Friday, March 27, 2020

परीक्षा की स्थापित परिपाटी और मूल्यांकन का महत्व

पूर्णांक-प्राप्तांक तो कभी ग्रेडिंग और कभी दोनों का समावेश मौजूदा दौर की मूल्यांकन प्रणाली का हिस्सा है। प्रचलित परिपाटी के अनुरूप ही एन्ड सेम एक्जाम या अर्ध-वार्षिक और वार्षिक परीक्षाओं के आयोजन के बाद बच्चों को अगली कक्षा में प्रवेश दिया जाता है। यदि औपचारिक शिक्षा की बात करें तो बच्चों को अगले कक्षा में प्रवेश से पहले परीक्षा का आयोजन अवश्य होना चाहिए। लेकिन आपदा और महामारी की आपात परिस्थितियों में वैकल्पिक मूल्यांकन का तरीका अपनाने से इंकार नहीं किया जा सकता है।


सीखना ऐसी क्रिया है जो जीवन पर्यन्त चलती है। जन्म से ही बच्चा हर पल कुछ न कुछ सीखता रहता है। व्यक्ति, परिवार, समाज, स्कूल, स्थान और वस्तु आदि किसी बच्चे के जीवन में एक नए अध्याय की तरह होते हैं। बच्चे के परिवेश में मौजूद हर छोटी बड़ी चीज और घटनाएं उसके अनुभव संसार को समृद्ध बनाती हैं। बाल विकास की विभिन्न अवस्थाओं में मूल्यांकन एक महत्वपूर्ण सोपान होता है। मूल्यांकन से हमें किसी व्यक्ति की विभिन्न क्षमता विकास का पता चलता है। मूल्यांकन कार्य को सफलता पूर्वक संपन्न करने के लिए परीक्षा का आयोजन किया जाता है। मूल्यांकन से किसी व्यक्ति, समाज, संस्था अथवा वस्तु आदि की उपयोगिता और महत्व का अंदाज़ा होता है।  मूल्यांकन की कई विधियां प्रचलन में हैं। मूल्यांकन करते समय कई बातें ध्यान रखनी होती हैं। जैसे, मूल्यांकन किसका होना है? व्यक्ति का, समाज का, संस्था का या किसी वस्तु का। यदि किसी बच्चे का मूल्यांकन होना है तो यह जानना आवश्यक होता है कि बच्चे की आयु कितनी है? बच्चा किस कक्षा का विद्यार्थी है? यह भी ध्यान रखना होता है कि बच्चे का शैक्षिक मूल्यांकन करना है या उसकी शिक्षा में सहायक पक्षों का मूल्यांकन करना है या फिर इन दोनों का। मूल्यांकन में शिक्षा शास्त्र की स्थापित परिपाटी के अन्तर्गत मानकों की अनदेखी होने पर परिणाम संतोषजनक नहीं आते हैं। इस आलेख के माध्यम से मूल्यांकन के उन अनछुए पहलुओं को समझने की कोशिश करेंगे है, जो हमारे आस-पास के वातावरण में मौजूद होते हैं, लेकिन उन पर आम तौर पर हमारा ध्यान नहीं जाता है। इसे औपचारिक और अनौपचारिक दो भागों में वर्गीकृत करके समझा जा सकता है।
 
पचारिक और अनौपचारिक का भेद स्कूल और घर के संदर्भ में समझा जा सकता है। स्कूल का परिवेश नितान्त औपचारिक होता है। स्कूल में हर काम के लिए समय निश्चित और निर्धारित होता है। दूसरी तरफ बच्चे के घर का परिवेश होता है, जो अनौपचारिक होता है और जिसमें उसके माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्य शामिल होते हैं। घर पर जागने-सोने, ब्रश करने, नहाने, बे्रक फाॅस्ट, लन्च और डिनर आदि कार्यों का समय लगभग निश्चित होता है। अलग-अलग परिवारों में बच्चों के स्व-अध्ययन का समय भी निश्चित हो सकता है। लेकिन सीखने-सिखाने की स्कूल जैसी प्रक्रिया के लिए घर पर समय निश्चित और निर्धारित नहीं होता है। बच्चे को यह नहीं पता होता है कि उसे कब किसी व्यक्ति को नमस्ते-सलाम का संस्कार सीखना है और न ही यह पता होता है कि उसे कब उठना-बैठना, भोजन करना और पानी पीना आदि संस्कार सीखना है। घर पर सीखने की प्रक्रिया निरन्तर जारी रहती है। लगभग हर घर में बड़ें सदस्य बच्चों पर अपनी दृष्टि लगातार बनाए रखते हैं। जिसे हम ध्यान रखना कहते हैं। घर के बड़े सदस्य बच्चों को बार-बार छोटी-छोटी सीख देते रहते हैं। बच्चे अपने घर के बड़े सदस्यों को जिन कार्यों को, जिस तरह से करते हुए देखते हैं, उनका अनुसरण करने की कोशिश करते हैं। इस तरह से घर पर सीखने की प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है। इसका स्वरूप अनौपचारिक होता है। घर और समाज में किसी बच्चे का मूल्यांकन भी नितान्त अनौपचारिक होता है। घर पर सीखना और क्षमता विकास का अवसर स्कूल की अपेक्षा अधिक होता है। क्योंकि बच्चा अधिक समय घर और समाज में व्यतीत करता है।

ज़ाहिर है सीखने-सिखाने की गतिविधियां अपने औपचारिक और अनौपचारिक दोनों ही रूपों में अनवरत जारी रहती हैं। जिसका सतत मूल्यांकन भी होता रहता है। मूल्यांकन इसलिए कि रूचि, तत्परता, और क्षमता विकास का आंकलन किया जा सके। यह आंकलन ही हमें रास्ता दिखाता है कि किसी बच्चे की कौन सी क्षमता संतोष जनक ढंग से विकसित हुई है और किस पक्ष के क्षमता विकास हेतु कार्य करना है। स्कूल में इसके लिए टेस्ट और परीक्षाओं का आयोजन किया जाता है। जबकि घर पर कोई औपचारिक टेस्ट या परीक्षा का आयोजन नहीं होता है। घर पर बच्चे को दी जाने वाली सीख प्रायोगिक यानि प्रैक्टिकल होती है। इसमें कुछ परिणाम तुरंत आते हैं तो कुछ दीर्घकाल में प्रकट होते हैं। परिणाम में सुधार के लिए माता-पिता अपने बच्चे को एक ही कार्य को अच्छी तरह करने की सीख बार-बार देते हैं। लेकिन कभी टेस्ट और परीक्षा नहीं लेते हैं। बिना टेस्ट और परीक्षा के ही अपने बच्चों की क्षमताओं का आंकलन कर लेते हैं।

ब सवाल यह है कि जब घर और स्कूल, दोनों ही स्थानों पर बच्चे की रूचि, तत्परता और क्षमता विकास के बारे माता-पिता और शिक्षक भली-भांति परिचित होते हैं तो फिर उन्हें शैक्षिक मूल्यांकन की आवश्यकता क्यों पड़ती है? कोई ऐसी परिपाटी क्यों नहीं है, जिसमें बिना मूल्यांकन बिना लिखित टेस्ट और परीक्षा के हो।

मूल्यांकन को लेकर जो बातें आम हैं वो पास-फेल तक सीमित हैं। जबकि सच यह है कि मूल्यांकन एक निरंतर चलते वाली प्रक्रिया है। जिसे हम शिक्षण व्यवस्था के अंतर्गत जारी अंक पत्र या रिपोर्ट कार्ड की सीमा तक समझते हैं। जब हम अपने आस-पास मौजूद बहुत से व्यक्तियों और संस्थाओं के बारे में गंभीरता से विचार करते हैं, तो हमें अंदाज़ा होता है कि बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्होंने किसी कार्य विशेष में कभी स्कूल की पढ़ाई नहीं की लेकिन वो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपने कौशल और निपुणता का परिचय दे रहे हैं। मुरादाबाद के पीतल उद्योग या बनारस के लूम उद्योग में काम करने वाले व्यक्तियों का उदारण देखा जा सकता है। इन उद्योगों में बड़े पैमाने पर बच्चे और महिलाएं भी शामिल हैं। इससे भी महत्वपूर्ण उदाहरण किसानों का है, जो जिनके पास एग्रीकल्चर साइंस में कोई औपचारिक डिग्री या डिप्लोमा नहीं होती है। लेकिन खेती के देशज और परंपरागत तौर-तरीकों से अन्न उपजाकर देश और दुनिया की खाद्यान्न आपूर्ति में बड़ा योगदान करते हैं। यदि वो काम बन्द कर दें तो पीतल के बरतनों और बनारसी साड़ियों की चमक फीकी पड़ जाए और मनुष्य के सामने पेट भरने का संकट उत्पन्न हो जाए।

क्त के संदर्भ में ही मूल्यांकन की औपचारिकता को जानने और समझने की ज़रूरत है। यह समझ किसी परिस्थिति विशेष जैसे बाढ़, सूखा, भूकम्प, आंधी-तूफान, ठण्ड और महामारी आदि असाधारण परिस्थितियों में औपचारिक मूल्यांकन की समस्या का समाधान निकाल सकती है। हम जानते हैं कि हमारे यहां मूल्यांकन की कई परिपाटी प्रचलन में हैं। समय-समय पर इनमें बदलाव भी होता है। पूर्णांक-प्राप्तांक तो कभी ग्रेडिंग और कभी दोनों का समावेश मौजूदा दौर की मूल्यांकन प्रणाली का हिस्सा है। प्रचलित परिपाटी के अनुरूप ही एन्ड सेम एक्जाम या अर्ध-वार्षिक और वार्षिक परीक्षाओं के आयोजन के बाद बच्चों को अगली कक्षा में प्रवेश दिया जाता है। यदि औपचारिक शिक्षा की बात करें तो बच्चों को अगले कक्षा में प्रवेश से पहले परीक्षा का आयोजन अवश्य होना चाहिए। लेकिन आपदा और महामारी की आपात परिस्थितियों में वैकल्पिक मूल्यांकन का तरीका अपनाने से इंकार नहीं किया जा सकता है। 

मूल्यांकन का मौजूदा संदर्भः

म इस बात से मुंह नहीं मोड़ सकते कि इस समय देश और दुनिया एक ऐसी स्थिति में फंसे हुए हैं जहां किसी भी व्यक्ति को औपचारिक और अनौपचारिक दोनों ऐतबार से किसी भी सार्वजनिक स्थान पर इकट्ठा नहीं होने दिया जा सकता है। संक्रमण से सुरक्षित रहने के लिए जब सोशल डिस्टैन्सिंग, समय-समय पर हाथ धुलना, मास्क का इस्तेमाल करना आदि सावधानियां ही कारगर उपाय हों, तब तो और भी सचेत रहने की जरूरत होती है। ऐसी स्थिति में बच्चा पूरी तरह घर और समाज के अनौपचारिक परिवेश में होता है। उनका औपचारिक तौर पर लिखित परीक्षा लेकर शैक्षिक मूल्यांकन वास्तव में अव्यावहारिक होगा। क्योंकि बच्चों की स्वास्थ्य सुरक्षा सुनिश्चित करना परीक्षा और मूल्यांकन से अधिक आवश्यक है। यदि स्वास्थ्य और जीवन सुरक्षित रहेगा तो पढ़ने-पढ़ाने, लिखित टेस्ट और परीक्षा आधारित मूल्यांकन के अनेकों अवसर आएंगें। उत्तर प्रदेश सरकार के कक्षा एक से आठ तक के बच्चों को बिना मूल्यांकन अगली कक्षा में प्रोन्नति के आदेश को इसी पृष्ठभूमि में देखने की ज़रूरत है। जनता कफ्र्यू और लाॅकडाउन का निर्णय भी स्वास्थ्य सुरक्षा की इसी गंभीरता को उजागर करते हैं।

मेडिकल साइन्स में अब तक के रिसर्च से पता चलता है कि कोविड-19 एक ऐसी बीमारी है, जिसके इलाज की दवा अभी तक नहीं बनी है। चीन, इटली और फ्रांस आदि देशों में हुई जन-धन की क्षति को देखते हुए भारत जैसे देश में इस बीमारी के फैलने की कल्पना भयावह और विचलित कर देने वाली है। यद्यपि इस बीमारी के संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए भारत सरकार ने समय रहते पहल किया है। माननीय प्रधानमंत्री जी ने हाथ जोड़कर विनम्र निवेदन किया कि सभी लोग अपने-अपने घरों में रहे। फिर भी बहुत से व्यक्ति ऐसे हैं, जो संकट की इस घड़ी में अनुशासनहीनता का प्रदर्शन कर रहे हैं। ऐसे लोगों को समझना होगा कि किसी एक कड़ी के टूटने से मोतियों का पूरा माला बिखर जाता है। बेहतर है कि हम स्वास्थ्य को अपने दैनिक और सामाजिक जीवन में उच्च प्राथमिकता दें। फिलहाल मेडिकल साइन्सेज के विशेषज्ञों द्वारा बताई गयी सावधानियों का पालन करके ही सुरक्षित रहा जा सकता है। इस आलेख के माध्यम से मैं भी आप सभी से विनम्र निवेदन करता हूं कि अपने परिवेश में झांकते रहिए। यदि कोई बाहर है, तो उसे घर के अंदर रहने का संदेश प्रेषित करें। यदि कोई दूसरे प्रदेश या उन स्थानों से घर लौटा है तो उन्हें आवश्यक तौर पर घर के अंदर रहने के लिए कहिए। कहीं ऐसा न हो की एक की लापरवाही का परिणाम हज़ारों मासूम लोगों को भुगतना पड़े। हमें याद रखना चाहिए कि हमें मनुष्य निर्मित व्यवस्था में प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करना है। प्रकृति मनुष्यों की तरह निष्ठुर नहीं है। सूर्य, वायु, प्रकाश और जल देने में प्रकृति किसी मनुष्य के साथ भेदभाव नहीं करती है। लाॅकडाउन की परिस्थितियों को इसी व्यापक अर्थों में समझने और “हेल्प अस टू हेल्प यू“ की भावना के तहत घर के अंदर रहने के अनुशासन का पालन करना है। यदि जीवन सुरक्षित रहेगा तो प्रकृति की धूप-छांव में मनुष्य निर्मित सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में हर बात के लिए अनेकों अवसर मिलेंगे। बच्चों के मूल्यांकन के ही नहीं बल्कि जीवन में नाना प्रकार के उत्सव और विनोद के क्षणों को साझा करने के अवसरों की संभावना बनी रहेगी।
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