Thursday, May 7, 2020

किशोर बच्चों का परिवेश और माता-पिता एवं शिक्षक

"जब माता-पिता अपने बच्चों के परिवेश में शामिल नहीं होते तो ऐसे में बाहरी परिवेश में मौजूद व्यक्ति, समूह, वस्तु, और गतिविधियां बच्चों के मन में जगह बनाने लगती हैं। इस तरह बाहरी परिवेश बच्चों के आन्तरिक द्वन्द्व के समय में उनके सुख-दुःख का साथी बन जाता है। इन्हीं परिस्थितियों में बच्चों का भावनात्मक विकास परिपक्वता प्राप्त करता है। परिपक्व भावनाओं की अभिव्यक्ति बच्चों के आचरण, विचार और व्यवहार में होती है। ये बात और है कि बाहर के परिवेश में शामिल अच्छाई और बुराई में किस एक से बच्चा अधिक प्रभावित होता है।"


म जानते हैं कि 10वीं और 12वीं कक्षा की पढ़ाई किसी छात्र/छात्रा के शैक्षिक जीवन में एक विभाजक दीवार की तरह होता है, जहां से बच्चों के भविष्य की दिशाएं तय होती हैं। शैक्षिक जीवन के इस मोड़ पर बच्चों में भविष्य में अपनी पढ़ाई और कॅरियर को लेकर स्पष्टता नहीं होती है। 10वीं और 12वीं कक्षा के बच्चों के लिए निर्णय करना कठिन होता है कि वो आगे की पढ़ाई किस विषय में, किस संस्थान से करें। एक तरफ इन कक्षाओं के बच्चों को किशोर अवस्था से वयस्क अवस्था में संक्रमण के द्वन्द से जूझना होता है। तो दूसरी तरफ इन्हें अपने परिवेश और परिस्थितियों से भी दो-चार होना पड़ता है। अवस्था संक्रमण में शरीर में हाॅरमोन संबधी बदलाव होते हैं। जिसकी स्पष्ट समझ आम तौर पर न तो बच्चों को होती है और न हीं माता-पिता को। ऐसे में बच्चों को भावनात्मक तौर पर माता-पिता और शिक्षकों की मदद नहीं मिल पाती है। जिसकी वजह से ज्यादातर बच्चे जीवन और कॅरियर के बारे में कुछ स्पष्ट निर्णय नहीं ले पाते हैं। सही समय पर सही निर्णय किसी बच्चे के आचार, विचार, व्यवहार, शैक्षिक, सामाजिक व संस्कारिक प्रगति का आधार होता है। इसे सुनिश्चित करने में काउंसलिंग की भूमिका एक महत्वपूर्ण टूल के समान है।

शारीरिक रूप-रंग और ढ़ांचे में बदलाव बच्चों में उत्तेजना का कारण होता है। उनके लिए अपने संवेगों को नियंत्रित रखना मुश्किल होता है। किशोरावस्था के संवेग साकारात्मक भी होते हैं और नाकारात्मक भी। नाकारात्मक संवेगों के प्रस्फुटन और प्रसार की संभावना अधिक होती है। क्योंकि ज़्यादातर बच्चों को पता ही नहीं होता है कि उनका शरीर और मन क्यों बदल रहा है। उनका संवेग उनके मन और शरीर से ही पैदा होता है और मन और शरीर पर हावी भी रहता है। इस उम्र के बच्चों को माता-पिता, शिक्षक और शुभचिन्तकों की बातें रास नहीं आती हैं। दूसरी ओर माता-पिता और शुभचिन्तक के पास बच्चे के अन्दर होने वाले बायोलाॅजिक बदलाओं की समझ नहीं होती है। जिस घर, स्कूल और समाज में बच्चों के आयु संबंधी शारीरिक और मानसिक बदलाव की समझ नहीं होती, वहां समय रहते बच्चों को अपनी भावनाओं के प्रकटीकरण में उनके निकट परिवेश में मौजूद व्यक्तियों, वस्तुओं और संस्थाओं की मदद नहीं मिल पाती है। माता-पिता द्वारा इस उम्र के बच्चों की निजता का अतिक्रमण आम बात है। ऐसे में बच्चे के अन्दर भ्रम के बीज आरोपित होते हैं। यदि बच्चों की निजता के बारे में वैज्ञानिक समझ बनाई जाए और उनके मन के आवेगों को समझने की कोशिश की जाए, तो बच्चा शारीरिक और मानसिक विकास के क्रम में प्रकट होने वाले सांवेगिक द्वन्द से समय रहते उबर जाता है। वरना उसके संवेग उन्हें गलत रास्ते पर ले जाते हैं। बच्चा बुरी आदतों का शिकार हो सकता है। उसके मन में अच्छाई की कल्पना स्थापित होने की संभावना क्षीण पड़ जाती है। बच्चों की भावनाएं बाहरी परिवेश में मौजूद व्यक्तियों, सहपाठियों और वस्तुओं की आभाषी दुनिया की कल्पना के अनुरूप आकार लेती है।

म तौर पर माता-पिता और शिक्षक बच्चों से परिणामोन्मुख बातें करते हैं। ‘कहां जा रहे हो?’, ‘क्यों जा रहे हो?’, ‘कहां गए थे?’, ‘क्यों गए थे?’, ‘सुबह से अब तक क्या किया?’ आदि वो सवाल हैं, जो अक्सर माता-पिता अपने बच्चों से पूछते रहते हैं। स्कूल में शिक्षक पूछते हैं कि ‘गृह कार्य क्यों नही किया?’ घर और स्कूल दोनों ही जगह बच्चों के सामने एक बड़ा सा ‘क्यों?’ मुंह बाए खड़ा रहता है। इस ‘क्यों?’ में बच्चे के उत्तर की गुंजाइशें कम होती हैं। बड़ों में धैर्य नहीं होता है कि वो बच्चे से अपने ‘क्यों’ का जवाब भी सुनें। बच्चों में चुप रहने की आदत पड़ जाती है। बच्चों की खामोशी को माता-पिता और शिक्षक अपने-अपने तरीके से समझते हैं। बच्चे की खामोशी का कारण बच्चे से संवाद किए बिना ही ढू़ंढ़ लेते हैं, और किसी निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं। माता-पिता अपशब्दों का प्रयोग करते हुए बच्चे को जिम्मेदारी और आत्मनिर्भरता का बोध कराते हैं। तो स्कूल में शिक्षक कक्षा का अनुशासन बनाने में बच्चे के साथ कठोर व्यवहार करते हैं। इस स्थिति से हर किशोर को होकर गुजरना पड़ता है। क्योंकि घर, स्कूल और समाज के परिवेश में बच्चों के बारे में ‘क्यों?’ की मान्यता सामाजिक रूप से सुदृढ़ है। बच्चों को हमेशा बड़ों के ‘क्यों?’ के लिए तैयार रहना होता है।

ज़ाहिर है 15 से 18 वर्ष तक के बच्चों को न सिर्फ शरीर और मन के भावों से द्वन्द की स्थिति में रहना पड़ता है। बल्कि उनका परिवेश और परिस्थितियां उनके प्रति नितान्त आलोचनात्मक, व्यंगात्मक और परिहासात्मक होता है। बच्चों के परिवेश निकट या आन्तरिक और दूर या बाहरी दो भागों में वर्गीकृत करके समझा जा सकता है। निकट के परिवेश में माता-पिता व अभिभावक के अलावा उनके अध्यापक होते हैं। जिनसे बच्चे का प्रत्यक्ष संपर्क और संवाद होता है। ये बच्चे के वास्तविक शुभचिन्तक होतेे हैं। दूसरी ओर वह परिवेश होता है, जो दूर का होता है। जिसमें बच्चों के दोस्त हो सकते हैं। गांव-मुहल्ले के लोग हो सकते हैं। मनोरंजन के तरह-तरह के माध्यम जैसे, भ्रमण, सिनेमा, गेम, आदि हो सकते हैं। दूर का परिवेश अप्रत्यक्ष होता है। इसमें अनिश्चितता होती है। जिस तरह निकट के परिवेश में अच्छे-बुरे दोनों तरह की अभिव्यक्तियों की शामिल होती है, उसी तरह दूर के परिवेश में भी अच्छाई और बुराई की दोनों ही संभावनाएं शामिल होती हैं। निकट परिवेश में माता-पिता जैविक संबंधों का दायित्व निभाता है। बच्चे के हर अच्छे-बुरे आचरण और अभिव्यक्ति के लिए प्राथमिक तौर पर जिम्मेदार होता है। जबकि दूर परिवेश में शामिल व्यक्ति, वस्तु और वातावरण निर्माण के विभिन्न कारण प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार नहीं माने जाते हैं। लेकिन बच्चों के जीवन को प्रायः माता-पिता से अधिक प्रभावित करते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जैसा परिवेश होगा, बच्चे का शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक और सामाजिक विकास वैसा ही होता है।

स्पष्ट है कि बच्चे के लिए उसका निकट और दूर दोनों ही परिवेश महत्वपूर्ण है। इनमें से किसी एक की कमी या किसी एक में असंतुलन बच्चे के विकास में नाकारात्मक परिणाम का कारण बन सकता है। यदि किसी बच्चे के जीवन में उसके माता-पिता की प्रत्यक्ष मौजूदगी नहीं है। तो ऐसे बच्चे अपने निकट परिवेश से दूर होते जाते हैं। उनके जीवन में दूर का परिवेश ही उन्हें अपना असल परिवेश लगने लगता है। वो दूर के परिवेश के आकर्षण में फंसते जाते हैं। जब माता-पिता अपने बच्चों के परिवेश में शामिल नहीं होते तो ऐसे में बाहरी परिवेश में मौजूद व्यक्ति, समूह, वस्तु, और गतिविधियां बच्चों के मन में जगह बनाने लगती हैं। इस तरह बाहरी परिवेश बच्चों के आन्तरिक द्वन्द्व के समय में उनके सुख-दुःख का साथी बन जाता है। इन्हीं परिस्थितियों में बच्चों का भावनात्मक विकास परिपक्वता प्राप्त करता है। परिपक्व भावनाओं की अभिव्यक्ति बच्चों के आचरण, विचार और व्यवहार में होती है। ये बात और है कि बाहर के परिवेश में शामिल अच्छाई और बुराई में किस एक से बच्चा अधिक प्रभावित होता है।

र बच्चा अपने परिवार, समाज और देश के लिए महत्वपूर्ण होता है। इसलिए आवश्यक है कि बच्चे मन और भाव के द्वन्द्व से सफलतापूर्वक बाहर निकलें। उनकी मदद करना हर माता-पिता, शिक्षक और शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे व्यक्तियों का दायित्व है। इसी दायित्व के निर्वहन में माता-पिता और शिक्षक दोनों की काउंसलिंग ज़रूरी है। ताकि वो किशोरावस्था के बच्चों का उचित मार्गदर्शन कर सकें। काउंसलिंग से न सिर्फ माता-पिता की समझ बनती और बढ़ती है बल्कि बच्चा स्वयं भी परिपक्व संवेग और संवेगों की अभिव्यक्ति में परिपक्वता आदि बातों को समझने लगता है। जिन माता-पिता और शिक्षकों को मार्गदर्शन का लाभ मिलता है, उसका लाभ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बच्चों तक भी पहुंचता है। काउंसलिंग प्राप्त बच्चों की शैक्षिक प्रगति अधिक संतोष जनक होती है।

से माता-पिता की संख्या कम है, जिन्हें आधुनिक शिक्षा की बुनियादी विशेषताओं का ज्ञान हो। ऐसे माता-पिता अपनी निजी व्यस्तताओं के चलते बच्चे की रूचियां और क्षमताओं से अनभिज्ञ रहते हैं। ऐसे माता-पिता के बच्चे भीड़ में अकेले रह जाते हैं। ऐस बच्चों के लिए यह निर्णय करना कठिन होता है कि उन्हें 10वीं और 12वीं के बाद किस विषय में पढ़ाई जारी रखनी है। ऐसे बच्चे और उनके माता-पिता कॅरियर को लेकर निश्चित नहीं होते हैं। बच्चों और माता-पिता के सामने यह स्थिति बादलों के धुंध की तरह होती है। जिसे काउंसलिंग की प्रक्रिया से साफ किया जा सकता है।

पिछले कुछ बरसों से मुझे खु़द बतौर एक काउंसलर इस बात का अनुभव है कि काउंसलिंग से बच्चों को सही दिशा में सोचने और पढ़ने के लिए प्रेरणा प्राप्त होती है। काउंसलिंग के अभाव में बहुत से बच्चे 10वीं और 12वीं के बाद सही दिशा में पढ़ाई जारी रखने के अवसर से वंचित रह जाते हैं। यह वंचना अक्सर अदृश्य होती है। जिन बच्चों को माता-पिता, शिक्षक या किसी प्रोफेशनल काउंसलर से सहायता नहीं मिलती है। उन बच्चों की प्रतिभा का क्षरण होता है। उनका समय बरबाद होता है। और तो और उनकी पढ़ाई पर खर्च होने वाला धन भी निरर्थक सिद्ध होता है। चूंकि प्रतिभा रूचि, तत्परता और क्षमता पर निर्भर होती है। इसलिए सही समय पर सही दिशा का चुनाव न होना रूचि, तत्परता और क्षमता के प्रदर्शन को प्रभावित करता है। जीवन की गाड़ी तो चलती रहती है, लेकिन रफ्तार वो नहीं बन पाती, जो सही टैªक और दिशा में होने पर बनती है। इसे हवा के खि़लाफ का उदाहरण कहा जा सकता है। प्रतिकूल दिशा में प्रयास सफल होने के बाद भी बच्चा अपने कॅरियर से संतुष्ट नहीं रहता है। दूसरा यह कि बच्चा परिवार, समाज और देश में जो योगदान अपनी रूचि, तत्परता और क्षमता वाली दिशा में जाकर कर सकता है, उस योगदान से परिवार, समाज और देश हमेशा-हमेशा के लिए वंचित रह जाता है।

काउंसलिंग एक ज़रूरी टूल है, जो बच्चों और उनके माता-पिता एवं शिक्षकों के लिए ज़रूरी है। इसे व्यापक प्रसार देने की ज़रूरत है। मौजूदा दौर के बच्चे पिछली पीढ़ी की तुलना में कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण परिवेश में सांस ले रहे हैं। माता-पिता और शिक्षक को एक मित्र काउंसलर की भूमिका में रहने की आवश्यकता है न कि “क्यों?” का पहाड़ लिए हुए एक सख़्त अभिभावक या कठोर अनुशासन प्रिय शिक्षक की भूमिका में रहने की ज़रूरत है। यही भूमिका किशोर बच्चों के आन्तरिक और वाह्य द्वन्द्व के समाधान का रास्ता निकालती है।
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