Wednesday, August 17, 2011

तय करो किस ओर हो तुम...... !



 हर उस व्यक्ति के हर उस लड़ाई में शामिल हुआ जाए जो किसी भी मनुष्य के नैसर्गिक अधिकारों के पक्ष में हो। जो संविधान प्रदत्त अधिकारों के उल्लंघन को रोक सके। सिविल सोसाइटी को अन्ना-अन्ना बनाना हो तो बनाएं लेकिन हमें यह भी तय करना होगा कि हम आज की तारीख में हैं कि तरफ, अन्ना की तरफ, भ्रष्टाचार विरोध की तरफ, किसी व्यक्ति या पार्टी के विपक्ष में या फिर लोकतांत्रिक अधिकारों की तरफ। तय करो किस ओर हो तुम...... !

16 अगस्त को अन्ना और सहयोगियों की गिरफ्तारी व रिहाई और अन्ना का तिहाड़ में ही अनशन पर डट जाना वगैरह घटनाओं से हम सभी अवगत हैं। टी.वी. स्क्रीन की भीड़ 10 करोण बतायी गयी, भीड़ में अन्ना के लिए जान देने तक की बातें की गयीं, अधिकतर चैनलों और अखबारों अन्ना ही छाए रहे। मजेदार बात यह है कि हर शहर में अन्ना भीड़ का एजण्डा और भीड़ टी.वी. का एजेण्डा दिखा। टी.वी. रिपोर्टर्स का चींखना-चिल्लाना ऐसा जैसे वो टी.वी. स्क्रीन से सचमुच ही बाहर निकल आएं। पिछले हफ्ते ऐसा लगा था कि जात-पात और आरक्षण का मुद्दा सर्व प्रमुख है लेकिन इस जाते हुए सप्ताह में भ्रष्टाचार मुख्य मुद्दा रहा। यह भी पहली बार नहीं हुआ था। इससे पहले जून माह में भी जन्तर-मन्तर और रामदेव के रामलीला वाली घटना में भी हुआ था। टी.आर.पी. मीडिया से अलग देखा जाय तो भ्रष्टाचार एक अहम समस्या तो है ही जिस पर अन्ना के सबब ही सही देशवासियों का ध्यान आकृष्ट हुआ है। लेकिन सरकार अन्ना और नागरिक समाज के हस्तक्षेप को कदम-कदम पर टालने की कोशिश कर रही है। गृह मंत्री पी. चिदम्बरम के बयान का भाव यह है कि “कानून संसद द्वारा बनाया जाना चाहिए न कि मैदान में बैठे सामाजिक कार्यकर्ताओं के समूह द्वारा।” गृहमंत्री के बयान को यदि संसदीय लोकतंत्र के आइने में देखा जाय तो इसमें गलत क्या है? मेरी बातों का यह मतलब नहीं कि मैं चिदम्बरम या यूपीए की राजनीति और कार्यशैली से सहमत हूँ। ध्यान दिलाना चाहता हूँ संसदीय लोकतंत्र में जनलोकपाल के समर्थक जन गण के मन की भूमिका पर। अलग-अलग शहरों में अन्ना के समर्थन में होने वाले विरोध-प्रदर्शनों को देखकर यह आभास हुआ कि अन्ना और सिविल सोसाइटी भी मुद्दा बन चुके हैं सरकार के लिए।
संविधान में निहित शक्तियां संसद से लेकर सड़क तक समान रूप से आहूत की गयी हैं। पूरी व्यवस्था बनायी गयी है कि जनगण अपने मूलाधिकारों का प्रयोग करके अपनी पसन्द का “अन्ना” संसद में भेजे। लेकिन शासक वर्ग के चरित्र के आगे सारी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का दम तोड़ देना मौजूदा दौर की भयावह त्रासदी कही जानी चाहिए। क्योंकि यह दौर साइबर युग कहा जा रहा है। जमीन तो जमीन चांद और मंगल तक उड़ानें भरी जा रही हैं। ऐसे में अन्ना में यदि आने वाले कल की कोई साफ-सुथरी छवि दिखाई देती है तो नागरिक समाज की जय करना ही चाहिए।
कुछ बातें नागरिक समाज के बारे में। न्यूज चैनलों और अखबारों की तस्वीरों में नागरिक समाज संख्या देखते बनती है। यह समाज अन्ना जैसों के लिए कैन्डिल जलाते फिर रहा है। वैसे कैन्डिल जलाने की परंपरा आमिर खाँ अभिनित “रंग दे बसंती” के बाद काफी मजबूत हुई है। वरना मैं तो बचपन से मशाल जुलूस ही जानता था। जो लोकतांत्रिक आवाज़ को बुलन्द करने का सूचक समझा जाता रहा है। लेकिन अब मशालों से पर्यावरण को खतरा पहुंच रहा है। इसलिए कैन्डिल जलाओ। लो भई गया जमाना मशाल जुलूस का और आया जमाना कैन्डिल मार्च का। याद आया मार्च महीने में ही भगत सिंह को फांसी दी गयी थी। बहरहाल बात सिविल समाज की है तो सुनते-सुनते अब यह कोई पार्टी या सियासी जमात जैसा नाम लगने लगा है। इस समाज की व्यापक परिभाषा क्या है, बताना होगा इस देश की जनता को। मेरा निजी विचार है कि टी.वी. पर जो दस करोण लोग अन्ना-अन्ना चिल्ला रहे हैं, कम से कम उन्हें इसी सिविल समाज के प्लेटफार्म पर इकटठा करके यह बात बता देनी चाहिए कि लोकतंत्र में हमने पहली गलती कहां की थी, जिसके परिणाम स्वरूप सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार की तूती बोल रही है। 15 अगस्त और 26 जनवरी को हम आपस में संदेशों का आदन-प्रदान करके इन अवसरों को समारोहपूर्वक मना लेते हैं। लेकिन आज़ादी के संघर्ष और संवैधानिक अधिकारों और दायित्वों के बारे में जरा भी नहीं सोचते। काश ऐसा संभव होता कि सौ करोण से अधिक आबादी वाले इस देश के मतदाताओं की आधी संख्या को भी यह बात समझ में आ जाती कि गुप्त मतदान की प्रणाली में ही तमाम शक्तियां छुपी हुई हैं। किसी अच्छे चरित्र वाले को हम क्यों नहीं भेजते संसद में। वोट का अधिकार आजादी की लड़ाई से अलग नहीं कीे जा सकती। फिर सड़क से संसद पहुंचने का रास्ता तो यही है न कि हम अपने प्रतिनिधि चुने और भेजें। कहा जा सकता है कि परिस्थितियां ऐसी रही नहीं कि हम अपना मताधिकार स्वतंत्र रूप से प्रयोग कर सकें। जब से अपराध और राजनीति का गठजोड़ हुआ है तब से तो ऐसा असंभव सा प्रतीत हो रहा है। लेकिन परिस्थितियां ऐसी भी नहीं हैं कि हम हर बात के लिए विवश हो चुके हैं। ताजा उदाहरण अन्ना का ही ले लीजिए। अन्ना और उनके सहयोगियों को देर तक गिरफ्तार नहीं रखा जा सका। ये बात अलग है कि अन्ना जेल में ही डट गए।
मैं तो यह कहता हूं, हे अन्ना आप आहवान करो उन 10 करोण लोगों का जो भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में आप के पक्ष में खड़ा बताए जाते हैं। व्हिप जारी करो इनको कि आने वाले चुनावों में ये लोग अपने-अपने क्षेत्रों के अन्ना को ही चुन कर संसद और विधान मण्डलों में भेजें। यदि ऐसा होता है तो गृहमंत्री के मुंह पर जोरदार तमाचा होगा। इस तमाचे का अर्थ यह होगा कि हर क्षेत्र से अन्ना जैसे जब एक छत के नीचे बैठेंगे तो जन-लोकपाल के रास्ते में आने वाली अड़चनें खुद-ब-खु़द ख़त्म हो जाएंगी। एक फायदा यह भी होगा कि भ्रष्ट छवि के नेताओं की जमात भी स्वतः हाशिए पर पहुच जाएगी। तीसरा लाभ यह कि जिस बेदर्दी से हुकूमत विरोध प्रदर्शनों को नेस्तनाबूद करने के मंसूबों को आगे बढ़ा रही है, उस मंसूबे पर भी लगाम लग सकेगा। अन्ना समर्थकों से यह भी तकाजा है कि जब देश के सभी प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ चुनावों पर अघोषित कफ्र्यू लागू है तो वहां पर विरोध-प्रदर्शन के मूलाधिकारों की बहाली के लिए सिविल सोसाइटी प्रयास करेगी।
यह बहस जारी रहेगी। अभी तक के लिए इतना ही कि सोनिया या मायावती मुर्दाबाद करने से बेहतर है कि हम भ्रष्टाचार हो बरबाद के नारे लगाएं। हर उस व्यक्ति के हर उस लड़ाई में शामिल हुआ जाए जो किसी भी मनुष्य के नैसर्गिक अधिकारों के पक्ष में हो। जो संविधान प्रदत्त अधिकारों के उल्लंघन को रोक सके। सिविल सोसाइटी को अन्ना-अन्ना बनाना हो तो बनाएं लेकिन हमें यह भी तय करना होगा कि हम आज की तारीख में हैं कि तरफ, अन्ना की तरफ, भ्रष्टाचार विरोध की तरफ, किसी व्यक्ति या पार्टी के विपक्ष में या फिर लोकतांत्रिक अधिकारों की तरफ। तय करो किस ओर हो तुम...... !

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