Tuesday, October 5, 2010

इलेक्ट्रानिक मीडिया का ग्रामीण परिप्रेक्ष्य

मौजूदा सूचना क्रांति के दौर में मीडिया (संचार) की भूमिका जीवन के हर क्षेत्र में पहले से कहीं अधिक बढ़ गयी है। मीडिया के कई रूप और प्रकार हैं। सामान्यातः अखबार और टेलीविजन को ही मीडिया का पर्याय माना जाता है। लेकिन फिल्म, नाटक, गीत-संगीत और लोक कलाओं जैसे, चित्र कला, वास्तु कला आदि भी मीडिया के सशक्त माध्यम हैं। बौद्धिक वर्ग तो इन बातों से भली भाँति परिचित है लेकिन सामान्य जन में मीडिया की पहचान कुछ अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं और टेलीविजन तथा रेडियो पर प्रसारित होने वाली खबरों तक सीमित है। ऐसे में सैंकड़ों की संख्या में देखे और सुने जाने वाले सैटेलाइट चैनलों की गिनती मीडिया चैनलों में नहीं की जाती है। कम से कम एक आम व्यक्ति इस बात से अनभिज्ञ रहता है कि वो जिन मनोरंजन चैनलों का आनंद उठा रहा है वो सब ही इलेक्ट्रानिक मीडिया के अभिन्न अंग हैं। बहरहाल उन्हें इससे क्या कि कोई चैनल मीडिया का अंग है या नहीं। उन्हें तो सस्ता मनोरंजन चाहिए। जो कभी दूरदर्शन जैसे स्वदेशी तो कभी स्टार प्लस जैसे विदेशी चैनलों पर प्राप्त कर लेता है। दरअसल इन दिनों इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में यह बहस आम है कि कौन से कार्यक्रम हमारे समाज के दीर्घकालिक हितों के लिए श्रेयस्कर हैं और कौन से नहीं हैं। पिछले कुछ एक सालों से टी॰ वी॰ सीरियलों में एक तरफ जहाँ रियालटी शो का रूझान बढ़ा है वहीं दूसरी तरफ ग्रामीण जीवन और सामाजिक परंपराओं का चित्रण भी बड़े पैमाने पर हो रहा है। डिश और डी॰टी॰एच॰ की छतरियों की पहुंच अब गांवों तक भी है। सवाल यह है कि क्या इन छतरियों के माध्यम से हमारे बेडरूम तक पहुंच रखने वाले छोटे परदे पर ग्रामीण भारत की तस्वीर दिखाई देती है?
ध्यान दिलाना चाहूंगा आजकल के सास-बहू और विवाहेतर संबंधों को लेकर प्रसारित किए जाने वाले दर्जनों टी॰वी॰ सीरियल की। इन सीरियलों में रिश्ते-नातों और परंपराओं की जिन गुत्थियों को सुलझाने की ग्लैमरस कोशिश की जा रही है उसमें सामाजिक ताने-बाने पर उपभोक्तावादी संस्कृति के रंगों को चढ़ता हुआ देखा जा सकता है। क्या हमारे कस्बे और गांव के लोग इस बात को आसानी से स्वीकार कर सकते हैं कि जिस ज्योती का प्रेम ब्रिज से होता है, उसकी शादी पंकज से हो जाती है और बाद में पंकज से तलाक के बाद एक बार फिर ज्योती की जिंदगी में कबीर नाम का व्यक्ति आता है। एक अन्य सीरियल का थीम यह है कि सुमन की शादी उसके पति के बडे़ भाई से होनी है। न आना इस देश मेरी लाडो की अम्मा जी के आदेशों की अनदेखी कौन कर सकता है। इस लोकप्रिय सीरियल में अम्मा जी अपने छोटे लड़के को उसकी माँ समान भाभी के साथ संभोग का आदेश देती हैं। "अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो में तो लोहा सिंह की सनक के आगे सब बेकार है। उक्त सभी सीरियलों में दुःख, विषाद, करूणा, हर्ष और काम के बहुत सारे भावों को दर्शाया जा रहा है। यही कारण है कि ये सीरियल महिलाओं के साथ-साथ पुरूष वर्ग में भी काफी लोकप्रिय हैं। लेकिन दुःख की बात है कि मनोरंजन के इस ग्लैमर में दर्शक सीरियल की पृष्ठभूमि, भाषा और संवाद तथा घटनाओं की वास्तविकता और प्रस्तुति की सत्यता को जांचते नहीं हैं। वो भूल जाते हैं कि उक्त सीरियलों में जिन गांवों का दर्शन है वो मदर इंडिया या बुनियाद में दिखने वाले हिन्दुस्तानी गांव नहीं हैं बल्कि किसी एकता कपूर और किसी स्टार या जी जैसे बाजार परस्त मीडिया घरानों के सपनों के गांव हैं। कहना नहीं है कि दिखावटी चमक-दमक से युक्त ये गांव हमारे घर-गांव में अपनी जगह बनाने के लिए निरन्तर प्रयासरत्त हैं।
कहा जा सकता है, यदि 100 रूपए से 300 रूपए तक में घर-घर डाइरेक्ट टू होम संचार से जुड़ जाता है तो इसमें बुरा क्या है। दरअसल बुराई मीडिया घरानों के मनसूबों और कार्य करने के तरीकों में है। अपने जीवन की किसी महत्वपूर्ण घटना को याद कीजिए जो आपके लिए अविस्मरिय हो। उस घटना से संबंद्ध लोगों के बारे में सोचिए और विचार कीजिए अपने सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और परंपराओं के बारे में। फिर इन तमाम बातों को किसी भी सीरियल से मिलाकर देखिए, क्या आपके परिवार और समाज में घटित होने वाली घटनाओं और सीरियल में पेश होने वाली घटनाओं में कोई तारतम्य बैठता है? हम पाएंगे कि अधिकतर घटनाएं जो हमारे जीवन की घटनाओं जैसी लगती हैं वस्तुतः उनकी सही प्रस्तुति नहीं होती है। ये भी कहा जा सकता है कि सीरियल में तो पहले ही घोषणा लिखा रहता है कि ‘‘इस कार्यक्रम में पेश होने वाले सभी पात्र, घटना और संवाद काल्पनिक हैं। इनका हमारे वास्तविक जीवन से कोई लेना-देना नहीं है।’’ तो क्या इसका अर्थ यह समझा जाए कि मीडिया हाउस अपनी काल्पनिक उड़ान को आम जनता पर थोपने की कोशिश कर रहा है। कुछ एक सीरियलों के प्रसारण में नीचे यह लिखा हुआ होता है कि ‘‘इस कहानी के पात्र, स्थल और संवाद सभी काल्पनिक हैं। हमारा प्रयास इसके माध्यम से समाज में फैली विषंगतियों या औरतों पर होने वाले अत्याचारों को समाप्त करना है।’’
जाहिर है कुछ मामलों में उक्त सीरियल हमें आइना भी दिखाते हैं। साथ ही अन्तर्प्रान्तीय एकता और अखण्डता के पाठ भी सीखाते हैं। जैसे हम घर बैठे-बैठे मराठी, बिहारी और हरियानवी संस्कृति के उभयनिष्ठ पक्षों से अवगत हो जाते हैं। लेकिन प्रस्तुति की शैली और ग्लैमर के अति मिश्रण से हम हमारी अपनी मिट्टी, अपने लोगों और अपने संस्कारों व परंपराओं से दूर भी होते जा रहे हैं। हमारी संवेदनाएं अन्तर्प्रान्तीय और अन्तर्देशीय भाषाओं और संस्कृतियों से तो आबद्ध हो रही हैं लेकिन अपने ही घर-दरवाजे पर किसी प्यासे बुजुर्ग को एक गिलास पानी पिलाने वाली संस्कृति से हम लगातार दूर होते जा रहे हैं। आज का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इसी ग्रामीण परिप्रेक्ष्य से दूर होता जा रहा है।
ऐसी नाजुक स्थिति में जबकि मीडिया हमारी जरूरत है, हमें इस बात को भी समझना होगा कि मीडिया से संबंधित हमारी आवश्यकताएं क्या और कितनी हैं? इनकी पूर्ति में वर्तमान मीडिया किस हद तक सफल है। कहीं ऐसा तो नहीं हम ऐसे बाजार परस्त मीडिया घरानों के लिए आर्थिक दोहन के मात्र माध्यम और साधन बनकर रह गए हैं, जहाँ हमारा ग्रामीण परिप्रेक्ष्य वास्तविकता से पीछे छूटता जा रहा है।

1 comment:

  1. bahut achha likha hai partner....kalamnaveesi ke is naye manch pe aapka swagat hai.

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