Saturday, February 18, 2017

तहज़ीब के शहर में "चाय पिलाएंगे क्या!"


4 साल पहले
कल अब्बा ने टांका (स्टीच) काट दिया। मैं अस्पताल जाने से बच गया। वही अस्पताल जो सरकारी है, बड़ी है और जहां की व्यवस्था एक हद तक संतोषजनक होने के साथ-साथ दिलचस्प भी हैं। संतोषजनक इसलिए क्योंकि यहां ओपीडी काउन्टर पर बनारस के बीएचयू या दिल्ली के एम्स व सफदरजंग जैसी भीड़ नहीं होती। इसका मतलब यह भी नहीं कि यहां मरीज़ आते-जाते ही नहीं हैं। मतलब यह भी नहीं है कि तहज़ीब के इस शहर में स्वास्थ्य सुविधाओं का मोकम्मल तौर पर निजीकरण हो चुका है। बहुत से लोग राजधानी स्थित आरएमएल अस्पताल की संतोषजनक व्यवस्था का श्रेय प्रदेश के वर्तमान स्वास्थ्य मंत्री को देते हैं। बहरहाल, 11 फरवरी को 10 बजे तक आॅपरेशन पूरा हो चुका था। लेकिन पहली बार मुझे पता चला कि अस्पताल के बाहर और अन्दर की चमकती दीवारों और फ़्लोर के बीच कुछ ऐसा था जो स्वास्थ्य व्यवस्था की चमक को कम करने वाला था। कुछ ऐसा जिससे निजीकरण की आहट सुनी और महसूस की जा सकती थी। आॅपरेशन के बाद ही पता चला कि आॅपरेशन के बाद मरीज़ को आॅपरेशन थिएटर के बाहर बेड पर उस वक्त तक पड़ा रहना होता है, जब तक कि मरीज़ के तीमारदार अपने मरीज़ को वार्ड तक पहुंचाने वाले स्वास्थ्य कर्मी व्यक्ति को खुश न कर दे। तीमारदार को खुश कराने की इस प्रक्रिया में अगर एसोसिएट प्रोफेसर, एमएस सर्जन यानि सर्जरी में महारत रखने वाला डाॅक्टर आॅपरेशन थिएटर के सामने हाल में पड़े मरीज़ के कान में अगर वार्ड ब्वाय को खुश करने की बात करे तो हैरान होने की ज़रूरत नहीं। फिर भी मुझे हैरानी हुई क्योंकि यह पहला अवसर था अन्दर की व्यवस्था की पड़ताल का। किसी स्ट्रिंग आॅपरेशन जैसा अनुभव था। लोकल एनेस्थीसिया की हालत में विवशता हमारा हौसला बढ़ा रही थी कि वार्ड ब्वाय को जितनी जल्दी हो सके खुश करवाया जाए। लेकिन तीमारदारों के अन्दर आने की सख़्त मनाही और सर्जरी का केस। किसी तरह से पैग़ाम तीमारदार तक पहुंची और तीन सौ रूपए की खुशी की अभिव्यक्ति। तब जाकर कहीं पहुचाए गए हम वार्ड नं॰ 109 में।

ध्यान 1991 के नए आर्थिक सुधारों की ओर जाता है। उन सुधारों की ओर जिसके ज़रिए तमाम क्षे़त्रों में संविदा कर्मचारियों की संख्या बढ़ती गयी और स्थाई पदों में निरन्तर कमी आयी। यद्यपि स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकार जीडीपी का एक बड़ा हिस्सा खर्च कर रही है। जेएसवाई, स्वास्थ्य बीमा और एनआरएचएम जैसी बड़ी और महत्वाकांक्षी योजनाएं भी चलायी जा रही हैं। लेकिन जज़मानी की तरह एक नयी जज़मानी व्यवस्था को आगे बढ़ते हुए देखा और महसूस किया जा सकता है। अगर ऐसा न होता तो वार्ड के अन्दर आने-जाने वाला हर वो कर्मचारी (जो संविदा पर हैं) मरीज़ों और तीमारदारों को उम्मीद की निगाहों से देखते हैं। 12 फरवरी को भी मेरे जिस्म में इतनी सकत नहीं थी कि मैं खु़द उठ-बैठ लूं। अब्बा पिछले दिन की तरह आज भी सोफा पर बैठे अख़बार पढ़ रहे होते हैं। झाड़ू लगाते-लगाते स्वीपर मुस्कान बिखेरता है और मेरे अब्बा को मुख़ातिब करके कहता है कि “बाबूजी एक बात कहें!” अख़बार पढ़ रहे अब्बा का ध्यान अख़बार पर ही बना रहता है। शायद कोई दिलचस्प ख़बर हो। स्वीपर मेरी तरफ देखता है। मैं बस इतना ही कह सका “कहिए”... स्वीपर बाबू अपने चेहरे पर ग़ज़ब की मुस्कान सजाते हुए अपने दिल की बात कह डाली जैसे कोई पे्रमी पहली बार अपने ख़्याल का इज़हार करता है। मेरा इशारा समझते हुए उसने अब्बा की ओर इशारे से कहा... “बाबूजी चाय पिलाएंगे क्या!” तहज़ीब के इस शहर में मेरे अब्बा जो खु़द अजनबी थे, से चाय पीने का आग्रह बहुत कुछ कह गया। मैं बोल नहीं पा रहा था लेकिन मन में कुछ संवेग सा ज़रूर चल रहा था। अब जबकि लैपटाॅप की कीबोर्ड पर उंगलियां फिर से थिरकने लगी हैं तो मन में चल रहे संवेगों को आप तक पहुंचा पा रहा हूं। अब्बा को यह नहीं समझ में आया कि जब उनकी उस व्यक्ति से पहले की कोई मुलाकात नहीं है और न ही आज की मुलाक़ात इतनी पुरानी और कम से कम ऐसी हुई है कि चाय का मामला बने, तो फिर उसने चाय का आग्रह क्यों किया? दूसरी ओर मैं इस सोच में पड़ गया कि दोपहर के एक बज कर दो मिनट हुए हैं और लन्च के इस वक्त में यह व्यक्ति भोजन की बजाए चाय की तलब ज़ाहिर कर रहा है। झाड़ू के बाद पोछा लगाने एक महिला आई और पोछा लगाकर वापस चली गयी। लेकिन जो महिला कर्मचारी पिछली सुबह बेडशिट बदलने आयी थी, उसने भी आज चाय पीने की इच्छा ज़ाहिर की थी। अब्बा ने यह कहते हुए कि “मेहमान तो हम लोग हैं फिर चाय तो आपको पिलाना चाहिए” बीस रूपए उस महिला को चाय पीने को दे दिया। कुछ बोल नहीं पाने की मजबूरी के चलते मैं सिर्फ उस महिला के चेहरे पर कायम उत्साह की रेखाओं को पढ़ने की कोशिश करता रहा। बीस रूपए सहेजकर कमरा नं॰ 109 से बाहर निकलने से पहले वो महिला जो पहले दिन स्वीपर, दूसरे दिन केयर टेकर और तीसरे दिन नर्स के रूप में मौजूद थी, यह सूचना भी देती गयी कि माननीय नेता जी की बहू के लिए भी इसी अस्पताल में ग्राउण्ड फ़्लोर पर एक कमरे का इन्तेज़ाम किया गया है। नेता जी के तीमारदारों के लिए अलग से तीन कमरों का इन्तेज़ाम फ़स्र्ट फ़्लोर पर किया गया है। मुझे देखने आने वाले मेरे शुभचिन्तक दोस्त-संबंधी और रिश्तेदारों ने अस्पताल के मुख्य द्वार से लेकर प्राइवेट वार्ड के प्रवेश द्वार पर तैनात पुलिस चैकसी से इस बात को पुष्ट किया कि कोई विशेष का प्रवेश होने वाला है। शायद यही वजह थी कि कर्मचारी बराबर कमरों के कोने-कोने की झाड़-फूंक में लगे रहे। जीजा के एक ही शिकायत पर प्लम्बर आ गए और झटपट बंद पड़ा टाएलेट का टैप रिपेयर कर गए। नेता जी की छवि भी सुधारनी है। स्वास्थ्य सुविधाओं को स्कैम से बाहर निकालना भी है। लेकिन कदम-कदम पर मरीज़ों के अन्दर खुश करने और चाय पिलाने की क्षमता भी होना ही चाहिए। हीमोग्लोबीन कम हो या ज्यादा हो, टीएलसी-डीएलसी की जांच चाहे जैसी हो, आॅपरेशन के दौरान अलग से ख़ून का जुगाड़ हो या न हो, लेकिन चाय पिलाने और खुश करने की क्षमता का होना किसी भी मरीज़ और उसके तीमारदारों के अन्दर होना चाहिए।

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