Monday, April 13, 2020

मुश्किल वक्त के इन साथियों को भी सलाम

ये वो लोग हैं, जो दूसरों के लिए अपने घरों से बाहर रहते हैं। हमारे-आपके बीच आते-जाते रहते हैं। लेकिन हमेशा से अदृश्य रहे हैं। ये लोग मज़दूर हैं, मजबूर हैं और शिक्षा से दूर हैं। ये वो लोग हैं जो अपनी सेवाएं उपलब्ध कराने की एवज में फोटो नहीं खिंचाते। इन लोगों के लिए भी आभार, धन्यवाद और सैल्यूट तो बनता ही है।

इन दिनों पूरा देश कोविड-19 के संक्रमण के फैलाव को रोकने के लिए लाॅकडाउन की आपात स्थिति में है। संक्रमण लगातार बढ़ रहा है। हज़ारों लोग कोरैंटीन और आइसोलेसन में हैं। बहुत से लोग ऐसे हैं, जो संक्रमित नहीं हैं। लेकिन ज़रा सी चूक इन्हें संक्रमण का शिकार बना सकती है। इनमें गरीब, मज़दूर, किसान हैं। बड़ी तादाद उन सुविधा प्रदाताओं की है, जिनका ठेला हर रोज़ हमारे घरों की दहलीज पर आ खड़ा होता है। कभी ‘सब्जी वाला, कभी साग वाला, कभी आलू, प्याज और टमाटर वाला बनकर। इनमें फल विक्रेता होते हैं। जो हमारे-आप के लिए कभी अमरूद ले आते हैं, कभी तो केला, सेव और सन्तरा। हम इन्हें चाट वाले, चाय वाले, चाउमिन वाले, चनाचूर वाले, फुल्की वाले, भुजा वाले और सोन पापड़ी वाले के रूप में भी देखते हैं। ये वही लोग हैं जो अपनी सेवाएं हम तक हर रोज़ पहुंचाते हैं। इन्हें पैदल, गली-गली घूमना पड़ता है। ताकि दो जून की रोटी का जुगाड़ हो सके। सामान्य दिनों में चिलचिलाती धूप में खीरा, तरबूज़ और कुल्फी की ठण्डक का एहसास इन्हीं लोगों की बदौलत कर पाते हैं। गर्मी के दिनों में जब लू से बचने के लिए लोग अपने-अपने घरों में पंखे, कूलर और एसी कमरों में होते हैं, तो ये लोग सड़कांे और गलियों की ख़ाक छानते रहते हैं। बीमार पड़ने पर दस-बीस रूपए की स्वास्थ्य सुविधाओं से काम चलाना पड़ता है। दो-चार दिन काम बंद हो जाए तो इनके सामने भूखे रहने की भी परिस्थितियां पैदा हो जाती हैं। इस समय पूरा देश लाॅकडाउन की आपात परिस्थिति में है। रोज़ कमाने-खाने वाले इन अस्थाई ठेले वालों के लिए यह परिस्थिति किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है। सोशल और फिजिकल दूरी बनाए रखना, बार-बार हाथ धुलना, फेस मास्क का इस्तेमाल इनके लिए सहज काम नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि संक्रमण का डर इन्हें नहीं है। लेकिन रोज कमाने-खाने की दिक्कतें ऐसी हैं कि यह डर कोई मायने नहीं रखता। हालात ऐसे हैं कि इन्हें घर-घर सब्जी, दूध, गैस सिलेण्डर और अन्य आवश्यक वस्तुएं पहुंचाने का बीड़ा उठाना पड़ रहा है। ठेले वालों और मज़दूरों के अर्थोपार्जन की प्रक्रिया रूक गयी है। चूंकि सब्जी और फल ज़रूरी वस्तुओं में शुमार है। इसका फायदा हर ग़रीब उठाना चाहता है। ताकि वो अपना परिवार चला सके। यही वजह है कि कोई चाट-पकौड़े वाला सब्जी बेच रहा है, तो किसी मज़दूर फल बेच जीवन चलाना पड़ रहा है। निस्संदेह इनकी आजीविका की आवश्यकताएं हैं। लेकिन इनके सेवा को कम करके नहीं देखा जा सकता है। क्योंकि ये वो लोग हैं जो महामारी की आपात परिस्थिति में साहस करके हम तक आलू, प्याज, लहसुन, अदरक, धनिया, पोदिना, नींबू और साग आदि पहुंचा रहे हैं। ताकि हमारे मुंह का ज़ायका न बिगड़ने पाए और हमारे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बीमारी से लड़ने लायक बनी रहे। अनिल मेरे बचपन का दोस्त है। उसका छोटा भाई पप्पू चाट-पकौड़ा बेचकर घर चलाता है। इन दिनों जब हम और आप अपने-अपने घरों में हैं। पप्पू चेहरे पर मुस्कान लिए सब्जियां बेच रहा है। क्योंकि पप्पू के लिए आजीविका का संकट कोरोना से भी बड़ा है। फरीद मियां उन सब्जी विक्रेताओं में हैं, जिन्होंने हवा के खिलाफ जाकर सब्जी बेचने का बीड़ा उठाया है। इस काम में वो अकेले नहीं हैं। बच्चे को भी काम में हाथ बंटाना पड़ता है।

उन महिलाओं और बच्चियों का जिक्र भी ज़रूरी है, जो आपात परिस्थिति में घण्टे-दो घण्टे के लिए ही सही, सड़क किनारे सब्जी बेचते देखी जा रही हैं। फैयाज़ भाई बढ़ई का काम करते हैं। इन दिनों काम बंद है। एक पत्नी और तीन बच्चों का परिवार बड़ा नहीं है। लेकिन संकट के बादलों से पार पाना इनके लिए भी बड़ी चुनौती है। फैयाज़ भाई इस चुनौती का सामना साग-सब्जी जैसी आवश्यक वस्तुओं को घर-घर पहुंचाकर कर रहे हैं। अशरफ भाई पंचर बनाते हैं, लेकिन दुकान बंद है और इन दिनों ठेले पर सब्ज़ियां बेच जिन्दगी गुजर-बसर कर रहे हैं। राम नरायन कुशवाहा अहिरौली से पैदल ठेले पर सब्जी लेकर मुहम्मदाबाद आते हैं। कोविड-19 से डरे हुए हैं। लाॅकडाउन में पुलिसिया डण्डा भी खाया। लेकिन पेट का सवाल इनके लिए बहुत बड़ा सवाल है। मुंह पर देसी मास्क बांधे मुस्कराते हुए कहते हैं “कि पेटवा क का करल जा।”

निज़ामुद्दीन पहले पावरलूम कारीगर थे। भीवण्डी रहते थे। जिस घर की जिम्मेदारी निभाने के लिए भीवण्डी गए थे, उसी घर की जिम्मेदारियों ने जल्द ही उन्हें घर बुला लिया। उन्हें भिवण्डी छोड़े लगभग सात बरस हो चुके हैं। मेहनत मज़दूरी करके दिहाड़ी से अपना परिवार चलाते हैं। निर्माण कार्य रूका हुआ है। अपने परिवार का पेट पालने के लिए आजकल निज़ामुद्ीन मुहल्ले के लोगों और बाज़ार के बीच कड़ी के तौर पर काम कर रहे हैं। वो हर सुबह दो घण्टे तक अपने घर से बाहर रहकर मुहल्ले के लोगों का सामान-लाने, ले जाने का काम कर रहे हैं। बदले में जो कुछ मिलता है, उससे गुजारा कर रहे हैं। निज़ामुद्दीन सन्निर्माण श्रमिक में हैं लेकिन श्रम विभाग में उनका पंजीयन नहीं है। पंजीयन के लिए दो वर्ष पहले मैंने खु़द उन्हें प्रेरित किया था। उनका फार्म भी भरवा दिया था। लेकिन शिक्षा और जागरूकता न होने के कारण निज़ामुद्दीन जैसे मज़दूर अपनी पहचान से वंचित हैं। इसलिए ऐसे मज़दूर सरकार की ओर से दी जाने वाली 1000 रूपए की सहायता राशि से भी वंचित हैं। कोविड-19 के कारण लाॅकडाउन की इस परिस्थिति में गैस सिलेण्डर पहुंचाने वाले मेहनतकश मज़दूरों की सेवाएं भी काबि़ले तारीफ़ है। यदि ये सिलेण्डर घर-घर न पहुंचाएं तो बहुत से घरों में समय पर चूल्हा जलना मुश्किल हो जाएगा। सुबह-सवेरे दूध वाले दूध न दें तो दूध पीते बच्चों को भूखा रहना पड़ेगा।

दर असल ये वो साहसी लोग हैं, जो अपने परिवार की आजीविका के लिए सड़कों पर हैं। खासकर तब जब बाकी लोग संक्रमण से सुरक्षित रहने के लिए अपने-अपने घरों में हैं। रोज कमाने-खाने वाले ये लोग पहले से शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं। लेकिन आज की कठिन परिस्थिति में इनकी सेवाएं किसी डाॅक्टर, नर्स, पुलिस-प्रशासन और सामाजिक कार्यकर्ता से कम नहीं है। ये वो लोग हैं, जो दूसरों के लिए अपने घरों से बाहर रहते हैं। हमारे-आपके बीच आते-जाते रहते हैं। लेकिन हमेशा से अदृश्य रहे हैं। ये लोग मज़दूर हैं, मजबूर हैं और शिक्षा से दूर हैं। ये वो लोग हैं जो अपनी सेवाएं उपलब्ध कराने की एवज में फोटो नहीं खिंचाते। इन लोगों के लिए भी आभार, धन्यवाद और सैल्यूट तो बनता ही है।

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