Monday, December 19, 2011

मुस्लिम आरक्षण: पसमांदा मुसलमानों पर नज़र


पिछले कुछ महीनों से मुस्लिम आरक्षण बहस का केन्द्रीय विषय बना हुआ है। छोटे-बड़े सभी दलों के नेताओं के बयान आ रहे हैं। बयानों में सच्चर और रंगनाथ की दुहाइयां दी जा रही हैं। कांग्रेसी सांसद सलमान खुर्शीद से लेकर आज़म खां, मुलायम सिंह, मुख्तार अब्बास नकवी जैसे नेता इस सवाल पर काफी गंभीर दिखाई दे रहे हैं। गंभीर हो रहे इस माहौल में तमिलनाडू और आन्ध्र प्रदेश का उद्धरण भी शामिल है, जहां पर सभी मुसलमानों के लिए आरक्षण का प्रावधान है। दक्षिणी राज्यों में मुसलमानों की स्थिति चाहे जैसी हो उत्तर भारत के मुसलमानों में या यूं कहें कि मुसलमानों में जाति स्तरीकरण की बात को सच्चर कमेटी ने स्वीकार किया है। यदि इस कमेटी ने स्वीकार नहीं भी किया होता तो भी इस सच्चाई को ठुकराना मुश्किल है कि मुसलमानों में जो पिछड़े हैं और वो जिनकी स्थिति दलितों के समान है, को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए। भेदभाव का शिकार अजलाफ और अरजाल तबका पहले से ही आरक्षण के दायरे में है। आरक्षण के संदर्भ में दो बातें प्रासंगिक हैं। एक तो इस बात की जांच होनी चाहिए कि मण्डल के बावजूद पिछड़े मुसलमानों को उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण का लाभ क्यों नहीं पहुंचा? दूसरी बात यह कि दलित मुसलमानों को अनुसूचित जाति का दर्जा कब मिलेगा?
अल्पसंख्यक समुदाय की समस्याओं से इंकार नहीं है। साम्प्रदायिक आधार पर होने वाले भेदभाव भी पूरा देश अवगत है। लेकिन इस मर्ज की दवा आरक्षण नहीं बल्कि सियासत के मैदान में छुट्टे साँढ़ की तरह घूम रहे उन व्यक्तियों को जेल के अन्दर करना है जो कभी फांसीवादी एजेण्डे के तहत साम्प्रदायिक हिंसा करके अल्पसंख्यक समुदाय में भय पैदा करते हैं। जिसके कारण ईसाई, सिख के साथ-साथ देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय को शिक्षा और नौकरियों के अवसरों से स्वतः वंचित होना पड़ता है। विशेषकर अदृश्य रूप में व्याप्त सांप्रदायिक मानसिकता और इससे जनित हिंसा और परिणामस्वरूप पैदा होने वाली परिस्थिति पर अलग से नीति बनाने की जरूरत है। मुमकिन है आने वाले समय में प्रीवेन्शन आॅफ कम्यूनल वायलेन्स बिल से इस समस्या का कोई समाधान निकल आए। इसलिए आरक्षण के बहस को साम्प्रदायिक समुदाय के आइने में देखना उचित नहीं है। 
मण्डल लागू होने के समय से ही पसमांदा मुसलमान अर्थात अजलाफ और अरजाल ओ.बी.सी. के अन्तर्गत आरक्षण की श्रेणी में शामिल हंै। फिर उसके लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था की जरूरत क्या है? यह सवाल काफी प्रासंगिक है। क्योंकि इस सवाल का जवाब दिए बगैर पसमांदा मुसलमानों को आरक्षण की व्यवस्था बनाने की दिशा में पहल नहीं की जा सकती है। दरअसल आरक्षण का हक रखने वाले पसमांदा मुसलमानों को जिस अनुपात में लाभ पहुंचना चाहिए था, वो अबतक नहीं पहुंच सका है। पिछले बीस वर्षों में देश और दुनिया में बहुत से सामाजिक बदलाव हुए। लेकिन इस अवधि में तुलनात्मक रूप से पसमांदा मुसलमानों की शैक्षिक और सामाजिक स्थिति में कोई खास बदलाव भी नहीं आया। ज़ाहिर है इसके पीछे भेदभाव की मुख्य भूमिका रही है। इसलिए ओ.बी.सी. आरक्षण होने के बाद भी पसमांदा मुसलमान मुख्य धारा से जुड़ नहीं पाया है। यदि 6 प्रतिशत मुस्लिम आरक्षण की व्यवस्था हो जाती है तो इनकी स्थिति यूं ही बनी रहेगी।
चूंकि अगले साल चुनाव है इसलिए खुर्शीद के बयान को चुनावी स्टंट के रूप में भी देखा जा रहा है। सच्चाई चाहे जो हो सलमान ने बतौर मंत्री यहां तक कहा है कि अगले तीन महीनों में मुस्लिम आरक्षण को लागू कर दिया जाएगा। इसके लिए युद्ध स्तर पर कोशिश जारी है। लेकिन ऐसे आरक्षण का क्या तर्क जिससे शासक वर्ग को एक बार फिर से पिछड़ों के शोषण का अधिकार प्राप्त हो जाए। क्या खुर्शीद साहब नहीं जानते कि शैक्षिक और सामाजिक पिछड़ापन ही आरक्षण का संवैधानिक आधार हो सकता है। यह मुद्दा विचारणीय है। क्योंकि इस तरह का कोई भी कदम संघ परिवार जैसी सांप्रदायिक ताकतों के मुस्लिम अपीजमेंट के तर्क को जस्टीफाई करने वाला होगा। दूसरी तरफ आरक्षण के परिप्रेक्ष्य में पसमांदा मुसलमान की स्थिति वैसी ही बनी रहेगी जैसा मंडल के लागू होने से लेकर अबतक रही है। इसकी वजह भी साफ है। इस बात की गारण्टी कौन लेगा कि मुस्लिम समाज के ही चन्द मुट्ठी भर लोग मुस्लिम आरक्षण के नाम पर पसमांदा मुसलमानों का हक नहीं मारेंगे। ग़ौर तलब है कि अबतक चन्द मुट्ठी भर सामन्ती हैसियत रखने वाले मुसलमान ही तमाम मुसलमानों के नाम पर अपने अनुसार राजकाज की गतिविधियां चलाते आए हैं और पसमांदा मुसलमानों के जीवन से संबंधित तमाम फैसले करते आए हैं।
शिल्पकार टाइम्स, 16-31 दिसम्बर 2011

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