब तक कि मरीज़ के तीमारदार अपने मरीज़ को वार्ड तक पहुंचाने वाले स्वास्थ्य कर्मी व्यक्ति को खुश न कर दे। तीमारदार को खुश कराने की इस प्रक्रिया में अगर एसोसिएट प्रोफेसर, एमएस सर्जन यानि सर्जरी में महारत रखने वाला डाॅक्टर आॅपरेशन थिएटर के सामने हाल में पड़े मरीज़ के कान में अगर वार्ड ब्वाय को खुश करने की बात करे तो हैरान होने की ज़रूरत नहीं। फिर भी मुझे हैरानी हुई क्योंकि यह पहला अवसर था अन्दर की व्यवस्था की पड़ताल का। किसी स्ट्रिंग आॅपरेशन जैसा अनुभव था। लोकल एनेस्थीसिया की हालत में विवशता हमारा हौसला बढ़ा रही थी कि वार्ड ब्वाय को जितनी जल्दी हो सके खुश करवाया जाए। लेकिन तीमारदारों के अन्दर आने की सख़्त मनाही और सर्जरी का केस। किसी तरह से पैग़ाम तीमारदार तक पहुंची और तीन सौ रूपए की खुशी की अभिव्यक्ति। तब जाकर कहीं पहुचाए गए हम वार्ड नं॰ 109 में।

ध्यान 1991 के नए आर्थिक सुधारों की ओर जाता है। उन सुधारों की ओर जिसके ज़रिए तमाम क्षे़त्रों में संविदा कर्मचारियों की संख्या बढ़ती गयी और स्थाई पदों में निरन्तर कमी आयी। यद्यपि स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकार जीडीपी का एक बड़ा हिस्सा खर्च कर रही है। जेएसवाई, स्वास्थ्य बीमा और एनआरएचएम जैसी बड़ी और महत्वाकांक्षी योजनाएं भी चलायी जा रही हैं। लेकिन जज़मानी की तरह एक नयी जज़मानी व्यवस्था को आगे बढ़ते हुए देखा और महसूस किया जा सकता है। अगर ऐसा न होता तो वार्ड के अन्दर आने-जाने वाला हर वो कर्मचारी (जो संविदा पर हैं) मरीज़ों और तीमारदारों को उम्मीद की निगाहों से देखते हैं। 12 फरवरी को भी मेरे जिस्म में इतनी सकत नहीं थी कि मैं खु़द उठ-बैठ लूं। अब्बा पिछले दिन की तरह आज भी सोफा पर बैठे अख़बार पढ़ रहे होते हैं। झाड़ू लगाते-लगाते स्वीपर मुस्कान बिखेरता है और मेरे अब्बा को मुख़ातिब करके कहता है कि “बाबूजी एक बात कहें!” अख़बार पढ़ रहे अब्बा का ध्यान अख़बार पर ही बना रहता है। शायद कोई दिलचस्प ख़बर हो। स्वीपर मेरी तरफ देखता है। मैं बस इतना ही कह सका “कहिए”... स्वीपर बाबू अपने चेहरे पर ग़ज़ब की मुस्कान सजाते हुए अपने दिल की बात कह डाली जैसे कोई पे्रमी पहली बार अपने ख़्याल का इज़हार करता है। मेरा इशारा समझते हुए उसने अब्बा की ओर इशारे से कहा... “बाबूजी चाय पिलाएंगे क्या!” तहज़ीब के इस शहर में मेरे अब्बा जो खु़द अजनबी थे, से चाय पीने का आग्रह बहुत कुछ कह गया। मैं बोल नहीं पा रहा था लेकिन मन में कुछ संवेग सा ज़रूर चल रहा था। अब जबकि लैपटाॅप की कीबोर्ड पर उंगलियां फिर से थिरकने लगी हैं तो मन में चल रहे संवेगों को आप तक पहुंचा पा रहा हूं। अब्बा को यह नहीं समझ में आया कि जब उनकी उस व्यक्ति से पहले की कोई मुलाकात नहीं है और न ही आज की मुलाक़ात इतनी पुरानी और कम से कम ऐसी हुई है कि चाय का मामला बने, तो फिर उसने चाय का आग्रह क्यों किया? दूसरी ओर मैं इस सोच में पड़ गया कि दोपहर के एक बज कर दो मिनट हुए हैं और लन्च के इस वक्त में यह व्यक्ति भोजन की बजाए चाय की तलब ज़ाहिर कर रहा है। झाड़ू के बाद पोछा लगाने एक महिला आई और पोछा लगाकर वापस चली गयी। लेकिन जो महिला कर्मचारी पिछली सुबह बेडशिट बदलने आयी थी, उसने भी आज चाय पीने की इच्छा ज़ाहिर की थी। अब्बा ने यह कहते हुए कि “मेहमान तो हम लोग हैं फिर चाय तो आपको पिलाना चाहिए” बीस रूपए उस महिला को चाय पीने को दे दिया। कुछ बोल नहीं पाने की मजबूरी के चलते मैं सिर्फ उस महिला के चेहरे पर कायम उत्साह की रेखाओं को पढ़ने की कोशिश करता रहा। बीस रूपए सहेजकर कमरा नं॰ 109 से बाहर निकलने से पहले वो महिला जो पहले दिन स्वीपर, दूसरे दिन केयर टेकर और तीसरे दिन नर्स के रूप में मौजूद थी, यह सूचना भी देती गयी कि माननीय नेता जी की बहू के लिए भी इसी अस्पताल में ग्राउण्ड फ़्लोर पर एक कमरे का इन्तेज़ाम किया गया है। नेता जी के तीमारदारों के लिए अलग से तीन कमरों का इन्तेज़ाम फ़स्र्ट फ़्लोर पर किया गया है। मुझे देखने आने वाले मेरे शुभचिन्तक दोस्त-संबंधी और रिश्तेदारों ने अस्पताल के मुख्य द्वार से लेकर प्राइवेट वार्ड के प्रवेश द्वार पर तैनात पुलिस चैकसी से इस बात को पुष्ट किया कि कोई विशेष का प्रवेश होने वाला है। शायद यही वजह थी कि कर्मचारी बराबर कमरों के कोने-कोने की झाड़-फूंक में लगे रहे। जीजा के एक ही शिकायत पर प्लम्बर आ गए और झटपट बंद पड़ा टाएलेट का टैप रिपेयर कर गए। नेता जी की छवि भी सुधारनी है। स्वास्थ्य सुविधाओं को स्कैम से बाहर निकालना भी है। लेकिन कदम-कदम पर मरीज़ों के अन्दर खुश करने और चाय पिलाने की क्षमता भी होना ही चाहिए। हीमोग्लोबीन कम हो या ज्यादा हो, टीएलसी-डीएलसी की जांच चाहे जैसी हो, आॅपरेशन के दौरान अलग से ख़ून का जुगाड़ हो या न हो, लेकिन चाय पिलाने और खुश करने की क्षमता का होना किसी भी मरीज़ और उसके तीमारदारों के अन्दर होना चाहिए।