Tuesday, November 2, 2010

कमरे में कैद “ग्लोबल दुनिया ” में संवाद की सीमाएं और संभावनाएं

व्यक्ति, समाज और संवाद का संबंध अटूट है। फिर भी न जाने क्यों हम और हमारा समाज ऐसी विकट परिस्थितियों से घिरे हुए हैं जिसमें संवाद की संभावनाएं क्षीण पड़ती जा रही है। कहने को सूचना क्रांति ने दुनिया को एक कमरे में कैद कर दिया है जिसे ग्लोबल वर्ल्ड कहा जा रहा है। टेलीविजन, इण्टरनेट और मोबाइल इसके अग्रदूत हैं। जबसे इन आविष्कारों का चलन बढ़ा है हमारे समक्ष नयी चुनौतियां भी खड़ी हुई हैं। हम घंटों किसी बड़े मोबाइल सेवा प्रदाता कम्पनी के लुभावने कारोबारी स्कीम का लाभ उठाते हुए अपने किसी चहेते से बात करते रहते हैं, टी॰वी॰ देखते रहते हैं या फिर इण्टरनेट पर सरफिन में व्यस्त रहते हैं। ये बात अलग है कि हमारे घर में अम्मा ने खाना खाया कि नहीं भइया किसी दूसरे शहर गए हुए हैं, कब आएंगे जैसे लोगों की सुध लेने के लिए न तो समय है और न ही शब्द। आपका और हमारा सौंदर्यबोध कम से कम इतना परिपक्व अवश्य है कि हम और आप स्वतंत्रतापूर्वक सोच सकते हैं कि 70 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण आबादी वाले इस देश में किस तरह देशी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियां राज कर रही हैं। ये बात किसी से छुपी नहीं है कि कर लो दुनिया मुट्ठी में”, सर जी क्या आइडिया है” , और ऐसी आजादी और कहाँ का पाठ इस देश के नागरिकों को किस तरह पढ़ाया जा रहा है। भारत एक लोकतांत्रिक देश है। भारतीय संविधान को देखिए, ऐसा प्रतीत होता है कि इस तरह के विज्ञापनों के पंचमार्क किसी विद्वान ने अपने शोध परक अध्ययन के बाद सीधे संविधान की उद्देशिका से खोज कर निकाले हांे। स्वतंत्रता, समानता और न्याय प्रत्येक भारतीय का मौलिक अधिकार है। कुछ मामलों को छोड़कर ये अधिकार विदेशियों को भी प्राप्त हैं। तो फिर संवाद करने का अधिकार भी संवैधानिक रूप से परिभाषित अवश्य है। शायद इसी पारिभाषिक अधिकार के अनुरूप स्वतंत्रता, समानता और न्याय में निहित संवाद की भाषा और संस्कृति की पूंजीवादी रूपरेखा तय की जा रही है। ऐसी आजादी और कहाँ” , किसी एक कंपनी की सेवा या उत्पाद के विज्ञापन का पंचमार्क है, लेकिन वस्तुतः ऐसे पंचमार्क उन कंपनियों के पूंजीवादी शोषक चरित्र के परिचायक हैं जिनका प्रधान उद्देश्य अधिक से अधिक मुनाफा कमाना है। इसी तरह कर लो दुनिया मुट्ठी में यानि तीसरी दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्रांतिक देश के बाजार पर वर्चस्व कायम करो। विश्व व्यापार संगठन तो है ही बीच-बचाव के लिए। कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि इस तरह के पंचमार्क वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से अनुप्राणीत हैं जिसका बहुराष्ट्रीय कम्पनियां ससम्मान दोहन कर रही हैं। इनके नित नए तेवर और कलेवर को देखते हुए कई बार ऐसा लगता है जैसे हम इक्कीसवीं सदी नहीं बल्कि अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के उपनिवेशवादी अर्थव्यवस्था में जी रहे हैं। कहा जा सकता है कि यदि हम-आप भी बहुराष्ट्रीय होते तो वास्तविक अर्थों में इक्कीसवीं सदी के जन-गण-मन.... होते।
इतिहास की गौरवमयी यादों को ताजा करने और प्रेरणा प्राप्त करने के लिए वर्ष के 365 दिनों में कई दिन ऐसे हैं जिसे हम धूमधाम से मनाते हैं। 15 अगस्त और 26 जनवरी ऐसे ही दिन हैं। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे गौरवमयी इतिहास के पन्नों पर एक बार फिर गुलाम भारत में होने वाले आर्थिक दोहन के दिनों की यादों की परत चढ़ती जा रही है। हम जानते हैं कि दादा भाई नौरोजी ने आर्थिक दोहन का सिद्धांत प्रस्तुत किया था। इससे इतर मार्क्सवादी मॉडल में श्रम और पूंजी के संबंधों पर विस्तार से वर्णन भी है। लेकिन संवाद की कारपोरेट भाषा ने हमारे सौंदर्यबोध को इस तरह कमरे में बैठा दिया है कि सच-झूठ और ब्लैक एण्ड ह्वाइट में अंतर करने की हमारी क्षमता क्षीण पड़ती जा रही है। हमें सैटेलाइट्स चैनलों, इण्टरनेट और मोबाइल मेसेजिंग के माध्यम से बताया जा रहा है कि हमारे जीवन का अर्थ क्या है ? हमारा जीवन लिरिल जैसे साबुन, गार्नियर जैसे क्रीम, पिज्जा जैसे व्यंजनों और ली कूपर जींस या रिबाक जैसे जूतों से पूर्ण होगा या फिर हमारे घरेलू व्यंजनों, परिधानों और प्रसाधनों से ?
संवाद के नाम पर बहुत कुछ हो रहा है मौजूदा दौर में। हम दुनिया को एक कमरे में कैद करने में सक्षम हो चुके हैं। कमरे में बैठे-बैठे चाँद पर कदम रखने की बातें हो रही हैं लेकिन यह भी सच है कि नयी पीढ़ी संवाद के यथार्थ से दूर भी होती जा रही है। सौंदर्यबोध हमें बताता है दो चीजों में अंतर करने की कला। विचार करें तो हमारे सामने दो तरह के चित्र प्रकट होते हैं। एक तो पहले वाली दुनिया की जो कमरे में कैद नहीं थी। जो खेतों-खलिहानों की दुनिया थी, जो मजदूर, किसान और कामगारों की दुनिया थी। जो प्रगतीशील आंदोलनों की दुनिया थी। जो हलकू, घेसू, होरी, टोबा टेक सिंह और लाजवंती जैसों की दुनिया थी। जो प्रेमचंद्र, बेदी, कृष्णचन्द्र, मिण्टो और ईस्मत की दुनिया थी। एक ऐसी दुनिया जहाँ पर संकटों के बादलों को चीरते हुए कुछ साकारात्मक कर गुजरने का हौसला हुआ करता था, जहाँ संघर्षों के गीत गाए जाते थे। जहाँ ज़िन्दगी संवेदना के तारों में गुथी हुई थी। जहाँ विभिन्न सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक विषंगतियों और समस्याओं के बाद भी जुल्म और अत्याचार के खिलाफ आवाजें़ बुलंद होती थीं। यह दुनिया आज की तरह नहीं थी लेकिन अपने समय की अद्भुत दुनिया थी। लाजपत के सर के जख्म भगत जैसों को सुनाई देती थी और भगत जैसे अपनी आवाज़ सत्ता के गलियारों में पहुँचाने का हौसला रखते थे। बिल्कुल खुली हुई थी यह दुनिया। गुलामी की जंजीरों में कैद होने के बाद भी कुटुंबकम की भावना और अपनेपन के सूत्र में बंधी हुई थी यह दुनिया।
अब देखिए कमरे में कैद ग्लोबल दुनिया की तस्वीर। रिमोट कहाँ है”, हेलो! मोबाइल चार्ज में लगा था”, “थ्री इडियट्स देखा कि नहीं! ” , “थोड़ा बिग बॉस तो लगाना!” , “नहीं आज तो डॉन्स इण्डिया डॉन्स का फाइनल है! याद करें क्या ये और ऐसे न जाने कितने वाक्य हमारे बेडरूम से नहीं निकलते हैं ? यदि निकलते हैं तो क्या हमारे बारामदों और रसोई घरों से होते हुए हमारे जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं और अपेक्षाओं को प्रभावित नहीं करते हैं ? इस दुनिया की माया ही विचित्र है। इस दुनिया में रोचकता तो कूट-कूट कर भरी है। तभी तो हमारे समक्ष समाचारों में भी कैटरीना और शिल्पा की अदाओं पर विद्ववतापूर्ण बहस प्रस्तुत की जाती है। तेज और सबसे तेज या श्रेष्ठ और सर्वश्रेष्ठ होने का दावा करने वाले कुछ चैनल तो संवाद की इस कला में इतने आगे हैं कि वो समाचार और आइटम नं॰ में अंतर ही भूलते जा रहे हैं। विद्वानों की बातों पर यकीन करें तो मामला टी॰आर॰पी॰ का है। इसलिए ऐसा स्वाभाविक रूप से घटित हो रहा है। सचमुच आर्थिक सुधारों के बाद सूचना और प्राद्योगिकी की तूफानी प्रगति ने हमारे लिए नई भाषा-शैली और शब्दकोश का ऐसा ताना-बाना बुना है जिसमें परंपरागत भाषा और संस्कृति के विकास की संभावनाएं क्षीण पड़ती जा रही हैं।
बहरहाल इतना तो अनुभव किया ही जा सकता है कि टी॰वी॰, मोबाइल और इण्टरनेट की इस ग्लोबल दुनिया में संवाद की सीमाएं असीमित हैं। हम काम से घर पर आते हैं तो पहले की तरह अपने घर परिवार वालों का कुशलक्षेम नहीं पूछते बल्कि जिनका कुशलक्षेम पूछने का संस्कारिक इतिहास रहा है उन्हीं से पूछा जाता है कि बिजली है कि नहीं! सास-बहु आ रहा है क्या ? क्या! अम्मा जी मर गयीं ?” अमोली, ज्योती, आनंदी, अर्चना और सिम्मी का क्या हुआ ?” राघव, मानव और ब्रिज कैसे हैं ?” जाहिर है संवाद की सीमाएं इस हद तक बढ़ चुकी हैं कि कारपोरेट कलाकार हमारे जीवन के अंतरंग साथी बनते जा रहे हैं और हमारे अपने हमसे दूर होते जा रहे हैं। यदि बालिका बधू की आनंदी को गोली लगती है तो उसके लिए हम सभी का हृदय करूणा और दया से भर जाता हैै लेकिन युवा हिन्दुस्तान के लाखों-करोणों घरों में जो लोग पूंजीवादी भूमण्डलीकरण से मर्माहत हैं और जीवन की अंतिम सांसे गिन रहे हैं या फिर भूखे पेट सो रहे हैं, उनकी अनकही कहानी हमारे लिए कोई मायने नहीं रखती।
फॉस्ट लाइफ और जेनरेशन गैप जैसे मत अपनी जगह सही हो सकते हैं लेकिन संवाद के संवेदनशील आइने में ऐसे मतों पर मुहर नहीं लगायी जा सकती है। क्योंकि व्यक्ति और परिवार सामाजिक ढ़ांचे की बुनियादी इकाई समझे जाते हैं और संवाद ही हमारी संवेदनाओं का वाहक होता है। लेकिन दुःख की बात है कि संवाद के यांत्रिकी और विद्युतीय तारों में हम इस तरह फंसते जा रहे हैं कि हम हमारे उम्र के पड़ोसियों और भाइयों तक से भी दूर होते जा रहे हैं। नकुशा और सिया के लिए हमारे मन में सहानुभूति तो होती है लेकिन अपने माँ-बाप और भाई के लिए कोई संवेदना नहीं होती। एक ही मुहल्ले में रहते हैं लेकिन अपने पड़ोसियों के लिए समय का अभाव रहता है। दरअसल पहले तो हम एक टी॰वी॰ में पूरा परिवार मनोरंजन करते थे और अब हर कमरे में कैद एक नई और रोचक दुनिया को देखने के लिए अलग-अलग कमरों में कैद रहने के आदी हो गए हैं।
समझा जा सकता है परिवारों, समाजों और हमारे-आप जैसों की बिखरती हुई सामाजिकता और संवेदनशीलता की भयावह स्थिति और ऐसी संवादहीन तथा संवेदहीन किसी भी परिस्थिति की गंभीरता को। कमरे में कैद ग्लोबल दुनिया में संवाद ही संवाद है। बच्चे पोगो देखते हैं, माँ सास-बहु और कारपोरेट घराने की ललिया और जमुनिया देखती है और बाप को बिग-बॉस एवं डॉन्स इण्डिया डॉन्स से फुर्सत नहीं होती है। सब के सब संवाद कर रहे होते हैं। फिर भी ऐसा लगता है कि संवाद की डोर कहीं न कहीं कमजोर पड़ रही है। आखिर क्यों हमारी संवेदना रीमोट कंट्रोल, माउस  और मोबाइल के बटन में कैद होती जा रही है ? आखिर क्यों हम कमरे में कैद ग्लोबल दुनिया के गुलाम होते जा रहे हैं ? क्या विकास की कीमत हमारे गूंगेपन, बहरेपन और अंधेपन की शक्ल में अदा होगी ? निश्चित तौर पर कमरे में कैद ग्लोबल दुनिया हमको यही प्रेरणा दे रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि संचार क्रांति ने दुनिया को कमरे में कैद करने की बजाय हमें, हमारी सोच और संवेदना को ही एक कमरे में कैद करने का काम किया है। ऐसी स्थिति में हमें अपने सौंदर्यबोध को जगाना होगा और संवाद की नई संभावनाएं भी तलाश करनी होगी जिसमें भावनाओं के तार विश्रृंखलित न होने पाएं, जहाँ हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक और संस्कारिक दुनिया को एक नई फलक मिल सके।

2 comments:

  1. Aapki har baat se sahmat hun! Ye bhee sach hai,ki,ham hamare Rashtreey tyohaar niji taur pe kabhi nahi manate!
    Blogjagat me aapka swagat hai!
    Gar word verification active ho to please hata den! Comment karne me suvidha hogi!

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  2. इस सुंदर से नए चिट्ठे के साथ हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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