Friday, August 12, 2011

भावना, योजना और जाति-जनगणना के बीच भ्रम की स्थिति क्यों?


" सरकार का तर्क है कि जाति आधारित जनगणना से खाद्य सुरक्षा का सही अनुमान लगाया जा सकता है। फिर एक-एक करके अन्य नीतियों के क्रियान्वयन में भी इस जनगणना की मदद ली जा सकेगी। ताकि कल्याणकारी योजनाओं का लाभ सही व्यक्ति और परिवार तक पहुंच सके। यदि इस बात पर यकीन करें तो मानना होगा कि हमारे समाज में जात-पात की समस्या समाप्त हो चुकी है। सर्व शिक्षा अभियान, मनरेगा, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, सम्पूर्ण सफाई अभियान जैसी योजनाओं की रेलमपेल में सम्मान का सवाल बहुत पीछे रह गया है।........"

गणना 2001 के बाद सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण (बी.पी.एल. सर्वेक्षण) का पहला दौर जुलाई महीने में शुरू हुआ। इस बार बी.पी.एल सर्वेक्षण में दो नयी बातें हो रही हैं। पहला यह कि पहली बार शहरी क्षेत्रों में भी यह सर्वे हो रहा है और दूसरी बात यह कि इस सर्वे के साथ ही जाति जनगणना भी की जा रही है। मालूम हो कि जाति जनगणना इससे पहले 1931 में की गयी थी। 80 बरस के बाद (आज़ादी के 64 बरस बाद) हो रही इस जनगणना को लेकर प्रबुद्ध वर्ग में बहस तेज हो रही है। इस बीच “आरक्षण” फिल्म के कानटेन्ट और प्रस्तुति ने भी ध्यान आकर्षित किया है। अखबार, टी.वी. से लेकर फेसबुक जैसे सोशल नेटवर्किंग साइट पर भी घमासान मचा हुआ है। कोई फिल्म पर प्रतिबंध लगाने, तो कोई रिलीज करने का पक्षधर है। कोई सस्ती लोकप्रियता की कसौटी पर परख रहा है और यह कह रहा है कि फिल्म देखने के बाद ही तय किया जाय कि वास्तव में फिल्म किसी जाति विशेष की भावनात्मक ठेस पहुंचाती है या नहीं। यूंही हो-हल्ला मचाने से प्रोड्यूसर-डाइरेक्टर का बिजनेस बढ़ेगा। बहरहाल आरक्षण का मुद्दा ही केन्द्र में है। 1931 के बाद और आजाद भारत में पहली बार हो रही जाति जनगणना जाति आधारित भेदभाव की यह व्यापक स्वीकारोक्ति है। लेकिन जाति जनगणना को लेकर कई सवाल अनुत्तरित हैं। पहला यह कि इस जनगणना से हमें क्या हासिल होने वाला है? क्या उन जातियों की पहचान और संख्या सामने आ सकेगी जिनकी अभी तक अलग से कोई सूची उपलब्ध नहीं है? क्या करोणों रूपए खर्च करने के बाद इस जनगणना से प्राप्त आंकड़े जातिगत विविधता प्रधान भारत के गरीबों और पिछड़ों के लिए नीति बनाने में सहायक होंगे? और अन्ततः क्या जात-पात की भेदभाव परक व्यवस्था कमजोर हो सकेगी? इन्हीं सवालों के चलते ‘‘समाजिक, आर्थिक व जाति जनगणना, 2011’’ की प्रक्रिया, प्रयुक्त माध्यम और परिणाम को लेकर जिज्ञासाएं भी हैं और उहापोह की स्थिति भी।
जनगणना से जुड़े सवालों में पहला सवाल यह कि जब इस वर्ष 9 से 28 फरवरी के बीच सम्पन्न जनगणना में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति की गिनती हो चुकी है तो जाति जनगणना के नाम पर उन्हीं को फिर से गिनने की आवश्यकता क्या है? 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति की आबादी क्रमशः 16.2 और 8.2 प्रतिशत थी। जाहिर है कुल आबादी में अनुसूचित जाति/जनजाति की संख्या पहले से मालूम है। जनगणना, 2011 के आंकड़ों के सामने आते ही 2001 के आंकड़े में होने वाले बदलाव भी सामने आ जाएंगे।
रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त के अनुसार जाति जनगणना में केवल चार कटेगरी होंगे, पहला “अनुसूचित जाति”, दूसरा “अनुसूचित जनजाति”, तीसरा “अन्य” और चैथा “कोई जाति नहीं”। भारत सरकार की वेवसाइट http://rural.nic.in पर यह भी लिखा है कि अनुसूचित जाति सिर्फ हिन्दू, सिक्ख और बौद्ध धर्म के अनुयायियों में होंगे। बिल्कुल ठीक लिखा है। सबकुछ संविधान के दायरे में लिखा गया है। लेकिन यह बात समझ से परे है कि इस जाति जनगणना का लाभ क्या है, जिसमें सिर्फ अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति को ही गिनना प्रमुख ध्येय है। जनगणना 2011 से यदि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की आबादी घटा दिया जाय तो अन्य जातियों और बिना जाति के लोगों की संख्या ऐसे ही सामने आ जाएगी। फिर अलग से 2000 करोण रूपए खर्च करने की जरूरत क्या है? बी.पी.एल. के साथ हो रहे इस सर्वे को इस तरह प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे अन्य पिछड़ा वर्ग, सामान्य वर्ग और मुस्लिम व इसाई दलितों का अलग जातिगत आंकड़ा प्राप्त किया जा सकेगा। और उन्हीं आंकड़ों के अनुसार मानव संसाधनों को नियोजित किया जा सकेगा।
लेकिन यह जनगणना तो छलावा प्रतीत होता है। क्योंकि इस जनगणना से पिछड़ी और सामन्य जातियों के लोगों के बीच विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती। जिस तरह से “अनुसूचित जाति”, “जनजाति”, “अन्य” और “बिना जाति” के लोगों के बीच खींचने की कोशिश जा रही है। यह तो यूपीएससी (संघ लोक सेवा आयोग) की परीक्षा में दिए जाने वाले विकल्पों के समान है, कि उत्तर इन्हीं चार में से कोई एक चुनना है। या फिर आजकल टी.आर.पी. मीडिया द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नों की तरह हैं जिनमें पहले से तय तीन-चार प्रश्नों के अलावा पांचवा या छठा का कोई विकल्प नहीं होता। किसी मायने में यह लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन भी है कि उत्तरदाता के समक्ष अपनी समस्या और समस्या के परिमाण को व्यक्त करने का कोई विकल्प ही नहीं दिया जाता है। ऐसे में उन जातियों का क्या होगा जिनका संबंध न तो सामान्य वर्ग से है और न ही अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से। मण्डल कमीशन के अनुसार इनकी आबादी 54 प्रतिशत है। आबादी का यह हिस्सा भी सामाजिक न्याय के संघर्ष में शामिल रहा है। फिर इनकी गिनती “अन्य” विकल्प के अन्तर्गत क्यों किया जा रहा है? क्या ये जातियां कर्म और जातिगत भेदभावों के कारण सामाजिक वंचनाओं का शिकार नहीं रही हैं या नहीं हैं।
चिन्ता की बात यह भी है कि मुस्लिम और ईसाई भी इस देश के नागरिक हैं। भारतीय समाज की कल्पना इन दो को छोड़कर कैसे की जा सकती है। मुस्लिम और ईसाई आबादी का एक खास हिस्सा ऐतिहासिक रूप से दलित रहा है। लेकिन यह तबका धर्म परिवर्तन के कारण अनुसूचित जाति होने के लाभ से वंचित है। जबकि धर्म परिवर्तन करके बुद्ध या सिक्ख हो जाने पर यह पाबन्दी नहीं है। सच्चर कमेटी ने भी इस बात को माना है कि 1950 के राष्ट्रपति के अध्यायदेश द्वारा अनुसूचित जाति की सीमा तय करते समय कर्म के आधार पर अछूत समझे जाने वाले सिर्फ हिन्दुओं को ही शामिल किया गया। जबकि गै़र हिन्दुओं को, जो मुस्लिम या ईसाई थे और जिनकी सामाजिक स्थिति भी हिन्दु दलित के समान थी, को छोड़ दिया गया, जो ओ.बी.सी. के अन्तर्गत अधिसूचित हैं। यदि मुस्लिम समाज की बात करें तो कम से कम हलालखोर जैसी जातियों को अनुसूचित जाति की सूची में शामिल किया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा संविधान संशोधन के बगैर संभव नहीं है। फिर सच्चर और रंगनाथ जैसी कमेटी और आयोग की अनुशंशाओं का क्या औचित्य है? 
सरकार का तर्क है कि जाति आधारित जनगणना से खाद्य सुरक्षा का सही अनुमान लगाया जा सकता है। फिर एक-एक करके अन्य नीतियों के क्रियान्वयन में भी इस जनगणना की मदद ली जा सकेगी। ताकि कल्याणकारी योजनाओं का लाभ सही व्यक्ति और परिवार तक पहुंच सके। यदि इस बात पर यकीन करें तो मानना होगा कि हमारे समाज में जात-पात की समस्या समाप्त हो चुकी है। सर्व शिक्षा अभियान, मनरेगा, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, सम्पूर्ण सफाई अभियान जैसी योजनाओं की रेलमपेल में सम्मान का सवाल बहुत पीछे रह गया है। जिस सम्मान को प्राप्त करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था को लागू किया गया था, सम्मान की वह भावना विभिन्न लोक कल्याणकारी योजनाओं की भेंट चढ़ने वाली है। आरक्षण के समर्थकों सुनों ध्यान से तुम्हारी गिनती ओबीसी में नहीं होने वाली। तुम बहुत सशक्त हो चुके हो। अब तुम्हें अपनी जाति के सामने दिए बाॅक्स में कोड संख्या 3 भरना है। यही कोड सामान्य जाति के लोग भी भरेंगे। इस कोड का मतलब यह है कि आपकी गिनती अन्य पिछड़ों में नहीं बल्कि सामान्यों के साथ होगी। शायद सरकार इस मत से सहमत हो चुकी है कि आरक्षण का लाभ पिछड़ों को जितना मिलना था मिल चुका। लेकिन सरकार यह भूल रही है कि आरक्षण का लाभ पिछड़ों की कुछ जाति विशेष को ही मिल पाया है।
सवाल घूम फिरकर वहीं आ पहुंचता है। आरक्षण की व्यवस्था सामाजिक सम्मान की भावना से जुड़ी है। सम्मान का संबंध संसाधनों की समान रूप से उपलब्धता, पहुंच और अवसरों में समानता से है। यदि मौजूदा प्रणाली के तहत हो रही जाति जनगणना से दलितों-पिछड़ों की सामाजिक स्थिति में साकारात्मक बदलाव आने की संभावना है तब तो ऐसी जनगणना का स्वागतम् है। अन्यथा भावनाओं और योजनाओं में गड्मड् करके खिचड़ी पकाने से भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है।

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