Friday, February 10, 2012

ओ.बी.सी. आरक्षण की समीक्षा के बजाए 4.5 प्रतिशत कोटा अतार्किक

पिछले कुछ दिनों से मुस्लिम आरक्षण पर बहस तेज है। सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सभी दल यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि इनमें मुसलमानों का कौन कितना बड़ा हमदर्द है। 4.5 प्रतिशत अल्पसंख्यक कोटा के माध्यम से 64 बरस के आजाद भारत के इतिहास में नया अध्याय जोड़ने की कोशिशें जारी हैं। कैबिनेट के इस फैसले को कुछ लोग देश बांटने वाला, कुछ लोग मुस्लिम ध्रुवीकरण, कुछ लोग विशेषकर मुसलमानों के पिछड़ेपन को दूर करने वाला और कुछ लोग पिछड़ों को बांटने वाला फैसला बता रहे हैं। सवाल यह भी है कि 27 प्रतिशत ओ.बी.सी. आरक्षण के अन्दर 4.5 प्रतिशत अल्पसंख्यक कोटा निर्धारित करने वाले फैसले के पीछे कहीं केन्द्र सरकार की सोची समझी चुनावी रणनीति तो नहीं है? मुख्य धारा की पार्टियों से तो ऐसे सवालों की गुंजाइश बनती ही है कि पिछले 64 बरसों में नहीं तो कम से कम मण्डल लागू होने के 18 बरसों के शैक्षिक-सामाजिक विकास के बाद केन्द्र सरकार का इस नतीजे पर पहुंचना क्या तार्किक है? यदि पिछले 18 बरसों की बात करें तो यह सवाल उन छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियों पर भी समान रूप से लागू होता है, जिन्हें दलित-पिछड़ा आंदोलनों के राजनीतिक नेतृत्व का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गौर तलब है कि संवैधानिक प्राविधान और दलित-पिछड़ा आंदोलन में उभार के बाद भी ओ.बी.सी. में शामिल अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों को आरक्षण का लाभ क्यों नहीं मिला। ऐसे में विचार जरूरी है कि अल्पसंख्यक आरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए पिछले दो दशक की उपलब्धियों की समीक्षा की जाए या 4.5 प्रतिशत अलग को कोटे का प्राविधान किया जाए।
ग़ौर तलब है कि इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई में दलित-पिछड़ा की शब्दावली में एक नए शब्द “पसमांदा” की वृद्धि हुई। हालांकि कि इसके प्रयास बीसवी सदी के अन्तिम दशक में ही शुरू हो चुके थे। इसका पूरा श्रेय ‘‘मसावात की जंग’’ नामक किताब के लेखक अली अनवर को है। यह किताब मूलतः बिहार के पसमांदा मुसलमानों की शैक्षिक-सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक संस्थाओं में प्रतिनिधित्व का शोधपरक चित्र प्रस्तुत करता है। यह किताब देश भर में मुस्लिम समाज में व्याप्त सामाजिक अन्याय और भेदभाव के चरित्र को उजागर करता है। यद्यपि पहले से ही मुस्लिम समाज में जाति स्तरीकरण पर प्रो॰ इम्तियाज़ अहमद जैसे समाज विज्ञानियों के महत्वपूर्ण शोध उपलब्ध हैं। लेकिन ऐसे अध्ययनों को आंदोलन का रूप देने में ‘‘मसावात की जंग’’ का उल्लेखनीय योगदान रहा है। ‘‘मसावात की जंग’’ ने सामाजिक आंदोलन तो खड़ा किया लेकिन अफसोस कि अभी तक यह आंदोलन अपने राजनीतिक लक्ष्यों तक पहुंच नहीं सका।
बहरहाल “मसावात की जंग” (2001) और सच्चर कमेटी की रिपोर्ट (2005) और सामाजिक स्तरीकरण के इतिहास से इस बात को बल मिलता है कि अन्य समाजों की तरह मुसलमानों में भी जाति व्यवस्था का प्रभाव रहा है। पसमांदा मुसलमानों के 75 से 80 प्रतिशत हिस्से को समाज और देश में कभी उचित सम्मान नहीं मिला। यही कारण है कि पसमांदा मुसलमानों को मण्डल कमीशन की संस्तुतियों में ओ.बी.सी. के अन्तर्गत अधिसूचित किया गया। मण्डल और उसके बाद की परिस्थितियों में पसमांदा मुसलमान कम से कम सर उठाने की स्थिति में आया है और अपने अधिकारों के प्रति सचेत होने की प्रक्रिया में है, लेकिन उन्हें आरक्षण का लाभ उस अनुपात में आज तक नहीं मिल सका। मुमकिन है सरकार इस बात से वाकिफ हो और इसी पृष्ठभूमि में 4.5 प्रतिशत कोटे को मंजूरी दी गयी हो। लेकिन सरकार का संदर्भ 1992 के राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग एक्ट की धारा 2 (सी) का है, न कि शैक्षिक और सामाजिक रूप से पिछड़े मुसलमानों या अन्य अल्पसंख्यकों का। सवाल लाजमी है कि पिछड़े मुसलमान जो एक सामान्य भारतीय नागरिक के तौर पर जब 18 बरसों में मण्डल के अन्तर्गत लाभान्वित नहीं हो सके तो चुनावी पिटारे से निकलने वाले 4.5 प्रतिशत कोटे के अन्दर कोटे से कैसे लाभान्वित होंगे। मुस्लिम समाज के जाति स्तरीकरण को देखा जाए तो इस कोटे के माध्यम से पिछड़ेपन की वंचना सहने वाले पिछड़ों और अगड़ेपन के आकंठ में डूबे संभ्रांतों को एक ही पंिक्त में लाकर खड़ा कर देना कहां तक उचित है?
आरक्षण की पृष्ठभूमि, नीति और राजनीति के संदर्भ में यह समय समीक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण हो सकता है। इसलिए कि विश्लेषण और समीक्षा के बाद उन कारणों का पता चल सकता है कि मण्डल कमीशन लागू होने के बाद मुस्लिम ही नहीं बल्कि हिन्दू पिछड़ी जातियों को भी आरक्षण का पूरा-पूरा लाभ क्यों नहीं मिला? यह भी कि केन्द्र और राज्य की नौकरियों में खाली पड़ी ओ.बी.सी. की सीटों को समय रहते क्यों नहीं भरा जा सका।
उक्त बातें अल्पसंख्यक आरक्षण से संबंधित सरकार की मंशा को संशय के घेरे में ले आती है। यदि राजनीतिक रूप से देखा जाए तो इस फैसले से पिछड़े समाजों में लोकतंत्रीकरण की जो प्रक्रिया चल रही है वह कमजोर हो सकती है। क्योंकि जाति विन्यास में “जिसकी लाठी/उसकी भैंस” वाले अल्पसंख्यक समुदाय के लोग भी 27 प्रतिशत में शामिल कर लिए गए हैं। सर्वाधिक लाभ उन लोगों को मिलने की संभावना है जो पहले से ही संभ्रांत और समृद्ध हैं। खासकर वे लोग जो आरक्षण की मूल भावना और सिद्धान्त का आरम्भ से ही विरोध करते आए हैं। ऐसे में कोटे के अन्दर 4.5 प्रतिशत कोटा का टोटा जातीय दम्भ और सामंती वर्चस्व के दावानल में अल्पसंख्यक पिछड़ों को कुछ और सदियों तक जलाता रहेगा। मेरा मानना है कि आरक्षण की लड़ाई महज शिक्षा और नौकरी की लड़ाई नहीं है। यह लड़ाई समतामूलक समाज के निर्माण और सम्मान की लड़ाई है। इसे इसी रूप में देखा जाना चाहिए।

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