Saturday, August 13, 2011

मदरसों का सामाजिक परिप्रेक्ष्य


अधिकतर बच्चे सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों से आते हैं। बहुत बच्चे ऐसे हैं जो यतीम होते हैं। कुछ ऐसे होते हैं जिनके सरपरस्त मजदूरी कर सकने की भी स्थिति में नहीं होते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जिनके समक्ष बाल्यकाल में ही पेट की आग बुझाने की चुनौती होती है। आर्थिक बदहाली का शिकार ऐसे बच्चे मीडिल क्लास की तरह सरकारी या गैर-सरकारी संसाधनों की पहुंच से कोसों दूर होते हैं। ये बच्चे सिविलाइजेशन की प्रक्रिया से भी अलग-थलग रह जाते हैं। यदि मदरसों की छत न मिले तो ये बच्चे भी कहीं कूड़ा बिनते नजर आते या जेब काटते होते या फिर कहीं बंधुवा बाल श्रमिक होते।

मदरसों को लेकर तरह-तरह भ्रान्तियां हैं। कोई मदरसों को धार्मिक शिक्षा तक सीमित समझता है तो कोई इसे सीधे आतंकवाद से जोड़कर देखता है और कोई रूढि़वाद की पनाहगाह बताता है। लेकिन मदरसों के शैक्षिक और सामाजिक चरित्र तथा भूमिका पर बातें कभी-कभार ही होती हैं। अधिकतर बातों का संदर्भ आतंकवाद की बढ़ती-घटती घटनाएं होती हैं। सत्य और तथ्य चाहे जो हो, मौजूदा दौर की सच्चाई है कि हर विस्फोट के बाद मदरसा जांच एजेंसियों के निशाने पर आ जाते हैं। मदरसा ही क्यों, माइनारिटी स्टेटस रखने वाले दूसरे शैक्षिक संस्थान भी संदेह के घेरे में रहते हैं। इस संदर्भ में यदि मदरसों का छोड़ दिया जाए तो अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और हाल में माइनारिटी स्टेटस प्राप्त करने वाले जामिया मिल्लिया इस्लामिया जैसे देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों की सेक्यूलर छवि भी धूमिल हो रही है। निश्चित तौर पर नौजवानों का एक हिस्सा आतंकवादियों के नापाक इरादों का शिकार हुआ है। लेकिन कुछ सिरफिरों के चलते पूरे समुदाय को ही शक के घेरे में लाना ठीक नहीं है। यह एजेण्डा दरअसल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समर्थक आरएसएस और वीएचपी जैसे हिन्दुवादी संगठनों का रहा है। किसी भी सिक्के के दो पहलू होते हैं। मदरसों में पढ़ाई जाने वाली दीनी किताबें या धार्मिक शिक्षा एक प्रबल पक्ष है, जो अक्सर मीडिया में बहस का मुद्दा होता है। लेकिन यह आधा सच है। यदि पूरी हकीकत जाननी है तो हमें मदरसों की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर भी ध्यान देना होगा।
पहली महत्वपूर्ण बात यह कि मदरसा आवासीय शिक्षण संस्थान के बेहरीन उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। शिक्षा में स्कूल का संगठन महत्वपूर्ण पक्ष होता है। मदरसों का अनुशासन और आन्तरिक संगठन अपनी जगह काबिले तारीफ है। सवाल यह है कि मदरसे मुख्य धारा से जुड़े नहीं हैं। यदि मदरसा शिक्षा बोर्ड से मान्यता प्राप्त स्कूलों (मदरसों) की बात करें तो उत्तर प्रदेश में ही 1500 से अधिक मदरसे हैं जिन्हे बोर्ड की मान्यता प्राप्त है। बोर्ड की मान्यता प्राप्त होने का मतलब है कि इतनी बड़ी तादाद में मदरसे सरकारी नीतियों और दिशा निदेशों का पालन करते हैं। रही बात अलग से मदरसा शिक्षा बोर्ड के आस्तित्व की तो संविधान की अनु॰ 30(1) के तहत भाषाई या धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के शिक्षण संस्थान खोलने और चलाने का मूलाधिकार प्राप्त है।
दूसरी बात मदरसों में पढ़ने वाले बच्चों की। मालूम हो कि अधिकतर बच्चे सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों से आते हैं। बहुत बच्चे ऐसे हैं जो यतीम होते हैं। कुछ ऐसे होते हैं जिनके सरपरस्त मजदूरी कर सकने की भी स्थिति में नहीं होते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जिनके समक्ष बाल्यकाल में ही पेट की आग बुझाने की चुनौती होती है। आर्थिक बदहाली का शिकार ऐसे बच्चे मीडिल क्लास की तरह सरकारी या गैर-सरकारी संसाधनों की पहुंच से कोसों दूर होते हैं। ये बच्चे सिविलाइजेशन की प्रक्रिया से भी अलग-थलग रह जाते हैं। यदि मदरसों की छत न मिले तो ये बच्चे भी कहीं कूड़ा बिनते नजर आते या जेब काटते होते या फिर कहीं बंधुवा बाल श्रमिक होते। बहरहाल संघी मानसिकता के लोगों द्वारा इनकी टोपी, लुंगी और दाढ़ी को आतंकवाद के प्रतीक के रूप में प्रतिबिम्बित करने से इनके समझ राष्ट्रीय और सांस्कृतिक पहचान का संकट और पेंचीदा हो जाता है। कुछ देर के लिए मान लिया जाय कि मदरसे शिक्षा के उचित स्थान नहीं हैं तो हजारों की संख्या में गरीब बच्चों के शिक्षा की वैकल्पिक व्यवस्था क्या है? खास करके उनके लिए जिनका परिवार गरीबी रेखा से नीचे नहीं बल्कि बहुत नीचे जीवन यापन कर रहा है। एक्शन एड के एक अध्ययन में आश्चर्यचकित कर देने वाले तथ्य सामने आए हंै कि अभी भी ग्रामीण मुसलमानों में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन की औसत आय मात्र 11 रूपए है।
संघी मानसिकता के लोगों का कहना है कि मदरसे आतंकवाद की पाठशाला हैं। इस तरह के गैर-जिम्मेदाराना बयानों से एक तरफ जहां भावनात्मक स्तर पर संविधान प्रदत्त अल्पसंख्यकों की धार्मिक और शैक्षिक स्वतंत्रता की अवहेलना होती है वहीं दूसरी तरफ इन्हें रोजमर्रा जीवन में भेदभाव की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। दो बातें हैं, एक तो मदरसे आधुनिक शिक्षा से दूर हैं और दूसरे इनकी छवि संदेहास्पद है। कहना पड़ रहा है कि छवि तो हमारे प्राथमिक पाठशालाओं की भी खराब है। इतनी खराब कि खुद इन स्कूलों के प्रशिक्षित अध्यापक-अध्यापिकाओं के बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ते हैं। ज्ञात हो कि निजी स्कूलों के अधिकतर अध्यापक-अध्यापिका अप्रशिक्षित होते हैं। लेकिन उनका कार्य निष्पादन प्राथमिक स्कूलों के प्रशिक्षित और अनुभवी अध्यापकों-अध्यापिकाओं से अधिक और अच्छा होता है। तो क्या इस संदर्भ में यह मान लिया जाना चाहिए कि प्राथमिक विद्यालय भी आधुनिक शिक्षा से दूर हैं। यह जानकर हैरानी होती है कि ढ़ेर सारे मदरसे प्राथमिक स्कूलों से भी आगे हैं। कम से कम मान्यता प्राप्त मदरसों में सरकारी किताबें ही पढ़ाई जाती हैं। यदि बनारस के डा॰ मोहम्मद आरिफ की बातों पर यकीन करें, जिन्होंने मदरसों पर काफी काम भी किया है तो इनके मुताबिक मदरसों में प्रदेश सरकार द्वारा मान्य वो किताबें भी पढ़ाई जा रही हैं जिनके कुछ अध्याय काफी विवादित हैं, जिसमें सास्कृतिक राष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता की प्रतिध्वनि सुनाई देती है। इस तरह की किताबें सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़ाई जाती हैं जो राष्ट्रीय एकता और साझी विरासत वाली संस्कृति को नुकसान पहंुचाती हैं।
जाहिर है माडर्नाइजेशन के दौर में मदरसों में वो बातें भी बताई जा रही हैं जो खुद मदरसों के बुनियादी ढ़ांचे के खिलाफ हैं। यहां कहना चाहूंगा कि ये बातें अल्पसंख्यकों को इसलिए पता नहीं चल पाती हैं क्योंकि मदरसों पर उलेमा वर्ग का अच्छा खासा प्रभाव है। उलेमा होना अपने आप में अति महत्वपूर्ण है। लेकिन यह वर्ग सरकारी-गैर सरकारी योजनाओं को अपने हिसाब से चलाना चाहता है। इस नियमन और संचालन में उलेमा वर्ग अकेले नहीं होता। मुख्यधारा का ही व्यक्ति उसे ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करता है। मुख्यधारा का व्यक्ति कोई जनप्रतिनिधि, कोई अफसर या कोई बाबू हो सकता है। मान्यता प्राप्त मदरसे मुख्य धारा से अच्छी तरह जुड़े हुए हैं लेकिन दुःख की बात है कि मदरसों के माध्यम से अल्पसंख्यकों तक पहुंचने वाली सरकारी सुविधाओं का लाभ उनतक नहीं पहुंच पाता। आम मुसलमानों को तो किसी योजना या स्कीम की जानकारी तक नहीं होती। फतेहपुर की रूबीना की बातों से पता चलता है कि स्थानीय प्रतिनिधि मुस्लिम अल्पसंख्यकों के लिए सरकारी योजनाओं की जानकारी अपने तक सीमित रखता है। बताता भी है तो समय निकल जाने के बाद। इन्टरनेट और दूसरे संचार माध्यमों तक पहुंच नहीं होने के कारण भी मुस्लिम अल्पसंख्यक कल्यारकारी योजनाओं के लाभ से वंचित रह जाते हैं। ऐसे में इन्हें मुख्य धारा में शामिल करने का एजेण्डा भी पीछे रह जाता है।
जाहिर मदरसों के बारे में हमें अपनी राय बदलने की जरूरत है। मेरा भी व्यक्तिगत अनुभव यही रहा है कि मदरसे सिर्फ धार्मिक शिक्षा प्रदान करने का केन्द्र हैं। लेकिन मुझे अपनी धारणा बदलनी पड़ी। मदरसों में पढ़ने वाले बच्चों से बातचीत, खासकर उन बच्चों से जिन्हें उच्च शिक्षा का अवसर मिला, जो जामिया, जेएनयू डीयू, बीएचयू और एएमयू जैसे देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में पढ़ाई कर रहे हैं या कर चुके हैं और वो जो एक बेहतर समाज और देश के सपनों को सच कर दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, उनकी पहचान को स्वीकार करना होगा। अवसर हर व्यक्ति के लिए विकास खिड़कियां खोलता है। इस संदर्भ में मदरसों के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पक्षों से सामाजिकता का पाठ सीखा जाना चाहिए।

नई दिल्ली से प्रकाशित पाक्षिक ‘‘शिल्पकार टाइम्स’’ 1-15 अगस्त के अंक में प्रकाशित

2 comments:

  1. achha likha hai vaseem...madarson ko samajhna behad zaroori hai...is tarah ki aur poston ka intazar rahega...

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  2. @Dilip कोशिश जारी है। शुक्रिया

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