Sunday, March 28, 2021

‘बच्चा’ होने की पहचान से वंचित बच्चों पर एक नज़र

 सन 2011 की जनगणना के अनुसार हमारे देश की कुल आबादी में 14 वर्ष तक के बच्चों का अनुपात 29.5 प्रतिशत दर्ज है। भारत सरकार के वेबसाइट  censusindia.gov.in     पर उपलब्ध आधिकारिक आंकड़ों में बच्चों की आबादी को तीन उप वर्गों में विभाजित करके प्रस्तुत किया गया है। ये तीन उप वर्ग क्रमशः 0 से 4 वर्ष, 5 से 9 वर्ष और 10 से 14 वर्ष हैं। इन तीन आयु वर्गों में बच्चों की आबादी का अनुपात क्रमशः 9.7, 9.2 और 10.5 प्रतिशत है। यदि पहले वर्ग में शामिल 9.7 प्रतिशत बच्चों को छोड़कर शेष  बच्चों (19.7 प्रतिशत) की बात करें, तो ये बच्चे स्कूल जाने वाले बच्चे हैं। इन बच्चों में अधिकतर को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के अन्तर्गत शिक्षा का मौलिक अधिकार प्राप्त है। लेकिन विषम सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के कारण 6 से 14 वर्ष आयु वर्ग के बहुत से बच्चे आज भी स्कूल जाने से वंचित हैं। इनमें बहुत से बच्चे बाल श्रम का शिकार हैं, तो बहुत से बच्चों को अपने माता-पिता के साथ सहायक के रूप में घरेलू कामों में हाथ बंटाना पड़ता है। ऐसे बच्चे भी हैं, जिन्हें स्कूल के समय में कूड़ों के ढ़ेर में अपना भविष्य तलाशते देखा जाता है। पिछले वर्ष हमारा देश जब कोविड-19 संक्रमण के कारण लाॅकडाउन की आपात परिस्थिति से गुजर रहा था, तो इस आपात परिस्थिति में भी ऐसे बच्चों को सड़कों पर घूम-घूम कर रोटी और कपड़ा का जुगाड़ करते देखा गया। ये वो बच्चे हैं जो कूड़ों की ढे़र से या गली-गली घूम कर कबाड़ जुटा कर अपने परिवारों की आजीविका चलाने में मदद करते हैं। गाजियाबाद का आसिफ भी ऐसे ही बच्चों में से एक है, जिसे हर रोज़ कबाड़ में अपना भविष्य तलाशना होता है। ऐसे बच्चों के साथ मुसीबतें भी साथ-साथ चलती हैं। इनका हुलिया देखकर आम तौर पर लोग इन्हें हकीर निगाह से देखते हैं। ऐसे बच्चों से दूरी बनाए रखना या पांच-दस रूपए की दया दिखाकर पीछा छुड़ाना लोगों की सोच है। फिर भी कुछ लोग ऐसे अवश्य हैं, जिन्हें इनकी फिक्र होती है और जिनकी संवेदनाएं इनके साथ होती हैं। वरना सरकार के लिए ऐसे बच्चे उस संख्या का हिस्सा होते हैं, जिनके कल्याण के लिए कई मंत्रालय काम करते हैं। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, श्रम मंत्रालय, स्वास्थ्य मंत्रालय, पर्यावरण मंत्रालय, मानव संसाधन और विकास मंत्रालय एवं गृह मंत्रालय वगैरह का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। इन मंत्रालयों के कामकाज में बच्चों का हित एक महत्वपूर्ण पक्ष होता है। अस्पताल और स्कूल से लेकर काम करने के स्थानों पर बच्चों के बारे में नियमों और सावधानियों की लम्बी फेहरिस्त है। लेकिन अफसोस कि बच्चों की एक बड़ी संख्या इन नियमों और कानूनों के सुरक्षा कवच से बाहर है। ऐसे बच्चे ढ़ाबों पर, बस स्टैण्डों पर, रेलवे स्टेशनों पर, सड़कों के चैराहों पर आर्थिक क्रियाएं करते देखे जाते हैं। कूड़े के ढे़र में कबाड़ ढ़ूंढ़ना और कबाड़ बेचकर गुजारा करना ऐसी ही आर्थिक गतिविधियां हैं।

ऐसा नहीं है कि ऐसे बच्चों पर सरकार और समाज की दृष्टि नहीं पड़ती है। पड़ती है लेकिन छोटू और राजू से आंख मिलाना सरकार में शामिल हर किसी के वश की बात नहीं हैं। यदि उत्तर प्रदेश की बात करें तो नवनीत सीकेरा और शमीम अख़्तर अंसारी जैसे कुछ एक अफसरों के बारे में ऐसा कहा जा सकता है कि वो अपने आस-पास दिखने वाले ऐसे बच्चों से सहानुभूति और संवेदना रखते हैं। शायद यही कारण है कि शमीम अख़्तर अंसारी ने देवीपाटन मण्डल में उपश्रमायुक्त रहते हुए ऐसे बच्चों को गोद लेने की पहल शुरू की। उनके विचार से गोण्डा जिला के तत्कालीन जिलाधिकारी और पुलिस कप्तान ने भी बच्चों को गोद लेकर नज़ीर स्थापित किया। उम्मीद की जानी चाहिए कि अधिकारियों द्वारा उठाए गए इस सराहनीय कदम का अनुकरण समाज में भी व्यापक स्तर पर किया जाएगा।

बहरहाल, बात करते हैं गाजियाबाद के आसिफ नाम के उस बच्चे की जिसकी उम्र 14 वर्ष है और जो हर बच्चे की तरह ही अपने माता-पिता के जिगर का टुकड़ा है। आसिफ का विडियो सोशल मीडिया पर खू़ब देखा और दिखाया जा रहा है। ट्वीटर पर समाज का एक वर्ग “साॅरी आसिफ” कह रहा है तो दूसरा “चोर आसिफ” कह रहा है। ज़ाहिर है, आसिफ के साथ बहुत से लोग दया और सहानुभूति जता रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ लोगों का एक समूह ऐसा भी है, जो उसे नफ़रतों पात्र समझ रहा है। सोशल मीडिया में आसिफ अपने छवि निर्माण की किस पीड़ा से गुज़र रहा है, इस बात की चिंता कम ही लोगों को है। कहना होगा कि सोशल मीडिया में लगातार छवि निर्माण की इस प्रक्रिया में कहीं न कहीं आसिफ एक बच्चा होने की पहचान से वंचित होता जा रहा है।

देश और प्रदेश में किन्हीं कारणों से कोई बच्चा इस तरह की परिस्थितियों में कैद हो जाए तो यह स्थिति सरकार और समाज दोनों ही संस्थाओं में मौजूद संवेदनशील व्यक्तियों के लिए दुःख की बात है। जिन लोगों की संवेदनाएं बाल जगत से जुड़ी नहीं हैं या जो लोग बच्चों के अधिकारों के बारे में औपचारिक या अनौपचारिक रूप से जागरूक और चेतित नहीं हैं, उनके लिए आसिफ जैसे बच्चे हिन्दू-मुस्लिम से ज्यादा कुछ नहीं हैं। अक्सर ऐसा होता है कि बच्चों के पीछे घरों और गांव-मुहल्लों में विवाद और झगड़ा की स्थितियां पैदा होती हैं। लेकिन निष्पक्ष तौर पर बच्चों के विवाद का निष्कर्ष यही होता है कि बच्चे मासूम होते हैं न कि अपराधी। उनके व्यक्तित्व में कुंठा, हो सकती है, कोई बच्चा एकाकीपन का शिकार हो सकता है, किसी बच्चे के अंदर अपराध बोध हो सकता है। लेकिन कोई बच्चा सचेतन तौर पर अपराधी है, ऐसा होने की संभावना कम होती है। शायद यही कारण है कि हमारे यहां बाल सुधारगृहों की व्यवस्था है।

बच्चे देश का भविष्य होते हैं। उनके साथ सार्वजनिक स्थानों पर हंसी-मजाक भी होते हम देखते हैं। बच्चों के साथ हंसी-मज़ाक करके मनोरंजन करना बच्चों के भावनात्मक विकास की दृष्टि से उचित नहीं है। लेकिन हमारे समाज में हर जगह इस तरह की बातें होती रहती हैं। हमारा ध्यान इस ओर नहीं जाता है। आसिफ तो विशेष आवश्यकता वाले बच्चों में से एक है। यदि उसकी परिस्थितियां सामान्य होतीं तो शायद वो भी स्कूल के समय में किताबों का बस्ता लेकर किसी स्कूल के रास्ते में होता या अपने स्कूल की कक्षा में अपने दोस्तों के साथ पढ़ाई कर रहा होता। आसिफ की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों ने उसे स्कूल के अनुभव से वंचित कर रखा है। ये विचार का अलग विषय है कि सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों का निर्माता और नियंता कौन है? बहरहाल, स्कूल से वंचित ऐसे बच्चों पर सरकार की पूरी नज़र है। ऐसे बच्चों को स्कूल से जोड़ना सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता रही है। इस उद्देश्य को प्राप्त करने लिए शिक्षा विभाग पिछले कई दशकों से सर्व शिक्षा अभियान जैसी योजनाएं चला रहा है। 2009 में सरकार 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा अधिनियम लागू कर सरकार ने ऐतिहासिक काम किया। लेकिन अफसोस कि इस कानून के लागू होने के एक दशक के बाद भी आसिफ जैसे बच्चों को कबाड़ का काम करना पड़ रहा है। यहां बहस आसिफ के हिन्दू या मुस्लिम होने, उसके मंदिर में प्रवेश करने या नहीं करने, उसके पानी पीने या नहीं पीने के बजाय उसके स्कूल जाने या नहीं जाने, उसके कबाड़ का काम करने या नहीं करने आदि बिन्दुओं पर केन्द्रित होनी चाहिए। लेकिन हिंसा और नफ़रतों के सौदागरों के लिए बच्चों का आस्तित्व, उनका बचपन और उनकी शिक्षा कोई महत्व नहीं रखती। तभी तो आसिफ जैसे बच्चे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हिंसा एवं चाइल्ड एब्यूज़ एवं टैªफिकिंग का शिकार हो जाते हैं।

ज़ाहिर है आसिफ जैसे बच्चों का बचपन कबाड़ से जिन्दगी का जुगाड़ बनाने में गुजरता है। इन जुगाड़ी बच्चों के बचपन की कीमत पर ही सभ्य और श्रेष्ठ का भरम पालने वाले व्यक्तियों के घरों का कबाड़ उचित स्थान पर पहुंचता है। वरना सभ्य लोगों का घर-दरवाज़ा गंदगी के ढे़र से बजबजाता हुआ दिखाई देता। अच्छा होता कि ऐसे बच्चों को राज्य की निगरानी में आवसीय विद्यालय में रखा जाता। जहां उनके रहने और शिक्षा की उचित व्यवस्था होती।

समाज की भी ऐसे बच्चों के प्रति जिम्मेदारियां हैं। समाज को भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे बच्चों को चिन्हित करने और उन्हें कल्याणकारी योजनाओं से जोड़ने में सरकार की मदद करें। ऐसे बच्चों के जीवन को हमें अपने दृष्टिकोण का हिस्सा बनाना होगा। तभी हम इनकी परिस्थितियां और इनकी पहचान को देख और समझ सकेंगे। वरना ऐसे बच्चे अपने मूल पहचान (बच्चा) से वंचित ही रहेंगे। मूल पहचान से वंचित होना सिर्फ उस बच्चे और उसके माता-पिता का व्यक्तिगत नुकसान नहीं है बल्कि समाज और देश का भी बड़ा नुकसान है। क्योंकि हर बच्चे में संभावनाओं के बीज तत्व होते हैं। एक सभ्य नागरिक बनने से लेकर देश और समाज के लिए कुछ रचनात्मक करने वाला व्यक्ति कभी न कभी बचपन के दौर से गुज़रता ज़रूर है। जरूरी है कि हम आसिफ जैसे बच्चों में एक सभ्य नागरिक की कल्पना को दृष्टिगत रखते हुए हम बच्चों के प्रति दोस्ताना व्यवहार बनाएं। यह सरकार और समाज दोनों के लिए आवश्यक है। क्योंकि ये दोनों ही संस्थाएं बच्चा, बूढ़ा और जवान के अधिकारों और कल्याण के प्रति संवैधानिक और नैतिक रूप से जवाबदेह हैं। यह कह देना भी काफी नहीं है कि सबकुछ सरकार करेगी। जागरूकता और चेतना के प्रसार में व्यक्ति और समाज का सहयोग ज़रूरी है।

इस संदर्भ में यह कहना उचित प्रतीत होता है कि आसिफ के बच्चा होने की पहचान को सर्वोपरि मानते हुए उसके बाल अधिकारों को प्रमुखता दी गयी होती या उसके स्कूल में दाखिले की पहल की गयी होती तो न सिर्फ उसके ज़ख़्मों पर मरहम लगी होती बल्कि समाज के समक्ष एक आदर्श स्थापित हुआ होता। लेकिन लाइक और डिसलाइक की दुनिया के कीड़ों ने आसिफ नाम के बच्चे की धार्मिक पहचान को प्रचारित और प्रसारित किया और होने दिया। उसके जानबूझकर या अनजाने में मंदिर में प्रवेश करने को प्रमुखता से सनसनीखेज़ समाचार बनाया। मंदिर के महंत जी और उनसे वैचारिक समानता रखने वालों ने आसिफ के मंदिर प्रवेश और पानी पीने को जघन्य अपराध माना। इस कृत्य से आसिफ के एक बच्चा होने की पहचान जाती रही। घटनाक्रम से ऐसा प्रतीत होता है कि आसिफ के साथ हिंसा में लिप्त श्रृंगेरी और उसके साथी का कृत्य अपनी जगह उचित है। इस सवाल पर विचार आवश्यक है कि किसी भी बच्चे को मारने-पीटने यानि हिंसा का अधिकार क्या किसी को है? क्या संविधान और प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत हमें इस बात की इजाजत देता है? अच्छा होता कि आसिफ जैसे बच्चों को सिर्फ बच्चा वर्ग में रखकर कोई निर्णय किया जाता। आसिफ बच्चों की उस टोली से है, जिनकी ज़िन्दगी में न तो कलम है और न ही किताब। ऐसे बच्चों का जीवन बाल अधिकारों की वंचना की ढ़ेरों कहानियों से भरा पड़ा है। संभव है महंत जी की बातों में सच्चाई हो। उन्हें आसिफ में वयस्कों जैसी इच्छाओं और लालसाओं का आभाष हुआ हो। यदि महंत जी के पूर्वाग्रह को सच मान लिया जाए कि हमारे बच्चे बाल आयु में वयस्क जैसा व्यवहार कर रहे हैं तो ऐसा होने के पीछे जिम्मेदार कारकों की पड़ताल किसकी जिम्मेदारी है? आसिफ के साथ हिंसा में लिप्त दोनों नौजवानों को यदि नादान की श्रेणी रखा जाए तो क्या महंत जी को एक सभ्य नागरिक की जिम्मेदारियों से मुक्त किया जा सकता है। क्या ये उनकी जिम्मेदारी नहीं बनती कि बच्चों के साथ बच्चों सा व्यवहार की भावना को बढ़ाने में अपेक्षित सहयोग करते न कि नफरती बयान जारी करते। क्या उन जैसे लोगों को “रूकिए, देखिए, जाइए” का बोध नहीं होना चाहिए? बच्चों के साथ हिंसा और हिंसा को तर्क संगत बताना क्या अपराध नहीं है? बहरहाल, पुलिस-प्रशासन की तारीफ की जानी चाहिए कि सरकारी अमले ने हिंसा में लिप्त दोनों लड़कों के खिलाफ समय रहते कार्यवाही की। लेकिन सरकार के साथ-साथ समाज को भी बाल अधिकारों के लिए सामने आने की ज़रूरत है।
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