Monday, October 19, 2015

ताकि समावेशी विकास का मार्ग प्रशस्त हो सके

यूँ तो मऊ पिछले 20 बरसों से आना-जाना है। लेकिन आज पहली बार तालीमी बेदारी के हवाले से रघुनाथ पुरा जाना हुआ। रास्ते में हाफिज़ नियाज़ साहब ने बताया कि रघुनाथ पुरा को आबाद हुए कोई बीस बरस हुए हैं। रघुनाथ पुरा की गलियों को देखकर आज बनारस की गलियों की तंगी की याद भी ताज़ा हो गयी। हालांकि रघुनाथ पुरा की गलियां बनारस की गलियों से थोड़ी चैड़ी ज़रूर हैं लेकिन लम्बाई और हर दस-बीस कदम पर मोड़ बनारस की बुनकर बस्तियों की भूलभुलैया जैसी ही हैं। रघुनाथ पुरा की गलियों में बसने वाले बुनकरों की जि़न्दगी कमोबेश वैसी ही हैं, जैसी कि बनारस की बुनकर बस्तियों या लोहता के धन्नीपुर नयी बस्ती की। इसलिए इन गलियों को बुनकर बस्ती के नाम से भी मनसूब किया जा सकता है। जहां जि़न्दगी ताना-बाना की उलझनों में कुछ इस तरह उलझी हुई है कि सुलझने का नाम ही नहीं लेती। कारोबार के उतार-चढ़ाव ने कईयों को चाय और पान की दुकानों पर पहुंचा दिया है और बहुतों को चाय-पान की दुकान से आजीविका चलाने का सपना दिखाया है। बहुत से घरों के नौजवानों को भीवण्डी, अहमदाबाद, सूरत और हैदराबाद के साथ-साथ सऊदी जाने के लिए मजबूर किया है। बुनकरों की गलियों में पसरा सन्नाटा इस बात की गवाही देता है कि बच्चे, बड़े, बूढ़े और महिलाएं सभी अपने घरों में ताना-बाना में उलझी अपनी जि़न्दगानी की उलझनों को सुलझाने में मसरूफ हैं।
ज़फरूल जैसे नौजवानों से मुलाक़ात एक बार फिर से हाशिए की जि़न्दगी जी रहे गरीब-वंचित बुनकरों के रोज़मर्रा जि़न्दगी पर अज़-सरे-नौ ग़ौर व फिक्र के लिए आमादा करता है। ज़फरूल साहब मऊ के उन कारोबारियों में हैं, जो कारोबार के साथ-साथ अपने भाई-बहनों ही नहीं बल्कि अपने पड़ोसियों और समाज के तमाम ज़रूरतमन्दों के लिए कुछ करने का जज़्बा रखते हैं। उनके परिवार में तालीम की शमा रौशन हो चुकी है और वो इस रोशनी को अपने मोआशरे के और घरों तक पहुंचाना चाहते हैं। खु़द ज़फरूल साहब की एक बहन एम.बी.बी.एस. और दो भाई बी.टेक. की पढ़ाई कर रहे हैं।
ज़फरूल साहब से मऊ के मौजूदा हालात पर गुफ्तगू हुई। उन्होंने गरीबों, पिछड़ों और खासकर मऊ के बुनकरों की ज़मीनी सच्चाई से रूबरू कराया। बताया कि उनके शहर में कई बच्चे ऐसे हैं, जिन्हें वक्त रहते सही गाइडेन्स न मिल पाने की वजह से चाय की दुकानों पर काम करके अपने परिवार की आजीविका चलाना पड़ रहा है। अल्पसंख्यकों के कल्याण से संबंधित योजनाओं की पहुंच न तो इन बच्चों तक हो पायी है और न ही ऐसे बच्चे इस तरह के कल्याणकारी योजनाओं तक पहुच पाते हैं।
बातचीत से यह अंदाज़ा होता है कि अगर हुकूमत के नीति निर्धारण में मऊ के अवाम की बुनियादी ज़रूरतों का सही आकलन शामिल कर लिया जाए तो किसी हद तक बुनकरों के पेशे और उनके बच्चों की तालीम और रोजगार की समस्या दूर की जा सकती है। इस बात पर भी चर्चा हुई कि तालीमी बेदारी जैसी मुहिम के तहत हर जिले में एक कम्यूनिटी रिसोर्स सेन्टर स्थापित किया जाए और तालीम से बेखबर लोगों की ज़मीनी हक़ीक़त जानने और उन्हें जागरूक करने के लिए राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर शोध केन्द्र की स्थापना की जाए। रिसोर्स सेन्टर का काम कम्यूनिटी के बच्चों को उनके तालीम में हर संभव कोशिश करना है। जबकि तरफ शोध केन्द्र के माध्यम से कम्यूनिटी स्तर पर शोध करके हाशिए पर खड़े लोगों की बुनियादी ज़रूरतों का आंकलन किया जाएगा और शोध की रिपोर्ट इस दिशा में समझ रखने वाले व काम करने वाले तमाम व्यक्तियों, समूहों और संगठनों के साथ साझा करने के साथ-साथ राज्य और केन्द्र सरकार के पास इस उम्मीद के साथ भेजी जाए कि समुदाय और इसकी शैक्षिक, सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक ज़रूरतों के मुताबिक नीतियां बनायी जाएं। ताकि समावेशी विकास का मार्ग प्रशस्त हो सके।